Tuesday, September 30, 2014

समाज कमज़ोर हुआ है .......


दिक्कत कहाँ है ? समाज कमज़ोर हुआ है ! 'लोग क्या कहेंगे ? का लिहाज़ खत्म हुआ है ! आजादी को हम कुछ ज्यादा ही जीने लगे हैं ! और जब आँखों की शर्म जाती है फिर सब कुछ नोरमल नज़र आता है ! मनुष्य पहले प्रकृति से खिलवाड़ किया फिर वो समाज के नियम तोडने लगा ..विजेता बनने की चाहत में सब कुछ भुलाने लगा ! 
जरूरतें बेहिसाब बढ़ीं हैं कोई त्याग करने के मूड में नहीं है ! त्याग के सुख को सबसे निचला स्तर मिला हुआ है ..समाज अपना कानून फिर से लिख रहा है ..इस् उठा पटक में 'मूल्य' घसीटे जा रहे हैं ..! हम किसी के भी प्रती जिम्मेदार नहीं होना चाहते हैं ! जब से व्यक्ति समाज से बड़ा हो गया वो समाज के नियम को खुद से परिभाषित करने लगा और जब सबसे शक्तिशाली व्यक्ती ही ऐसा सोच और कर रहा हो ..फिर बाकी तो उसको फौलो करेंगे ही ! 
जड़ें हिल रही है ..या हिल चुकी है ..शायद बदलाव ही प्रकृति है .. !

@RR - ३ फरवरी २०१२ 

कॉरपोरेट हॉस्पिटल , कॉरपोरेट मीडिया , कॉरपोरेट वकील , कॉरपोरेट सिनेमा प्रोडक्शन , कॉरपोरेट टीउशन इन्स्टिच्युट ..............


कॉरपोरेट हॉस्पिटल , कॉरपोरेट मीडिया , कॉरपोरेट वकील , कॉरपोरेट सिनेमा प्रोडक्शन , कॉरपोरेट टीउशन इन्स्टिच्युट ....उफ्फ्फ्फ़ ...जहाँ कॉरपोरेट शब्द नज़र आ जाता है ...समझिए 'गला रेंता' गया ..इनके आगे रोज 'मुर्गी/ बकरा' को हलाल करने वाला भी फेल है ! 
कॉरपोरेट हॉस्पिटल को देखते ही दिल धक् धक् करने लगता है ..मालूम नहीं कितना का बिल बनेगा ..मुजफ्फरपुर के जुरन छपरा मोहल्ले में खेलते हुए ..मेरा हाथ टूट गया ..पिता जी घर पर् नहीं थे ..दोस्तों के साथ ही एक हड्डी वाले डाक्टर साहब के यहाँ चले गए ...प्लास्टर लग् गया - बात खत्म ! कुछ वर्ष पहले ठीक वैसे ही मेरे 'पुत्र महोदय' का हाथ टूट गया ..'कॉरपोरेट हॉस्पिटल' में गया - तब पंचम् वेतन आयोग वाला तन्खाह उठा रहा था ...दो महीना का तन्खाह उस 'कॉरपोरेट हॉस्पिटल' को मंदिर समझ 'चढ़ा' आया ..लेकिन 'फील' बढ़िया हो रहा था ...कहाँ मुजफ्फरपुर में चौकी वाला नर्सिंग होम ..कहाँ नॉएडा का वो पञ्च सितारा वाला कम्फर्ट ...पुत्र के हाथ टूट जाने पर् फोन पर् बार बार अपने पिता जी से यही बोलता रहा - 'पापा ..ई डाक्टर ..डाक्टर कम ..दुकानदार ज्यादा लग् रहा है' ! आज भी मेरा दिल पटना - मुजफ्फरपुर - दरभंगा के डाक्टरों पर् ज्यादा विश्वास करता है ! पत्नी बीमार हो गयीं - मै बोला - चलिए 'पटना' ..वहीँ दिखवा लीजियेगा ...यहाँ तो सब डकैत है ! 'मगध' पकड़ के अगले दिन - हम सपरिवार पटना में थे ! 
रैनबैक्सी वाला ..कंपनी बेच ..आज कल यही काम कर रहा है - जांच घर - हॉस्पिटल ..कहता है 'ब्रांड' बिकेगा ! सरकार दवा के पीछे पड़ गयी है ..मार्जिन कम हो रहा है ...स्कूल के बाद हॉस्पिटल ही सबसे ज्यादा प्रोफिट का धंधा है ..सरकार अभी चुप है ...'मेडिकल टूरिज्म' को बढ़ावा मिल रहा है ! आईपीएल खिलाड़ी की तरह 'एम्स' के डाक्टर की बोली लगती है ..कोई चार करोड़ में तो कोई पांच करोड़ में ...अब वो डाक्टर इतना दबाब में होता है की ..उसको 'मरीज' का 'गला' रेंतने के अलावा कोई उपाय नहीं है ....
मालूम नहीं 'शिव नारायण बाबु' जैसा मसीहा कब पैदा लेगा ...जिसके दिल में गरीबों के लिये दर्द होगा ....

