Sunday, May 31, 2015

मेरी कहानी - मेरी ही ज़ुबानी - पार्ट वन

बात वर्षों पुरानी है ! धीरे धीरे कर के ,बंगलौर से सारे दोस्त विदेश या देश के दुसरे प्रांत जाने लगे थे ! हम अमित के साथ मल्लेश्वरम सर्किल पर रहते थे ! अमित को कलकत्ता में नौकरी लग गयी थी ! एक दोपहर उसको विदा करने बंगलौर स्टेशन पर जाना हुआ ! भारी मन से उसको विदा कर के प्लेटफार्म से बाहर निकला ही की नज़र पडी एक जानी पहचानी सूरत पर ! वो थे एक , बचपन के जान पहचान पर उम्र में एक दो साल छोटे , रिश्ते में चाचा / दादा कर के कुछ लगते थे लेकिन मै उनको नाम से ही पुकारता था ! गले मिले ! छोटा कद , काफी गोरा रंग और नीली आँखें , बेहद मीठी जुबान ! वहीँ भोजपुरी में ही बात चित शुरू हो गयी ! तुम कहाँ तो तुम कहाँ ! तुम कब से इस शहर में तो तुम कब से इस शहर में ! वो वहीँ के एक बेहतरीन विश्वविद्यालय में पढ़ते थे जो शहर से कुछ दूरी पर था ! 
अगले ही शाम महाशय मेरे डेरा / रूम पर पधार गए ! सुबह के बासी बचे अखबारों के पन्नों में उलझा हुआ था ! गप्प हुआ ! थोड़ा और शाम हुआ ! वो मेरे आगंतुक थे सो मैंने उन्हें डिनर पर इनवाईट किया ! उनको डिनर के लिए हाँ करने में माइक्रो सेकेण्ड भी नहीं लगा ! मैंने अपना नया चमचमाता बजाज चेतक निकाला और वो भी बड़े हक से पीछे बैठ गए ! उनदिनों , इन्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साईंस के जिमखाना का रेस्त्रां मेरा पसंदीदा डिनर स्थल था ! कलेजी फ्राई , मटन के साथ कुछ एक वहीँ के एमटेक के विद्यार्थी दोस्त होते थे ! महाशय भी मेरे दोस्तों से मिल खुश हुए ! मेरे साथ वो भी कलेजी फ्राई चांपे ! फिर वो बस पकड़ अपने विश्वविद्यालय के लिए निकल पड़े और मै अपने रूम / डेरा पर ! 
अब धीरे - धीरे उनकी फ्रीक्वेंसी बढ़ने लगी ! कभी किसी इतवार वो सुबह ही आ जाते ! इतना मधुर बोलते ! मेरी बडाई में कोई कोई कसर नहीं छोड़ते ! एक आध सप्ताह बाद - बड़े कॉन्फिडेंस से वो मेरा स्कूटर भी उधार मांग लेते - एक सुबह लेकर जाते तो देर शाम लौटाते frown emoticon

पर बोलते इतना मीठा थे की मुझे लगता की वो मेरा स्कूटर लेकर मुझ पर कोई उपकार किये हैं ! मै अपने स्कूटर की चावी उनके हाथ में देते हुए बहुत खुश हो जाता था , कोई तो इस अनजान शहर में है जो मुझे इतना भाव देता है ! 
मेरी तनखाह सात तारिख को मिलती थी , एक सात तारीख वो शाम पदार्पण लिए ! थोड़े मायूस थे ! अचानक से वो मुस्कुराने लगे और सीधे बड़े हक से मुझसे पांच हज़ार मांग दिए ! संकोच / लिहाज से परिपूर्ण मेरा व्यक्तित्व ना नहीं कह सका और और अगले दिन मैंने उनको बैंक में बुला लिया ! मेरी ज्यादा दिन की नौकरी नहीं थी , घर परिवार में लोगों को मदद करते देखा था ! मुझे ऐसा महसूस हुआ - मै भी दो पैसा का आदमी हो गया हूँ - कोई मुझसे भी मदद मांग रहा है - इसी भावना से ओत प्रोत होकर मैंने उस जमाने में उनके हाथ में पांच हज़ार पकड़ा दिए ! वो उस दिन फिर से मेरा स्कूटर भी मांग लिए ! मै ना नहीं कह सका ! तीन दिन बाद स्कूटर लौटाए ! frown emoticon


