Tuesday, September 30, 2014

इसक - मनीष तिवारी


"इसक" के चर्चे शुरू हो गए हैं ! अगले शुक्रवार यह सिनेमा परदे पर होगी ! बनारस के घाट के इर्द गिर्द घुमती यह प्रेम कहानी - निर्देशक 'मनीष तिवारी' की दूसरी निर्देशन - कुछ साल पहले उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के इर्द गिर्द घुमती प्रेम कहानी 'दिल दोस्ती ईटीसी " बनाए थे - जिसकी चर्चा भी बहुत हुई थी ! 
दरअसल सिनेमा सभी कलाओं का अनूठा संगम होता है ! पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा ने अपना विस्तार किया है - समाज का जो वर्ग कल तक दर्शक होता था अब वो इसमे परोक्ष भागीदारी मांग रहा है - जिसके फलस्वरूप विशाल भरद्वाज / अनुराग कश्यप / इम्तियाज अली / मनीष तिवारी जैसे लोग पहली पंक्ति में खड़े होने को बेताब हैं ! 
मनीष में मेरी व्यक्तिगत रुची एक बड़ी वजह है - वो उसी दौर / समाज / काल / पृष्ठभूमी से आते हैं - जहाँ मेरा बचपन गुजरा है ! बिहार के मुज़फ्फरपुर शहर 
के जुरन छपरा मोहल्ला जहाँ इंच इंच में सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर्स होते हैं - वहां से निकल मनीष हिंदी सिनेमा के बड़े परदे पर अपनी "इसक" को लेकर आ रहे हैं ! इनके पिता मुज़फ्फ्फरपुर शहर के नामी रेडियोलाजिस्ट होते हैं और हर शहर में उस दौर के रेडियोलाजिस्ट की अपनी एक ठसक / गरिमा / पहचान होती थी ! जहाँ उनके उम्र के दुसरे लडके तुरंत से तुरंत एक नौकरी की तलाश में होते थे - वहीँ मनीष अपनी पढ़ाई को दिल्ली विश्वविद्यालय से आगे बढ़ा विश्व प्रसिद्द 'कैम्ब्रीज / येल' फिर यूनाईटेड नेशन के लिए विश्वभर और बिहार / झारखंड में काम करते हुए अपनी तलब 'सिनेमा' की तरफ मुड गए ! जीवन में ऐसे मोड़ लाने के लिए अन्दर बहुत ताकत होनी चाहिए - प्रतिभा भी और परिवार का साथ भी - कुछ लोग ऐसे जो आप में विश्वास रखें ! संभवतः यही कारण है - इस सिनेमा की पटकथा उन्होंने अपने पत्नी पद्मजा ठाकुर से लिखवाया है जो दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की सहायक प्राध्यापिका हैं और मनीष की तरह ही वो भी उसी दौर / समाज / पृष्ठभूमी से आती हैं ! 
मनीष काशी नरेश परिवार के परोक्ष संबंधी हैं - जिसके कारण उन्होंने विश्वप्रसिद्द रामनगर रामलीला के लिए भी डॉक्युमेंट्री बना चुके हैं - जिसके बारे में एक विशेष चर्चा है - रावण वध के समय काशी नरेश वहां मौजूद नहीं होते हैं - एक राजा दुसरे राजा का वध होते नहीं देख सकता ...संभवतः "इसक" में बनारस का रामलीला एवं होली देखने को मिले ...! 
मध्यम एवं उच्च मध्यम वर्ग अपने जीवन के कई दरवाजे बंद कर के रखता है - किसी पीढी में ..एक साहसी इंसान उन्ही में से एक बड़ा दरवाजा खोल ..आगे आने वाली पीढी के लिए रास्ता आसान कर देता है ...मनीष भले ही खुद की आत्मसंतुष्ठी के लिए सिनेमा बना रहे हों ...पर कहीं न कहीं ..पूरा समाज और आगे आने वाली पीढी उनके इस साहस को देख ...एक कदम तो बढ़ा ही देगी ...जब हज़ार कदम एक तरफ बढ़ेंगे ...दो चार तो जरुर ही 'मनीष' बन के निकलेंगे ...
मनीष ..."दालान" उनके पाठक एवं हमारे परिवार की तरफ से आपको एवं आपके परिवार को ढेर सारी शुभकामनाएं ...:)) 
जीना इसी का नाम है ....:))
~ दालान 



@RR - २० जुलाई - २०१३ 

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