@RR - 23 अप्रैल २०१२ 

अमर बोस को सलाम .....!!!


बात करीब सत्रह अठारह साल पुरानी है - बंगलौर के मजेस्टीक बस स्टैंड के मैगजीन कॉर्नर पर एक नयी मैगजीन पर नज़र पडी - वो थी "इण्डिया टूडे प्लस" - दाम शायद पचास रुपैये - तब के जमाने में काफी महंगी - मैगजीन के कवर पेज पर एक बड़े आलिशान कुर्सी पर बैठे "अमर बोस" - खुद की जिज्ञासा रोक नहीं पाया और मैगजीन खरीद सारी रात पढता रहा - प्रथम परिचय 'अमर बोस' के साथ - एक सुखद सुचना और वर्णन थी - विश्व के बेहतरीन साउंड स्पीकर के निर्माता एक भारतीय हैं - दुनिया के बेहतरीन स्पीकर पर एक भारतीय नामलिखा हो "बोस" - किसी भी भारतीय के लिए यह गौरव की बात है ! 
आज सुबह के अखबार से खबर मिली अमर बोस नहीं रहे - सदा के लिए अमर हो गए ! अमर बोस पर सभी अखबारों में प्रमुखता से कुछ न कुछ छापा है - हिन्दुस्तान टाईम्स में प्रेसिडेंसी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर का लेख भी आया है - जो अमर बोस के करीबी होते थे - लिखते हैं - 'अमर बोस जब अमरिका में अपने स्कूल में पढने को जाते थे - वहां के बच्चे उन्हें 'नीग्रो-नीग्रो' कह कर चिल्लाते थे - और अमर बोस चुप चाप अपना सर झुका कर स्कूल के लिए - अपने उस अपमान को बर्दास्त करने की शक्ती - जिसके लिए वो जिम्मेदार नहीं - सचमुच एक महान आत्मा को दर्शाता है - मुट्ठी भींच अपने सपने को और विशाल करने की शक्ती यहीं से मिली होगी ' 
अपनी कंपनी 'बोस कॉर्पोरेशन' की शुरुआत कर - अपने विद्यार्थीओं के सहयोग से अपने क्षेत्र में विश्व के बेहतरीन प्रोडक्ट को लाना - आसान नहीं है - अन्दर बहुत दम चाहिए - एक अनन्त विश्वास के साथ समाज को कुछ देने की क्षमता ! दो साल पहले अपनी कंपनी में अपने सारे शेयर मासचुसेट्स विश्वविद्यालय को सौंप उन्होंने साबित कर दिया - वो सचमुच एक विशाल व्यक्तित्व के मालिक थे ! 
उनके व्यक्तित्व के बारे में जब कभी सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा - मेरे गुरु जो सिर्फ विषय ज्ञान ही नहीं अपने विद्यार्थी के चौतरफा व्यक्तित्व विकास की सोच - मुझे इस उंचाई तक लेकर आये - उनके गुरु कहते थे - तुम्हे अपने पूर्वजों की धरती को देखना और समझना चाहिए - इसी क्रम में - स्कालरशिप पर अमर बोस को भारत भेजा गया - साथ में एक दोस्त - जो हर दिन की गतिविधि रेकोर्ड कर - अमर बोस के गुरु के पास एक रिपोर्ट जमा करे .... :)) 
जब कोई भारतीय प्रोफ़ेसर मासचुसेट्स जाता और उसे पता चलता की अमर बोस फ्रेशमैन क्लास ले रहे हैं - भारतीय प्रोफ़ेसर हैरान होते थे - क्योंकी यहाँ हमारे भारत में 'काबिल प्रोफ़ेसर' जूनियर सेक्शन के क्लास नहीं लेते हैं - यह उनके अहंकार को चोट पहुंचाता है ..:)) 
अमर बोस को सलाम .......!!! 
आप अमर है ......!!!