उनदिनों अपने कॉलेज के दोस्तों के अलावा मै किसी और से ज्यादा और जल्दी नहीं खुलता था ! फिर भी एक रोज मैंने उनसे कहा - आप दिखने में किसी हीरो से कम नहीं , क्यों नहीं मोडलिंग करते हैं - साथ ही अपनी कुछ गीत / ग़ज़ल / नाटक की कहानी सुनायी ! जबाब आया - पिछले साल ही 'फेमिना' में मेरी फोटो छप चुकी है ! मै और खुश हुआ - जिस आदमी का फेमिना में फोटो छपी वो इंसान मेरे रूम पर इतनी आसानी से आ जा रहा है ! पैसा और स्कूटर को लेकर जो हलचल मेरे मन में हो रही थी - वो सब एक पल में ख़त्म हो गया ! लगा धन्य हो गया , ऐसे मित्र को पाकर :) 
एक दो महीने बीते , मेरा पैसा वापस नहीं हुआ ! मन में हल्की बेचैनी लेकिन 'फेमिना' के मॉडल के नाम पर , मेरे मन के बुरे ख्याल ख़त्म हो जाते ! यही सोचता - इतना हाई प्रोफाईल नौजवान - कितना झुक कर मुझसे मिलता है , जरुर से व्यक्तित्व बहुत बड़ा होगा ! 
फिर वो अचानक से एक दिन बोल बैठे - तुम्हारा भी फोटो फेमिना में छपवा देंगे ! मै एकदम से हडबडा गया ! अचानक से कल्पना की दुनिया में खो गया ! मुझे पटना के कान्वेंट / एनडीए की अपने जमाने की लड़की लोग , सब के सब देहाती लगने लगी ! अब मेरी तस्वीर वेल्हम और मेयो के गर्ल्स होस्टल के दीवार पर लगेगी ! ऐसे न जाने कितने ख्याल , अब मै सड़क पर तन के चले लगा ! पटना की बड़ी बड़ी हवेली के बालकोनीओं को कल्पना में लाकर मैंने मन ही मन ही एक कुटील मुस्कान देने लगा  ! 'चल हट टाईप' एक्सप्रेशन मेरे चेहरे पर आ जाता ! 
फोटो सेशन का दिन तय हुआ ! उन्होंने कहा की पहले राऊंड में वो खुद मेरी तस्वीर खींचेंगे , दुसरे राऊंड में फेमिना  का  फोटोग्राफर खिंचेगा  ! कैमरा का इंतेज़ाम भी वही करेंगे , बस रील का खर्च मुझे देना होगा ! मै एकदम से अक्षय कुमार के पोज में डेनिम जैकेट और टाई पहन बंगलौर विधानसभा और एमजी रोड पर - अनगिनत फोटो खिंचवाया , गजब गजब का पोज , ब्रिगेड रोड के मॉल में - कैप्सूल लिफ्ट में , कभी गर्दन टेढ़ा तो कभी गर्दन सीधा , कभी रेलिंग पकड़ के तो कभी किसी को घूरते हुए , कभी टाई तो कभी शर्ट का दो बटन खुला हुआ ! उसी झोंक में मैंने एक नया रे बैन भी ले लिया , नौकरी के लिए निकलते वक़्त , माँ ने जो पैसे दिए थे वो रे बैन को भेंट चढ़ गया ! एक रेमंड का सूट का भी इंतजाम हुआ ! फोटो खिंचवाने के दिन सुबह चार बजे ही जाग गया था ! बूट पर - दे पॉलिश ...दे पॉलिश ...दे पॉलिश :) 
सुबह के वक़्त एमजी रोड पर फोटो खिंचवाते हुए , मुझे ऐसा लग रहा था जैसे की अब बस अगला साल सोनाली बेंद्रे मुझे प्रोपोज कर देगी ! तब वो बहुत बढ़िया लगती थी ! थोड़ा अलग सा क्लास नज़र आता था ! काल्पनिक व्यक्ती को और क्या चाहिए ! मन ही मन सोचता - वो महाशय मुझसे पांच हज़ार ही क्यों मांगे, मुझे लगा ऐसे महाशय के लिए तो दस बीस हज़ार भी कम हैं जो मुझे दुनिया की उस कक्ष में स्थापित करने को तैयार था - जो मेरी कल्पना से परे था ! अब वो मेरे लिए किसी भगवान् से कम नहीं थे ! 

अब वो रोज शाम आने लगे , हम भी थोड़े खुल गए ! हर शाम एक ठंडी बियर और चिकेन फ्राईड राईस और उनकी मीठी बोली ! हम हर वक़्त खुद को धन्य समझते जो इस अनजान शहर में , कोई तो मिला ! वरना दफ्तर में रोज मैनेजर की गाली ही मिलती ! रोज कल्पना करता - बड़ा मॉडल बन जाऊंगा तो एक दिन बड़ी गाडी से इसी दफ्तर में आऊँगा तो मेरा मेनेजर मुझे देख अपनी सीट खाली करेगा ! पटना जायेंगे तो घर में ही रहेंगे , कोई मोहल्ला - गली का चक्कर नहीं काटेंगे - जैसे ख्याल , ख्यालों की दुनिया ने मुझे अन्दर ही अन्दर वजनदार बना दिया था ! भगवान् की कृपा से नाक नक्श ठीक ही था , बस लम्बाई छः फीट वाली नहीं थी ! 
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माँ के मार्फ़त पिता जी को भी खबर भेजवा दिया - अभी कुछ दिन मेरी शादी की बात चीत रुकवा दिया जाए और कम से कम पटना / बिहार में तो कदापि नहीं :D ! ...कहाँ मेरा लीग / क्लास / स्टैण्डर्ड और कहाँ पटना के लोग ! पिछले दस ग्यारह साल से आँखों से सामने से गुज़री सारी लड़की लोग - एक नज़र में आ जाती , फिर मै कुटील मुस्कान देता , आईना में खुद को देखता और सोनाली बेंद्रे का गीत मेरे टू इन वन पर बजता - 'संभाला है मैंने - बहुत अपने दिल को - जुबाँ पर तेरा ही नाम आ रहा है ' :) अब बस मंजील एक ही नज़र आती ! 

अब कॉन्फिडेंस भी जाग गया था ! वीकएंड में , जिस एमजी रोड पर , माइक्रो और मिनी के तरफ देखने की चाहत ही धड़कन बढ़ा देती थी , अब मै किसी पब में घुस आँख में आँख डाल कर मुस्कुराता ! फेमिना मैगज़ीन खरीदाने लगा ! कबाड़ी के यहाँ से पुराने एडिशन भी , पर वो वाला एडिशन नहीं मिला जिसमे उस महाशय का फोटो छपा था ! कभी कुछ शंका आती तो लगता - ऐसा आदमी झूट थोड़े न बोलेगा , ऐसी सोच मेरे मन में ग्लानी ला देती ! जो इंसान मुझे इतना बड़ा अवसर दे रहा है उस इंसान के बारे में , मै इतना गलत कैसे सोच सकता हूँ :( 

रील साफ़ हुआ , कुछ फोटो ठीक आये , कुछ में कैमरा हील गया , कुछ में आधा काला और सामने से धुप frown emoticon

 मन दुखी हुआ , बहुत दुखी  ! संकोच से कुछ नहीं बोला और महाशय मेरा साफ़ किया हुआ रील लेकर निकल गए की फेमिना के लोकल फोटोग्राफर से बात करने ! 

