Wednesday, June 15, 2016

सैराट : समीक्षा की समीक्षा

सैराट : समीक्षा की समीक्षा 
मैंने यह मराठी सिनेमा नहीं देखी है । कुछ भाई बंधु का समीक्षा पढ़ा । सिनेमा और विषय पर कुछ नहीं कहूँगा लेकिन अपने ज़िंदगी के अनुभव पर कुछ लिखूँगा । 
हर इंसान जवान होता है और कहीं न कहीं उसका एक मुचूअल क़्रश होता है - अगर आई लव यू बोल दिया तो अफ़ेयर हो गया वरना वो मुचूअल क़्रश हवा हो गया । ज़िंदगी आगे बढ़ गयी - अतीत का गीत तबतक गाते रहिए जबतक की आपका वर्तमान तहस नहस न हो जाए । 
ख़ैर , प्रेम से पवित्र कुछ भी नहीं - लेकिन यह प्रेम कितना प्रेम है - यह भी जान लेना चाहिए । बस स्टॉप पर किसी लड़की के गिरे हुए किताब को उठा कर दे देना और फिर उसके पीछे पीछे उसके घर तक पहुँच जाना - प्रेम का प्रथम पायदान हो सकता है , सम्पूर्ण प्रेम नहीं । 
इस तरह के प्रेम के हर पहलू को देखना ज़रूरी है । घर से लेकर समाज तक , आज के दिन मैं दस ऐसे उदाहरण मेरी आँखों के सामने हैं , जहाँ अलग अलग क्लास में प्रेम विवाह हुआ और शादी टूटी नहीं - लड़के ग़ायब हो गए , कोई दिल्ली कमाने गया तो वापस नहीं लौटा - कहाँ गया वो प्रेम ? उस विवाहित लड़की का बोझ कौन उठाएगा ? उसके अकेली रातों का कष्ट कौन उठाएगा ? ड़ाइवोर्स भी एक आसान उपाय है लेकिन वह ऐसी मानसिक कष्ट है जिससे जेनिफ़र लोपेज़ तक जैसी मज़बूत महिला भी नहीं बच सकी । लेकिन ड़ाइवोर्स भी तब जब लड़का का पता चले । 
लिबरल और मॉडर्न माता - पिता किस कष्ट से गुज़रते हैं , इसकी कल्पना अपने आप में रोंगटे खड़ा कर देती है । 
अब सवाल उठता है - ऐसा होता क्यों है ? मैं एक पुरुष हूँ , कोई मुझसे पूछे 'असल और सच्चा प्रेम क्या है ?' - पुरुष का प्रेम उसके सेक्स से जुड़ा होता है , उसकी तमन्ना एक नंगी औरत होती है - लेकिन अगर अंदर प्रेम नहीं है फिर नंगी औरत से गंदी भी उसे कुछ नहीं लगती  - स्खलन के बाद भी जो पुरुष अपनी प्रेमिका के वक्ष से चिपका रहे वही असल प्रेमी है और बार बार उसी भावना से उसी प्रेम को तलाशे - वही असली चाहत है । लेकिन यही सबसे बड़ा ट्रैप है और लोग यहीं फँसते हैं । 
अपनी प्रेमिका को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ की नक़ल में गीत गा कर सुनाना और चंद शेर शायरी लिख देना ही प्रेम नहीं है । ज़िंदगी लम्बी होती है - कई क़समें वादे निभाने होते हैं । प्रेम सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है । 