@RR - १४ जुलाई - २०१४ 

इसक - मनीष तिवारी


"इसक" के चर्चे शुरू हो गए हैं ! अगले शुक्रवार यह सिनेमा परदे पर होगी ! बनारस के घाट के इर्द गिर्द घुमती यह प्रेम कहानी - निर्देशक 'मनीष तिवारी' की दूसरी निर्देशन - कुछ साल पहले उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के इर्द गिर्द घुमती प्रेम कहानी 'दिल दोस्ती ईटीसी " बनाए थे - जिसकी चर्चा भी बहुत हुई थी ! 
दरअसल सिनेमा सभी कलाओं का अनूठा संगम होता है ! पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा ने अपना विस्तार किया है - समाज का जो वर्ग कल तक दर्शक होता था अब वो इसमे परोक्ष भागीदारी मांग रहा है - जिसके फलस्वरूप विशाल भरद्वाज / अनुराग कश्यप / इम्तियाज अली / मनीष तिवारी जैसे लोग पहली पंक्ति में खड़े होने को बेताब हैं ! 
मनीष में मेरी व्यक्तिगत रुची एक बड़ी वजह है - वो उसी दौर / समाज / काल / पृष्ठभूमी से आते हैं - जहाँ मेरा बचपन गुजरा है ! बिहार के मुज़फ्फरपुर शहर 
के जुरन छपरा मोहल्ला जहाँ इंच इंच में सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर्स होते हैं - वहां से निकल मनीष हिंदी सिनेमा के बड़े परदे पर अपनी "इसक" को लेकर आ रहे हैं ! इनके पिता मुज़फ्फ्फरपुर शहर के नामी रेडियोलाजिस्ट होते हैं और हर शहर में उस दौर के रेडियोलाजिस्ट की अपनी एक ठसक / गरिमा / पहचान होती थी ! जहाँ उनके उम्र के दुसरे लडके तुरंत से तुरंत एक नौकरी की तलाश में होते थे - वहीँ मनीष अपनी पढ़ाई को दिल्ली विश्वविद्यालय से आगे बढ़ा विश्व प्रसिद्द 'कैम्ब्रीज / येल' फिर यूनाईटेड नेशन के लिए विश्वभर और बिहार / झारखंड में काम करते हुए अपनी तलब 'सिनेमा' की तरफ मुड गए ! जीवन में ऐसे मोड़ लाने के लिए अन्दर बहुत ताकत होनी चाहिए - प्रतिभा भी और परिवार का साथ भी - कुछ लोग ऐसे जो आप में विश्वास रखें ! संभवतः यही कारण है - इस सिनेमा की पटकथा उन्होंने अपने पत्नी पद्मजा ठाकुर से लिखवाया है जो दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की सहायक प्राध्यापिका हैं और मनीष की तरह ही वो भी उसी दौर / समाज / पृष्ठभूमी से आती हैं ! 
मनीष काशी नरेश परिवार के परोक्ष संबंधी हैं - जिसके कारण उन्होंने विश्वप्रसिद्द रामनगर रामलीला के लिए भी डॉक्युमेंट्री बना चुके हैं - जिसके बारे में एक विशेष चर्चा है - रावण वध के समय काशी नरेश वहां मौजूद नहीं होते हैं - एक राजा दुसरे राजा का वध होते नहीं देख सकता ...संभवतः "इसक" में बनारस का रामलीला एवं होली देखने को मिले ...! 
मध्यम एवं उच्च मध्यम वर्ग अपने जीवन के कई दरवाजे बंद कर के रखता है - किसी पीढी में ..एक साहसी इंसान उन्ही में से एक बड़ा दरवाजा खोल ..आगे आने वाली पीढी के लिए रास्ता आसान कर देता है ...मनीष भले ही खुद की आत्मसंतुष्ठी के लिए सिनेमा बना रहे हों ...पर कहीं न कहीं ..पूरा समाज और आगे आने वाली पीढी उनके इस साहस को देख ...एक कदम तो बढ़ा ही देगी ...जब हज़ार कदम एक तरफ बढ़ेंगे ...दो चार तो जरुर ही 'मनीष' बन के निकलेंगे ...
मनीष ..."दालान" उनके पाठक एवं हमारे परिवार की तरफ से आपको एवं आपके परिवार को ढेर सारी शुभकामनाएं ...:)) 
जीना इसी का नाम है ....:))
~ दालान 