फिर वो लौट कर कभी नहीं आये 21 साल पहले ...पांच हज़ार का कुछ तो महत्व रहा होगा ...कई ख्याल आये ! बाद में पता चला ...उनका मै ही सिर्फ अकेला शिकार नहीं था ...और लोग भी अलग अलग ढंग से हुए ...आज वो पांच हज़ार चक्रवृधी ब्याज की तरह ..मालूम नहीं कितना होता ...:) 
हा हा हा हा ....उसी दौर की एक तस्वीर ...बंगलौर विधानसभा के सामने से ...हा हा हा हा 
@RR


Saturday, May 30, 2015

प्रेम और युद्ध ....


दिनकर लिखते हैं - " समस्या युद्ध की हो अथवा प्रेम की, कठिनाइयाँ सर्वत्र समान हैं। " - दोनों में बहुत साहस चाहिए होता है ! हवा में तलवार भांजना 'युद्ध' नहीं होता और ना ही कविता लिख सन्देश भेजना प्रेम होता है ! युद्ध और प्रेम दोनों की भावनात्मक इंटेंसिटी एक ही है ! युद्ध में किसी की जान ले लेने की शक्ती होनी चाहिए और प्रेम में खुद को विलीन करने की शक्ती ! दोनों का मजा तभी है - जब सामनेवाला भी उसी कला और साहस से मैदान में है ! कई बार बगैर कौशल भी - साहस से कई युद्ध या प्रेम जीता जाता है - कई बार सारे कौशल ...साहस की कमी के कारण वहीँ ढेर हो जाते हैं ...जहाँ से वो पनपे होते हैं ! और एक हल्की चूक - युद्ध में जान ले सकती है और प्रेम में नज़र से गिरा सकती है ! 
इतिहास गवाह है - ऐसे शूरवीरों से भरा पडा है - जिसने प्रेम में खुद को समर्पित किया और वही इंसान युद्ध में किसी को मार गिराया - यह ईश्वरीय देन है - भोग का महत्व भी वही समझ सकता है - जिसने कभी कुछ त्याग किया हो ! 
कहते हैं - राजा दशरथ किसी युद्ध से विजेता होकर - जब कैकेयी के कमरे में घुसे तो उनके पैर कांपने लगे - यह वही कर सकता है - जिसे युद्ध और प्रेम दोनों की समझ हो ! दोनों में पौरुषता और वीरता दोनों की अनन्त शक्ती होनी चाहिए ! पृथ्वीराज चौहान वीर थे - प्रेम भी उसी कौशल और साहस से किया - जिस कौशल और साहस से युद्ध ! मैंने इतिहास नहीं पढ़ा है - पर कई पौरुष इर्द गिर्द भी नज़र आये - जिनसे आप सीखते हैं ! हर पुरुष की तमन्ना होती है - वो खुद को पूर्णता के तरफ ले जाए - और यह सफ़र आसान नहीं होता ! 
युद्ध और प्रेम ...दोनों के अपने नियम होते हैं - और दोनों में जो हार जाता है - उसे भगोड़ा घोषित कर दिया जाता है ! रोमांस / इश्क प्रेम नहीं है ...महज एक कल्पना है ! फीलिंग्स नीड्स एक्शन - जब भावनाएं एक्शन डिमांड करती हैं - तभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है - तब पता चलता है - ख्यालों को मन में पालना और उन्हें हकीकत में उतारना - कितना मुश्किल कार्य है ! 
युद्ध के सामान ही प्रेम आपसे एक एक कर के सब कुछ माँगता चला जाता है - देनेवाला किसी भी हाल में लेनेवाले से उंचा और ऊपर होता है - युद्ध में हारने वाला आपसे माफी मांगता है - प्रेम में बहाने बनाता है - युद्ध में आप माफ़ कर सकते हैं - पर प्रेम में कभी माफी नहीं मिलती - युद्ध भी कभी कभी प्रेम में बदल जाता है और सबसे बड़ी मुश्किल तब होती जब आप जिससे प्रेम करे - उसी से युद्ध करना पड़े ! और उसी इंटेंसिटी से करें - जिस इंटेंसिटी से प्रेम किया था - फिर तो ....वह दुबारा भगोड़ा हो सकता है ...:))
~  रंजन ऋतुराज