मेरे एक निकटतम रिश्तेदार की बेटी को प्रेम हुआ - अंतरजातीय था । मुझसे सलाह माँगा गया - मेरा प्रथम सवाल था - परिवार ? मैं लड़के वालों से ख़ुद मिला और बेसिक ख़ुद के परिवार जैसा पाया - हाँ , हुई और आज दोनो बहुत ख़ुश है । 
तथाकथित प्रेम आसान है - रिश्ता निभाना बहुत मुश्किल है । प्रेम रहेगा तो रिश्ता भी निभ जाएगा , यह कहना बहुत मुश्किल है - रिश्ते में कई कारक/ फ़ैक्टर होते है - शायद यहीं परिवार या एक समान बेसिक वैल्यू / बचपन और बहुत कुछ मैटर करता है । कई बार एक जैसा पढ़ाई लिखाई और नौकरी भी रिश्ता को जोड़े रखता है । सुबह से शाम एक साथ रहने पर बहुत बारीकी से बहुत कुछ का अंतर पता चलता है । 
प्रेम त्याग माँगता है । एक मुँह बोली बहन को अंतरजातीय प्रेम हुआ - लड़का अलाएड जैसी एक नौकरी में था , वो बहन दूसरे प्रोफ़ेशन में थी - ज़िंदगी कैसे साथ कटेगी , लड़के ने एक मिनट में नौकरी को लात मारी और अपनी प्रेमिका के प्रोफ़ेशन को अपना लिया । 
प्रेम दृढ़ निश्चय माँगता है । मेरे सबसे क़रीबी दोस्त दीपक के मौसेरा भाई नवीन आइएएस टॉप टेन बने । समस्तिपुर के गाँव में पढ़ते वक़्त किसी ज़मींदार परिवार की लड़की को वचन दे दिए । लड़की से छः महीना का समय माँगे - दिल्ली गए और उधर से आइएएस की नौकरी । लड़की का हाथ पकड़े और जम्मू कश्मीर क़ैडर जोईन किए - फिर कभी बिहार नहीं झाँके । ना तो कभी शेर शायरी लिखे और ना ही नाक में कपड़ा वाला क्लिप लगा के मुकेश की आवाज़ की नक़ल में गीत गाए । 
मैं जाति में विश्वास नहीं रखता लेकिन मैं लालन - पालन / क्लास में विश्वास रखता हूँ । मेरी भी एक बेटी है । वह सिर्फ़ एक लड़की नहीं है - वह एक परिवार की बेटी है - वह एक समाज की बेटी है - प्रेम गुनाह नहीं है लेकिन प्रेम टिकाऊ तभी रहता है - जब वह कई अन्य चीज़ों के साथ जुड़ा रहे । 
पहले प्रेम मुश्किल होता था - रिश्ता निभाना आसान - अब प्रेम होना आसान हो गया है - रिश्ता निभाना मुश्किल । 
प्रेम घटते बढ़ते रहता है - बेसिक वैल्यू / सामाजिक स्तर / परिवार / सभ्यता इत्यादि का एक समान होना रिश्ते को बनाए रखता है । 
बाक़ी असफल प्रेम कहानी बहुत लुभाती है - लेकिन सफल प्रेम कहानी किस किस रास्ते से गुज़रती है , कैसे कैसे त्याग और क़समें वादों पर टिकी होती है - यह किसी को नज़र नहीं आता ।