@RR - २० जुलाई - २०१३ 

रोबिन हुड


कल देर रात ढाई बजे मेरे फ़ोन पर कुछ सेकेण्ड के लिए एक कॉल आया - मै हेलो करता तब तक बंद हो गया - नौजवानों की तरह मै भी अपने स्मार्ट फ़ोन को या तो हाथ में रखे रखे सो जाता हूँ या फिर तकिया के बगल में ! इसलिए मैंने तुरंत कॉल बैक किया - इतनी देर रात फोन आना कुछ अजीब था - हम भी थोडा घबरा गए - दूसरी तरफ मेरे फेसबुक मित्र एवं पेशे से न्यूरोसर्जन थे - चेन्नई से - देर रात हॉस्पिटल से लौट रहे थे - रास्ते में पुलिस वालों ने उनके साथ कुछ बदतमीजी की - खुद भी पहले से अपने अपार्टमेंट में पानी की समस्या को लेकर वो परेशान थे ऊपर से स्वभाव भी 'विद्रोही' ...! उनकी बात को एक मिनट में मै समझ गया - और बोला आप मुझसे तब तक बात करते रहिये जब तक की आप अपने अपार्टमेंट में प्रवेश ना कर जाएँ ! जब वो सुरक्षित ढंग से अपने अपार्टमेंट में प्रवेश कर गए - हम दोनों ने बात बंद कर दिया ! 
काफी देर तक यूँ जागा रह गया ! वो न्यूरोसर्जन हमउम्र हैं और इंटरनेट से काफी दिनी से जान पहचान है - हालाकी पिछले दस साल में मुश्किल से दो तीन बार ही बात हुई है - तब जब मैंने उनको बिहार लौटने का दबाब बनाया !
काफी देर तक यूँ जागा रह गया ! मन में लगा - सामने वाले को कितना विश्वास होगा - तभी तो वो इतनी देर रात फोन किया - हजारों किलोमीटर दूर - मै रात ढाई बजे कुछ नहीं कर सकता था - सिवाय इसके - उनके मन के भय को ख़त्म कर सकूँ - थोड़ी देर की बात - उनमे एक असीम सुरक्षा की भावना पैदा की होगी ! 
मै कोई रोबिन हुड नहीं हूँ - पर वक़्त आने पर रोबिन हुड का रोल भी अदा किया हूँ ! 
पर सबसे बड़ी खुशी इस बात की हुई - कोई अनजान मुझपर असीम विश्वास रखे हुए है - किसी भी व्यक्तित्व का सबसे बड़ा पुरस्कार यही होता है - जब आप पर कोई व्यक्ती / परिवार / समाज विश्वास रखे ! 
ईश्वर से प्रार्थना रहेगी - मेरे मन को शुद्ध और व्यक्तित्व को इतना विशाल बनाए - सामने वाला अनंत विश्वास को आजीवन कायम रख सके ! 
मै खुश हूँ ...:))



@RR - १ अगस्त २०१३ 

ट्रेन में जो रईसी है वो कहीं नहीं ......


अब तो तथाकथित अपर मिडिल क्लास हवाई यात्रा भी करने लगा है पर ट्रेन में जो रईसी है वो कहीं नहीं ! प्लेटफार्म पर आगे आगे लाल कपडा में कूली और कुली के माथा पर बड़का सूटकेस और सूटकेस के ऊपर एक "हलडॉल" - खूब जोर से बाँधा हुआ ...पीछे पीछे 'बाबूसाहब' और हाथ में एक छाता उसके पीछे मैडम हाथ में डोलची लिए हुए - क्या दृश्य है ! एअरपोर्ट का सब रईसी फेल है ! 
मालूम नहीं बचपन की सभी यात्राएँ सुबह ही क्यों शुरू होती थी - रात भर 'हलडॉल ' कसाता था - एक खाली कमरे में हलडॉल को बिछा के - उसमे एक बढ़िया पतला वाला तोशक - उसके दोनों बड़े पौकेट में तकिया - तकिया के बगल में - अखबार में लपेटा हुआ 'चप्पल' ..हमलोग कहीं से खेल कूद के आये ...धडाम से ..उस बिछे हुए हलडॉल पर ..कूद फांद चालू ..तब तक घर का कोई डिप्लोमैटिक सॉफ्ट बोलने वाला छोटा चाचा / मामा ...रंजू बाबु अपना चप्पल भी ले आओ ..लपेट के रख दें ...अब हम बच्चे अपना चप्पल खोजने चले गए ..धो धा कर लाये तो देखे ..चाचा / मामा टाईप आइटम अपने घुटने से उस हलडॉल को कस रहे हैं ...एकदम दांत भींच के ...थोडा दूर पर माँ / फुआ / मामी जैसे लोग ...मन उदास ..माँ के पास सट के बोले ..मेरा चप्पल अब कैसे रखा जायेगा वही डिप्लोमैटिक चाचा / मामा ..हाथ से चप्पल लिए और कसे हुए हलडॉल में घुसा दिए ...मन नहीं माना ...लगा मेरे चप्पल के साथ बेईमानी हो गया ..उसको हलडॉल के बड़े पौकेट में तकिया के बगल में जगह नहीं मिला 
अब घर में टिफिन कैरियर खोजाने लगा - उफ्फ्फ - वो बड़ा वाला स्टील का टिफिन कैरियर - जितना बड़ा - उतने बड़े रईस आप - उस टिफिन कैरियर को याद कीजिए उससे खाना निकाल के खाने में जो मजा आता था - एयरइंडिया के ताज वाले खाने से ज्यादा इलीटनेस था - अब मिल ही नहीं रहा - अंतिम दफा कब देखा गया था - सब लोग अपना माथा पर जोर दे रहा है - कोई उधर से बोला - "चिम्पू" के बियाह में बड़े वाले फूफा जी को खाना उसी टिफिन कैरियर में गया था - हुआ हंगामा - वापस क्यों नहीं आया ! तबतक उधर से किसी ने बोला - अरे बड़की भौजी के आलमीरा में होगा ! मिल गया ! जान में जान आया ! 
टिफिन कैरिअर में - पुरी / आलू का भुजिया / अंचार - आम वाला - रखा गया ! अब टिफिन कैरियर सेट ही नहीं हो रहा - बुलाओ भाई - पुत्तु चाचा को बुलाओ - पुत्तु चाचा - उसको इधर उधर किये - सेट हो गया - लह - उसका लॉक टूट गया - पुत्तु चाचा उसमे एक लकड़ी खोंस दिए ...हा हा हा हा हा !