@RR

Thursday, May 28, 2015

Daalaan Literature Festival : गाँव का भोज भात


गाँव का भोज - भात 
आजतक वाले अभी लालू के बेटी की शादी पे एक प्रोग्राम देखा रहे थे । पंडाल से लेके स्टेज से लेके घोड़ा-घोड़ी तक को कभर किया गया था । बट मेन अट्रेक्शन था खाने को लेके, जो रिपोर्टर थी ऊ सब मेहमान के मुँह में माइक ठूँस के पूछले थी तब "क्या-क्या था खाने में ?" एक अपने तरफ के गेस्ट साहब बोले " बहुते चीज था बहुते चीज ।" रिपोर्टर फेर पूछी "आप क्या-क्या खाए ?" गेस्ट साहब बोले "चौमिन खाए, मेंचूरियम खाए, बहुत चीज खाए । " हम सोंचे कहाँ से कहाँ भोज भी पहुँच गया है ना, बच्चा में याद है जिस दिन भोज होता था बड़ी एक्साइटमेंट रहता था कि रात में भोज खाने जाना है । नौता दुपहर तक आ जाता था, फेर बेट होता था रात में बिज्जै का । जइसे आठ बजते झिंझरी बजा दुआरी का अ अबाज आया " फलना बाबू के हियाँ से बिज्जै हो ।" बस फेर का हाँथ में लोटा गिलास लेके सब भाय रेडी, एगो हाँथ में एभररेडी टॉर्च दोसर में गिलास बस पप्पा जी या फेर बाबा के पीछे सोझ । भोज बाले जगह पे पहुँचे त देखे लोग खाइये रहे हैं, बेट कीजिये चौंकी पे बैठ के अप्पन बारी का। एक पंगत उठा अ बस अयन्टा नीचे सरका के पालथी मारके बैठ जाइये, पत्तल मिल गया अ गिलास में पानी भी भरा गया । बस तनी सुन पानी पत्तल पे छींट के उसको धो धाके रेडी । पूरी, आलू परबल का तरकारी, रतोबा सब परसा गया है,इभेन राम-रस भी सर्भ हो चुका है, फेर एक आदमी बोलेंगे "शुरू कइल जाय" बस मुरी गोंत के चाँपना चालू । कुछ देर बाद दोसर आदमी का उद्घोष " रसगुल्ला चलाहो महराज ।" खुसुर-फुसुर चालू "आय त भोला का सो गो रसगुल्ला अराम से ख़ैथुन....धुर्र सो गो से उनखरा कौची होतन आय तो डेढ़ सो टपथुन ।" भोला का का पत्तल साफ़ है ऊ खाली रसगुल्ले खाते हैं, एगो आदमी करका अ उजरका रसगुल्ला का बाल्टी लेके उनके बगले में खड़ा हो गया है । आदमी रसगुल्ला देले जा रहा है अ भोला का बिना शिकन के चाँपले जा रहे हैं । बासमती भात,बूँट के दाल जेक्कर ऊपर ढेर सारा पाबित्रि अ साथ में पापड़ से भोज का इति-श्री । फाइनली पानी देबे बाला आ गया है, आधा लोग अप्पन गिलास या लोटा के ऊपर हाँथ धइले हैं काहे कि उसके अंदर रसगुल्ला जे ठुंस्सल है, पानी गिर गया त कामे गड़बड़ा जायगा । खैर फेर एक बुजुर्ग का उद्घोष "उट्ठल जाय ।" और सब अपना पत्तल छोड़ के एक साथ उठ गए । बढ़िया से डकार मारते हुए घर के लिए सोझ हो जाने का । ना कोय मेंचुरियम ना कोय चौमिन, एकदम परम तृप्ति बाला खाना ।
~ परिमल प्रियदर्शी , बड़हिया , लखीसराय , बिहार


@RR

Monday, May 25, 2015

Daalaan Literature Festival / हलडॉल की कहानी ...


अब तो तथाकथित अपर मिडिल क्लास हवाई यात्रा भी करने लगा है पर ट्रेन में जो रईसी है वो कहीं नहीं ! प्लेटफार्म पर आगे आगे लाल कपडा में कूली और कुली के माथा पर बड़का सूटकेस और सूटकेस के ऊपर एक "हलडॉल" - खूब जोर से बाँधा हुआ ...पीछे पीछे 'बाबूसाहब' और हाथ में एक छाता उसके पीछे मैडम हाथ में डोलची लिए हुए - क्या दृश्य है ! एअरपोर्ट का सब रईसी फेल है ! 
मालूम नहीं बचपन की सभी यात्राएँ सुबह ही क्यों शुरू होती थी - रात भर 'हलडॉल ' कसाता था - एक खाली कमरे में हलडॉल को बिछा के - उसमे एक बढ़िया पतला वाला तोशक - उसके दोनों बड़े पौकेट में तकिया - तकिया के बगल में - अखबार में लपेटा हुआ 'चप्पल' ..हमलोग कहीं से खेल कूद के आये ...धडाम से ..उस बिछे हुए हलडॉल पर ..कूद फांद चालू ..तब तक घर का कोई डिप्लोमैटिक सॉफ्ट बोलने वाला छोटा चाचा / मामा ...रंजू बाबु अपना चप्पल भी ले आओ ..लपेट के रख दें ...अब हम बच्चे अपना चप्पल खोजने चले गए ..धो धा कर लाये तो देखे ..चाचा / मामा टाईप आइटम अपने घुटने से उस हलडॉल को कस रहे हैं ...एकदम दांत भींच के ...थोडा दूर पर माँ / फुआ / मामी जैसे लोग ...मन उदास ..माँ के पास सट के बोले ..मेरा चप्पल अब कैसे रखा जायेगा वही डिप्लोमैटिक चाचा / मामा ..हाथ से चप्पल लिए और कसे हुए हलडॉल में घुसा दिए ...मन नहीं माना ...लगा मेरे चप्पल के साथ बेईमानी हो गया ..उसको हलडॉल के बड़े पौकेट में तकिया के बगल में जगह नहीं मिला ..
frown emoticon
 
अब घर में टिफिन कैरियर खोजाने लगा - उफ्फ्फ - वो बड़ा वाला स्टील का टिफिन कैरियर - जितना बड़ा - उतने बड़े रईस आप - उस टिफिन कैरियर को याद कीजिए उससे खाना निकाल के खाने में जो मजा आता था - एयरइंडिया के ताज वाले खाने से ज्यादा इलीटनेस था - अब मिल ही नहीं रहा - अंतिम दफा कब देखा गया था - सब लोग अपना माथा पर जोर दे रहा है - कोई उधर से बोला - "चिम्पू" के बियाह में बड़े वाले फूफा जी को खाना उसी टिफिन कैरियर में गया था - हुआ हंगामा - वापस क्यों नहीं आया ! तबतक उधर से किसी ने बोला - अरे बड़की भौजी के आलमीरा में होगा ! मिल गया ! जान में जान आया ! 
टिफिन कैरिअर में - पुरी / आलू का भुजिया / अंचार - आम वाला - रखा गया ! अब टिफिन कैरियर सेट ही नहीं हो रहा - बुलाओ भाई - पुत्तु चाचा को बुलाओ - पुत्तु चाचा - उसको इधर उधर किये - सेट हो गया - लह - उसका लॉक टूट गया - पुत्तु चाचा उसमे एक लकड़ी खोंस दिए ...हा हा हा हा हा ! 
~ अगस्त - २०१३ , @दालान

