Monday, September 29, 2014

जेठ - बैसाख की चिलचिलाती धूप............


जेठ - बैसाख की चिलचिलाती धूप / गर्मी बर्दास्त से बाहर है ! एक जमाना था - इसी मौसम के लिए हम सभी तरसते थे - गर्मी की छुट्टी - क्या जमाना था - तब 'ऋतुराज वसंत' और 'सावन' फीके नज़र आते थे ! 
एक डेढ़ महीने की लम्बी गर्मी की छुट्टी - गाँव जाना है - ननिहाल जाना है - बाबा / दादी के पास जाना है - नाना / नानी के पास जाना है - मालदह आम खाना है - शाही लीची खाना है ..:)) 
तब के दौर में ठंडा और कोका कोला नहीं होता था - यह मौसम शादी विवाह का भी होता था - कहीं किसी के यहाँ शादी है - खूब बड़े ड्राम में 'रूह आफजा " घोला हुआ है - हम बच्चे इर्द गिर्द - कौन कितना ग्लास शरबत पी जाए ...कोई रोकने वाला नहीं ..कोई टोकने वाला नहीं ..कभी पता चला किसी रईस ने अपने कुएं में ही चीनी का बोरा डलवा दिया - लीजिये ..सुन लीजिये ...बिजली नहीं होती थी ...होती भी थी तो गुलर के फूल की तरह ...शाम होते ही घर के छत पर ..पानी ...दे बाल्टी ...दे बाल्टी ...और धाप देने लगा  ...एक तरफ से खटिया बिछना शुरू हो गया ...हम टीनएज का अलग जमात ...माँ - फुआ / मौसी लोग का अलग ...दे गप्प ...दे गप्प ...जब तक मुह थक न जाए ...हम लोग भूत का किस्सा सुनते और सुनाते ...फलाना मामा / चाचा को इमली के पेड़ के पास भूत पकड़ लिया था ..पिछले साल ...ऐसे कहानी हमउम्र पर एक दो साल बड़ा चचेरा / ममेरा 'ढक्कन' टाईप भाई सुना देता था ...अब नींद काहे को आवे ...छत पर नहीं सोना ...रूम में चलो ...माँ को तंग कर देते थे ...
सुबह ...दरवाजे पर एक बड़े बाल्टी में तरह तरह का आम ...घूम फिर के आईये और एक आम धो के ...किसी कमरे में लीची में ...बड़का कटोरा में एक दर्ज़न लीची ...तब तक कोई बोल दिया ...पेट 'दुखाने' ( दर्द) करने लगेगा ...ज्यादा मत खाओ ...आँगन में कटोरा खूब जोर से फेंकिये ...चल दीजिये ...बाबा / नाना के पास ...
अब ये सब कहानी ..नया जेनेरेशन सुनेगा ...कहेगा ..."दालान" वाले भईया गड़बड़ा गए हैं ..

@RR - मई १६ , २०१३ 

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