Monday, June 13, 2016

दो दुनिया - भाग एक !

बिलकुल दो दुनिया होती है ! 
एक अन्दर की , एक बाहर की ! एक स्त्री की , एक पुरुष की ! एक निश्छल की , एक छल की ! एक प्रेम की , एक नफरत की !  एक साधू की , एक चोर की ! एक भगवान् की , एक हैवान की ! एक हमारी , एक आपकी ! एक नेता की , एक जनता की ! एक जल की , एक थल की ! एक मैदान की , एक मरुभूमि की ! एक लिविंग रूम की , एक बेडरूम की ! एक ओफ्फिस की , एक घर की ! 
हमारे आपके साथ भी दो दुनिया हर वक़्त साथ चलती है - एक दिल की , एक दिमाग की !   
बहुत बचपन की एक याद है , बाबा राजनीति में सक्रीय थे ! सुबह सुबह वो खुद से पान बनाते और एक बड़ा लोटा लेकर खेतों की तरफ निकल जाते ! एक सैर कर आते ! एक घंटा का सैर ! जब तक वो वापस दरवाजे पर आते तब तक दरवाजा पर सौ पचास लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई पैदल आता , कोई साईकील से , तो कोई मोटरसाईकल से ! जिसकी जैसी सामाजिक हैसियत वह अपना जगह खोज बैठ जाता ! कोई दालान में रखे बड़े चंपारण कुर्सी पर तो कोई चौकी पर , कोई यूँ ही ओसारा पर , भुईयां पर !
बाबा बड़े आराम से , खादी के हाफ सफ़ेद वाली चेक बनियान और धोती में , एक मोटा जनेऊ और उंगली में बेहतरीन इटालियन मूंगा , वैसा मूंगा आजतक कहीं नहीं देखा  ! लोग उनको घेर लेते थे ! सुबह नींद खुल गयी तो मै भी दरवाजे / दुआर / दुरा पर चला जाता था ! मुझे यही लगता था , मेरे बाबा जैसा कोई नहीं ! फिर थोड़ी देर बाद , बाबा आँगन में आते , एकदम आहिस्ता आहिस्ता , पैर को दबा के ! लबे हैं , बेहद आकर्षक हैं , चेहरे पर एक मस्सा ! बहुत दबे पाँव आँगन में आते थे ! अपनी बाहरी दुरा / दुआर की दुनिया से आँगन की दुनिया में , दादी की दुनिया में ! दादी को हमसभी ‘दीदी’ कहते थे ! दीदी अपने भंसा में व्यस्त ! बाबा चुपके से आँगन के ओसारा के उस कोना में बैठ जाते थे जहाँ उनका ‘पान’ एक लकड़ी के डोलची में भिंगा कर रखा होता था , वहीँ अपने पैरों पर बैठ जाते , धीरे धीरे पान लगाते ! खूब आराम से , कत्था , रत्ना चाप ज़र्दा , कला पंजुम ! हम भी वहीं बाबा के पास बैठ जाते ! ‘दीदी’ भंसा घर में व्यस्त और कुछ हलके गुस्से में , भुनभुनाती हुई , बाबा अपनी तिरछी नज़र से भंसा घर की तरफ देखते ! दीदी भंसा घर से निकलते हुए ! बाबा एकदम हलके से , धीरे से भोजपुरी में बोलते – ‘दरवाजा पर कुछ लोग आये हुए हैं , कुछ कप चाय भेजवा दीजिये’ ! अचानक से दीदी का पारा गरम हो जाता और दीदी गुस्सा में कुछ कुछ बोलने लगती थीं ! हम बच्चे आँगन के पाए के इर्द गिर्द खेलते हुए , दीदी की बातों को सुनते ! बाबा फिर चुपके से अपने पान को चबाते दरवाजा / दुआर / दुरा पर निकल जाते ! दीदी फिर चाय बनवा कर दरवाजा पर भेज देती , साथ में बाबा के लिए खूब बड़ा फुलहा कटोरा में चिउरा – दही भी ! 
दीदी गुस्सा तो जरुर होती थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद बाबा का मन रख लेती थीं ! मेरी माँ अपने सास ससुर के बारे में कहती थीं - 'बाबु जी तो दीदी को रानी की तरह रखते हैं' ! मै सोचता था - हम कोई राजा रजवाड़ा तो हैं नहीं, फिर ये रानी शब्द कहाँ  से आया ? :) दीदी भी जब आँगन से बाहर जाती - बाबा के जमघट पर एक नज़र दूर से - सर पर पल्लो रखते हुए - किसी किचेन हेल्पर से पूछती - 'मालिक को कुछ जरुरत तो नहीं' !  यह पूछते वक़्त दीदी का गुस्सा कहाँ चला जाता था - आज तक समझ में नहीं आया !
तब भी लगता था और आज भी लगता है , बाबा जिनसे मिलने के लिए दरवाजा पर सैकड़ों लोग खड़े हैं , वही इंसान आँगन में घुसते ही शक्तीविहीन , कोमल ! जो दीदी आँगन में इतना गुस्सा वही बाहर झांकते हुए इतना शांत !

बिलकुल दो दुनिया थी , बाहर की दुनिया जहाँ के बादशाह बाबा होते थे और अन्दर की दुनिया जहाँ की रानी दीदी होती थीं ! दोनों एक बैलेंस बना के रखे थे ! 

जब आँगन की दुनिया में कुछ गड़बड़ी , दीदी का सारा गुस्सा बाबा प
र ! बाबा एकदम चुपचाप सुनते थे ! जब बाहर की दुनिया में कुछ गड़बड़ , बाबा एकदम गुस्सा में फनफनाते हुए आँगन में आते थे और दीदी एकदम शांत ! 

क्या बैलेंस था ...उफ्फ्फ ! किसने सिखाया होगा , ये बैलेंस !
मैंने एक कोण से दो दुनिया की एक झलक पेश करने की कोशिश की है ! न जाने ऐसी कितनी ‘दो दुनिया’ होती है ! 

कमेन्ट कीजिएगा ...:))
@RR