@RR

Daalaan Literature Festival / लघु कथा



मित्र से मुलाकात : मेरी लघु कथा
विगत दिल्ली प्रवास में आश्चर्यजनक रूप से एक स्कूली मित्र का फ़ोन आया/ वार्तालाप में कई पुराने मित्रों की चर्चा हुई और अचानक सत्येन्द्र की यादों में हमलोग अतीत को स्मरण करने लगें/ साधारण परिवार का अति तेजस्वी और होनहार युवक, कुछ कर गुजरने का जूनून रहता था उसमें/ सौभाग्य से उसका नया पता कुछ अन्य मित्रों से बात कर मिल गया लेकिन किसी ने विस्तार से कुछ और खुलासा न किया उसके बारे में/
दोस्त से कैसी औपचारिकता सोच मैं भी सुबह की सैर के बाद कैजुअल वस्त्रों में मित्र के पते की तरफ चला की अरसे बाद बैठ कर रविवार के नास्ते का साथ आनंद लिया जायेगा/ उसके पसंदीदा गुलाब जामुन और काजू बर्फी रास्ते में पैक कराते हुए बताये भव्य सोसाइटी में पहुंचा/मारुती अल्टो से आया देख सिक्योरिटी गार्ड ने बुरा सा मुंह बनाया और सत्येन्द्र नाम के किसी निवासी के नाम से इंकार भी/उसका सेलफ़ोन बंद आ रहा था सो पुनः पुराने मित्र से फिर बात कर मैंने कहा की भाई आज की तारीख में सत्येन्द्र का नाम बता दो, सैम सुनते ही गार्ड तन के सीधा हो गया और बोला की वो फ्रंट साइड वाला पैंट हाउस साहब का है/
फ़ोन से नाम और बाकि डिटेल कन्फर्म कर ऊपर जाने की अनुमति मिलने तक बीस मिनट बीत चुके थे और उत्साह का आवेग कम होने लगा था/ लॉबी तक पहुँचते हीं मित्र से मुलाकात हो गयी/लपक कर गले मिलने की मेरी आतुरता का प्रतिउत्तर हाथ मिला के मिला, संभवतः उसकी नजरें भांप चुकी थी की गार्ड और माली उत्सुकता से हमलोगों को ही देख रहे थे/"साहब" के आचरण से उनलोगों के चेहरे पर भी संतोष दिखा, की ऐसे ही कोई गाँव वाला टाइप आ गया होगा मिलने/
उधेरबुन में मुझे देख मित्र ने पहला प्रश्न किया : और कैसे आना हुआ? मेरा पता किसने दिया? कहाँ हो आजकल ? मैंने कहा सबकुछ लॉबी में ही पूछोगे ? अकचका कर उसने कहा ऐसा नहीं है, चलो कहीं चल के बात करते हैं, रात लेट पार्टी थी मैडम आराम कर रही हैं सो उनको जगाना मुसीबत मोल लेना है/पड़ोस से आती हुई कामवाली बाई को मेरे लाये मिठाई के डिब्बों को ऊपर रख आने का कह मित्र ने सिक्यूरिटी वालों को ये बता की टहल के आ रहा हूँ , मुझे ले चल पड़ा/ गार्ड्स के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी मानो मैं ताजमहल के दर्शन से वंचित हो गया घर न देख के/ 
आजकल की कमर तोर महंगाई में सोने की तीन भारी भरकम चेन और हाथ में महंगी अंगूठियाँ पहने मित्र को देख छिना झपटी की सम्भावना से मैंने कहा की टहलने से अच्छा है की कहीं कार से चलते हैं/ भावात्मक मुद्रा बना उसने कहा, यार दिल्ली के यातायात और रोड रेज़ के किस्से सुन मैडम ने बिना ड्राईवर के कार चलाने से मना किया हुआ है और आज उसकी छुट्टी है/ मैंने कहा, अल्टो से चलते हैं, तनिक आगे तक टहल के आजा ताकि तेरे सोसाइटी का कोई देख न ले/
कभी स्कूटर और साइकिल पे बरसों साथ चलने वाले को आज बहुत तकलीफ हो रही थी छोटी कार में/ बोला, पास ही बरिस्ता कॉफ़ी शॉप है वहीँ चलो/ हमने कहा भाई मेरे, देश-विदेश रह के भी मैं चाय-कॉफी, ध्रूमपान-मदिरा के व्यसन से दूर हूँ अब तक/चलो चांदनी चौक मेट्रो के नजदीक पार्क कर गौरी शंकर महादेव मंदिर और गुरुद्वारा शीशगंज के दर्शन के पश्चात पराठे वाली गली में नास्ता करेंगे/ तुमने पानी तक नहीं पूछा और सुबह के नौ बज चुके हैं/
तनिक सर्मिंदगी से वो बोला, अब क्या कहूं, पुराने मित्रों ने ऐसा लज्जित करवा दिया है की मैडम के सामने किसी को मिलवाने-ले जाने में भी संकोच होता है/ अब तुम से क्या छिपाना? अपना वो जतिन है न, जिसको सबकी फिकर रहती है जब देखो हँसता रहता है बेपरवाह/ पता नहीं कहाँ से ढूढ़ कर सबको जन्मदिन से लेकर विवाह के सालगिरह तक की बधाई देता फिरता है/ इधर कुछ बरसों से कभी स्कूल कभी कॉलेज के मित्रो की मिलन पार्टियाँ सबसे चंदा ले के करवाता है और जो जीवन में पिछर गये हैं उनको नौकरी या आर्थिक मदद के लिए बाकियों से मिलता रहता है/
बेवकूफ !! इतना वक़्त खुद पर देता तब सिर्फ मैनेजेर नहीं रहता/ - "घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने/" मैंने रोक के कहा, वह उन चुनिन्दा मित्रों में है जिसमें इंसानियत बाकि है अभी, किसी को खून की जरुरत हो या किसी चीज के, उसके पास हर चीज का जवाब हाजिर होता है/ मुझे पिछली मर्तबा भी एअरपोर्ट छोरने आया था रात में/
बात काट कर वो बोला, उसमें अभी भी दुनियादारी की बहुत कमी है, ऑरकुट और फेसबुक पर स्कूल-कॉलेज के ज़माने की तस्बीरों को टैग कर दिया/ क्या जरुरत थी? मैडम और कई नए दोस्तों ने मखौल बना दिया देख के/ वो जमाना और था अब और है आदमी को समय और हैसियत के हिसाब से व्यव्हार करना सही रहता है, क्या गलत कह रहा हूँ बोलो ? मैं सन्न !!
वो धुन में कहता रहा - एक दिन शुक्रवार संध्या को फ़ोन घुमा के अधिकार से बोला की आ रहा हूँ ४ दोस्त परिवार संग तुम्हारे घर रविवार रात्रि में, अरसे बाद मिलेंगे आनंद आयेगा/ किसी तरह मैडम को कुछ गहनों का वादा कर उसदिन की कित्ती पार्टी में जाने से रोका, भोजन बनाने वाली बाई १२ अतिथि का सुन सायंकाल संवाद भिजवा दी की तबियत नासाज है/
एक तो मेट्रो से उतर रिक्शा से सभी सोसाइटी द्वार तक आ गयें, फिर अरे अपने सतिंदर वही सत्तू से मिलना है टॉप फ्लोर पे कह "ईमेज" का बैरा-गर्क कर दिया/ उनकीं पत्नियाँ भी नासमझ निकलीं, कोई समौसा लायी थी, कोई लिट्टी, कोई ५ रूपये वाला लौलिपोप/भाई साहेब को पसंद था ये बोलते हैं कह एक पनीर पराठे लायी थी/ मेरी मैडम मुझे विचित्र नजरों से देख रही थीं और बोली की काम वाली आई नहीं सो चलते हैं सब लोग बाहर ५ स्टार होटल में खाने/ उसपर सभी ने महंगाई से लेकर खाने के ऊपर इतना उपदेश दिया की क्या कहूं/
रसोई महिलाओं ने संभाली और उनके बच्चों ने ३००० वर्गफुट का मेरा घर/अब क्या बताऊँ जो हाल मेरे रसोघर से लेकर बाथरूम और घर के दीवारों का हुआ/तक़रीबन एक महीने तक मैडम क्लास लेती रहीं मेरा और दुबारा से घर का आंतरिक सज्जा करवा के ही दम ली/ जब ये बात मैंने जतिन को कही तो लापरवाही से बोला, नए धनिक लोग बरी-बरी बातें/ अब मन में आया की बोल दूं "थोथा चना, बाजे घना" लेकिन चुप हो गया और तब से आजतक किसी पुराने दोस्त को घर बुलाने से तौबा कर ली/
~ सीए शिव शुक्ल ...मुजफ्फरपुर / इंदिरापुरम

@RR

Monday, May 18, 2015

Daalaan Literature Festival / फागुन की रचना

झूम उठी पूरी धरती ...
झूम उठा सारा गगन ...
झूम उठा बावरा मन ...
आया झूमता ऋतु वसंत...
केसरिया हुई धरती ...
केसरिया हुआ मन ...
केसरिया बलमा लागे...
मोरे तोसे नयन ...
धानी हुई मोरी चुनर ...
जब चढ़ा है प्रेम का रंग ...
तब नए है मेरे तेवर ...
अब नया है मेरा ढंग ...
आओ करें आगमन...
आया मेरा ऋतु वसंत......!!
~ फागुन
( तस्वीर साभार : गूगल इमेज )


@RR

Daalaan Literature Festival / भावनाओं का तूफ़ान


दो चार दिन पहले यूरोप की एक लेखिका की डायरी यूँ ही पढ़ने लगा - जो अब नहीं हैं - कुछ ज्यादा नहीं - पर एक बात उन्होंने जो लिखी थीं - कहती हैं - "जब तक भावनाओं का तूफ़ान नहीं पैदा होगा - वो बेचैन नहीं होंगी किनारों से मिलने के लिए - फिर एक लेखक उन लहरों पर बैठ कर जब लिखता है - वही सही लेखन है " - शायद कुछ ऐसा ही कुछ उन्होंने लिखा था ! 
एक सुबह से देर रात ..आप कई तरह की भावनाओं से गुजरते हैं ...कब क्या आये ..कहना मुश्किल है ...लेखन एक कैमरा की तरह होता है ...अब आप उस भावनाओं को किस तरह शब्दों में कैद कर लेते हैं ...यह कलाकारी आप पर निर्भर करती है ...पर यह जरुरी नहीं की ..जो सुबह की भावना थी ...वही शाम की भी होगी ...एक इंसान सुबह में कुरते पायजामे में होता है - वही इंसान देर शाम एक डिस्कोथेक में थिरकता है - अब कब की तस्वीर ..आपने अपने शब्दों में क़ैद की ..वही तस्वीर दुनिया देखती है ...या कौन सी तस्वीर आप दिखाना चाहते हैं ..:)) पर सबसे खतरनाक होती है - एक छवी का निर्माण - लेखक और पाठक दोनों इसके लिए दोषी होते हैं - दबाब दोनों तरफ से होता है - जो पक्ष कमज़ोर हुआ ...हार उसकी होती है - पर मजबूत कलम को रोकना मुश्किल होता है - वो एक नदी की तरह अपनी दिशा खुद तय करती है ...पर एक लेखक को पूर्ण छूट मिलनी चाहिए ...एक हलके बंधन के साथ ...सुरक्षा के लिए बने बंधन ...गले का फांस नहीं बनना चाहिए ...है..न ..:)) 
~ दालान , २८ फरवरी - २०१४

@RR

Sunday, May 17, 2015

Daalaan Literature Festival / प्रेम और विशालता


प्रेम और विशालता 

दिनकर लिखते हैं - "नर के भीतर एक और नर है जिससे मिलने को एक नारी आतुर रहती है - नारी के भीतर एक और नारी है - जिससे मिलने को एक नर बेचैन रहता है " ..:)) 
और यहीं से शुरू होती है ...प्रेम और विशालता की कहानी ! ना तो आकर्षण प्रेम है और ना ही रोमांस प्रेम है ! प्रेम एक विशाल क्षितिज है ! 
कोई भी नर किसी नारी के प्रेम से उब नहीं सकता - उसके अन्दर प्रेम की कमी होती है - वो कठोर होता है - उसे खुद को मृदुल बनाना होता है - वह डूबता चला जाता है - वह डूबता चला जाता है ! नारी हैरान रहती है - आखिर क्या है इस प्रेम में - वो समझा नहीं पाता है - उसे वो प्रेम का सागर भी कम लगता है ! 
अब सवाल यह उठता है - प्रेम में डूबने के बाद भी - वह प्रेम उसे कम क्यों लगता है ? नारी अपने प्रेम के बदले नर की विशालता देखना चाहती है - क्योंकी प्रकृती ने उसे प्रेम तो दिया पर उस प्रेम को रखने के लिए एक विशालता नहीं दी ! नारी अपने प्रेम को उस विशाल नर को सौंपना चाहती है जो उसके प्रेम को अपने विशालता के अन्दर सुरक्षित रख सके ! और यहीं से शुरू होता है - द्वंद्ध ! 
तुम और प्रेम दो - तुम थोड़े और विशाल बनो ! अभी मै भींगा नहीं - अभी मै तुम्हारे विशालता में खोयी नहीं - वो अपना प्रेम देने लगती है और नर अपनी विशालता फैलाने लगता है - हाँ ...प्रेमकुंड और विशालता ..दोनों एक ही अनुपात में बढ़ते रहने चाहिए ! एक सूखे कुंड में एक विशाल खडा नर - अजीब लगेगा और एक लबालब भरे कुंड में - एक छोटा व्यक्तित्व भी अजीब लगेगा ! 
नारी उस हद तक विशालता खोजती है जहाँ वो हमेशा के लिए खो जाए - नर उस हद प्रेमकुंड की तलाश करता है - जहाँ एक बार डूबने के बाद - फिर से वापस धरातल पर लौटने की कोई गुंजाईश न हो ! 
इन सब के जड़ में है - माता पिता द्वारा दिया गया प्रेम - पिता के बाद कोई दूसरा पुरुष उस विशालता को लेकर आया नहीं और माँ के बराबर किसी अन्य नारी का प्रेम उतना गहरा दिखा नहीं - फिर भी तलाश जारी है - डूबने की ...फैलने की ...प्रेमकुंड की ...विशालता की ! 
अपने प्रेमकुंड को और गहरा करते करते नारी थक जाती है - अपनी विशालता को और फैलाते फैलाते नर टूट जाता है ...शायद इसीलिये दोनों अतृप्त रह जाते है ...अपनी गाथा ...अगले जन्म में निभाने को ...
ना तो आकर्षण प्रेम है और ना ही रोमांस प्रेम है ! प्रेम एक विशाल क्षितिज है - जहाँ उन्मुक्ता बगैर किसी भय के हो ....
~ कुछ यूँ ही ...:))



@RR - २८ फरवरी - २०१५ 

Friday, May 15, 2015

Bombay Velvet / सिनेमा


सुबह सुबह 'फिस्स-फिस्स' की आवाज़ से नींद खुली ! एक आँख बंद और दूसरी आँख खोल देखा तो 'पुत्र महोदय' चार किस्म के डियोड्रेंट 'फिसफिसा' रहे थे ! एक पिता का कर्तव्य निभाते हुए मुझे इस वक़्त एक डायलोग मारना जरुरी था सो मैंने आधे नींद में ही थोड़े गुस्से और थोड़े झुन्झुलाहट के साथ बोला - ' फिसफिसा क्यों रहे हो , पूरा का पूरा डियोड्रेंट ही उझल लो ' , बाय द वे - यह कहाँ की तैयारी है ? ' जबाब आया - ' बॉम्बे वेलवेट ' ! मेरे मुह से अचानक निकल गया - ' फर्स्ट डे , फर्स्ट शो ? टिकट कहाँ से जुगाड़े ? ' जबाब आया - ' कल रात आपके क्रेडिट कार्ड को यूज कर के ऑनलाईन कटवाया ' ! हम पूछे - ' मेरा कुछ जुगाड़ ? ' ! वह हौले से 'सौरी' कह के निकल गया ! हम भी थोड़ा जोर से बोले - ' अरे अनुष्का तुमसे डबल एज की है , थोड़ा ध्यान से ' ! 

अपना ज़माना याद आया ! कुछ दोस्त यार फर्स्ट डे - फर्स्ट शो वाले होते थे ! टिकट के चक्कर में उनके शर्ट का दो चार बटन हमेशा टूटा होता था ! उस दौर में जो टिकट वाली खिड़की होती थी , उसमे सिर्फ एक हाथ घुसने का गुंजाईश होता था , फिर भी एक साथ दो तीन हाथ घुसे होते थे ! जो उस भीड़ में भी टिकट कटा लिया , वह अपने आप में किसी हीरो से कम नहीं होता था ! वैसे दोस्तों को हम तहे दिल बहुत ही आदर भाव की नज़र से देखते थे ! वो टिकट वाला कितना बड़ा आदमी लगता था ! एक आध लोग लाईन में ऐसा होता था ' साईड से चार टिकट' ! हा हा हा ! ब्लैक से टिकट लेना , दो का चार , चार का आठ ! मुह में बीडी और कान में 'डीसी - बीसी' ! कुछ अलग से बोलते थे - 'डीसी - बीसी' ! सिनेमा हिट है तो कोई मोल भाव नहीं ! जिनका नया बियाह हुआ होता था और अगर अपने पुरे ससुराल / साली / सरहज के साथ आये हुए हैं तो 'ब्लैक' लेना ही लेना है ! इमेज बनाने का यह स्वर्णीम मौक़ा होता था ! हा हा हा ! 
बहुत बाद में 'एडवांस बुकिंग' का कांसेप्ट आया , वो भी रोमांटिक सिनेमा के लिए ! एक दिन पहले ही कटवा लीजिये , घर भर के अजिन कजिन को ढो के ले जाईये फिर वापस लाईये ! ऐसा काम घर में कोई 'झप्पू भईया' टाईप आइटम करता था ! इवनिंग शो ! फिएट वाला जेनेरेशन ! फिर वीसीआर / वीसीपी ने सब मजा किरकिरा कर दिया 
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सिनेमा में डायलोग बाज़ी होता था ! 'शराबी' आया था ! हर डायलोग पर , एक साथ 'रेज़की' / खुल्ला पैसा फेंकाता था ! पब्लिक 'भर पाकिट' रेज़की लेकर आता था ! पूरा सिनेमा झन्न - झन्न ! जो पैसा लुटाता था , वो आईटम भी अजीबो गरीब ! शायद वह अपनी छवी उन डायलोग में खोजता होगा ! जो जीवन वह जी नहीं पा रहा है , वैसा कुछ हीरो इमेज वह सिनेमा में खोजता होगा ! 
अब वैसा डायलोग भी नहीं लिखा जाता है , हेवी - हेवी ! क्रांती का डायलोग - ' शम्भू का दिमाग दो धारी तलवार की तरह है ' और मालूम नहीं ऐसे कितने सिनेमा और उनके डायलोग ! दीवार / त्रिशूल और न जाने कितने ऐसे सिनेमा और उनके डायलोग ...
smile emoticon

@RR

Thursday, May 14, 2015

प्रेम ...


प्रेम का एकमात्र पैमाना - माँ ! हम पुरुष आजीवन इसी पैमाना को लेकर घुमते रहते हैं ! माँ के अलावा जिस किसी भी स्त्री से हम प्रेम करते हैं , हम उसी पैमाने पर उसमे 'पवित्रता' खोजते हैं ! थोडा और पवित्र , थोड़ा और पवित्र ....थोडा और पवित्र ...जब तक वह स्त्री 'माँ' के बराबर की पवित्रता की झलक ना दिखा दे ...
वह स्त्री भी 'माँ' तुल्य प्रेम को तैयार होती है ...पर वह कहती है ..अपने अहंकार को और झुकाओ ...थोडा और झुकाओ ...थोडा और झुकाओ ....जब तक तुम मेरे पुत्र होने की झलक ना दिखा दो ...
हम पुरुष सारी दुनिया में अपने अहंकार को टकराते रहते हैं ...पर दुनिया का एकमात्र जगह वह है ...जहाँ हम अहंकारविहीन होते हैं ...वह है ...माँ का आँचल ! 
कभी किसी पुरुष को माँ के पास अहंकार के साथ जाते देखा है ? कभी किसी माँ को अपवित्र देखा है ?...नहीं ..न .. :)) यही प्रकृती है ...वही एक मात्र पैमाना है ...:))
@RR -१० मई , २०१५ 

गर्मी के दिन ....


इसबार गर्मी का कुछ मजा नहीं आ रहा है 
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 गर्मी पड़ता था , हमलोगों के जमाने में ! भोरे भोरे छत से नीचे आना , एक हाथ में लपेटाया हुआ भागलपुरी पीला 'अंटी' चादर और दुसरे हाथ में 'मसनद' ! नीचे आते ही , जहाँ जगह मिला 'लोंघडा' जाना , इसके लिए 'सोफा' मस्त जगह होता था, क्या आलस लगता था , ऐसा जैसे की कोई नशा भी फेल है टाईप ! अभी फिर से एक नींद नहीं मारे की , तब तक घर के बड़े बुजुर्ग का 'प्रवचन' / 'श्लोक' चालु ! कनखिया के उनको देखना और अखबार लेकर सीधे बाथरूम में ! सीधे नहा धो के बाहर निकलना ! अब गर्मी ऐसा की , नहा के निकले की , कंघी करते वक़्त , पसीना है की पानी , कुछ पता नहीं ! फिर रंजन ऋतुराज पटना के 'सब्जी बाग़' वाला टिप्कल कुरता में , बिना बनियान के और पैजामा ऐसा की , पूरा घर बहरा जाए ! फिर बिछावन के नीचे से चुपके से 'मनोहर कहानियाँ' / 'सत्यकथा' निकाले नहीं की तब तक बिजली गायब ! अब बरामदा में , बेंत वाला कुर्सी और सामने 'दही - चिउरा - चीनी' ! तले ...हमरे जैसा दू चार और आइटम आ गया ! दे गप्प ...दे गप्प ...दे गप्प ! 
दोपहर को चावल , अरहर के दाल , नेनुआ के सब्जी , आम के टिकोला वाला चटनी खा के ...पक्का पर चटाई बिछा के ...मसनद लगा के ...फोंफ ...! दे फोंफ ...दे फोंफ ...दे फोंफ ! इस हिदायत के साथ , पापा के लौटने के पहले मुझे जगा दिया जाए tongue emoticon
 शाम को उठ के , फिर से एक स्नान ! आमिर खान टाईप कॉलर उंचा के कर , पियर टी शर्ट , काला जींस और चार्ली सेंट ! एक राऊंड कंकडबाग , राजेंद्र नगर , उधर से ही समोसा ( सिंघाड़ा ) वाला चाट खाते हुए , थम्स अप ढरकाते हुए , चार बार अपना बाल पर हाथ फेरते हुए , कनखिया के 'खिड़की / बालकोनी' देखते हुए ...घर वापस ! शाम को बिजली नहीं ही रहेगा सो आत सीधे छत पर ! दे गप्प ...दे गप्प ..दे गप्प ! अब लालटेन और मोमबत्ती में कौन पढ़े ! अगला सोमवार से पढ़ा जायेगा ...फिर छत पर पानी पटाना ! दे बाल्टी ...दे बाल्टी ...दे बाल्टी ! रात में भर कटोरा 'दूध - रोटी' खा के ...छत पर ....वही मसनद ...वही भागलपुरी 'अंटी' चादर और एक रेडिओ ...! 
ना कोई अतीत , ना कोई भविष्य ...ना कुछ पाना है ...ना कुछ खोना है ...इसी ख्याल के साथ ...फिर से एक बार ..दे फोंफ ...दे फोंफ ...दे फोंफ ...
smile emoticon
 


@RR - 13 May 2015