@RR - २ अगस्त २०१३ 

बदलता बिहार .....


जब कभी पटना आता हूँ - एक शाम अपने मोहल्ले और आस पास कुछ किलोमीटर जरुर पैदल घुमता हूँ ! बढ़िया लगता है ! बहुत कुछ तो नहीं बदला पर एक आमूल परिवर्तन जरुर नज़र आती है - वो है स्कूल / कॉलेज' की लड़कीओं का उसी चहल कदमी के साथ घुमना - जिस चहल कदमी के साथ उनके लडके दोस्त घुमते हैं ! यह माहौल आज से दस साल पहले नहीं था ! 
जिस इलाके में मै रहता हूँ वहां ढेर सारे कोचिंग संस्थान हैं ! कक्षा करीब अस्सी प्रतिशत लड़कीओं से भरा हुआ है - पुरे जोश के साथ वो अपने सपने और कैरियर को लेकर सजग हैं ! यह परिवर्तन जबरदस्त है ! गांवो में चले जाईये - सुबह नौ बजे और शाम चार बजे एक साथ सौ पचास लडकीयाँ साईकल पर सवार - अपने नीले सफ़ेद स्कूल ड्रेस में - कल तक विपरीत दिशा में अपने खिलाफ बहने वाले हवा को चिरती - निकल पडीं हैं - बुलंद इरादों के साथ - उस अनजान मंजिल की ओर - जो कई सदीओं से उनका इंतज़ार कर रहा था ! 
आजादी के समय यह सुविधा समाज के बहुत कम तबके के पास था - उसके बाद बड़े किसान आये - मैंने साठ और सत्तर के दसक में अपने ननिहाल में अपने मौसीओं को कैपिटेशन फीस पर मेडिकल स्कूल में जाते सुना है - सत्तर के बाद सरकारी नव धनाढ्य आगे आये पर यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी ! 
पर पिछले आठ साल में जो क्रांती आयी है - उसका सारा श्रेय 'नितीश कुमार' को जाना चाहिए ! उसकी एक ख़ास वजह है - वो खुद जिस समाज से आते हैं - वहां स्त्रीओं को बराबर का दर्ज़ा मिला हुआ है और आज पढ़ाई लिखाई - आगे की सोच में वो समाज बिहार / यूपी का अग्रणी समाज है ! 
बस नितीश कुमार ने उसको पुरे समाज में फैला दिया - जो कल तक भूमिहार / कायस्थ / राजपूत / कुर्मी के नव धनाढ्य तक सिमित था वो जोश आज समाज के हर तबके में फ़ैल चूका है ! 
मेरे एक मित्र ने आज से वर्षों पहले मुझसे कहा था - "किसी भी महादेश / देश / राज्य /गाँव / समाज / परिवार को देखना हो ...उसके अन्दर एक नज़र झाँक लो ...वहां की महिलाओं को कितना हक मिला हुआ है - उसके बड़े / समृद्ध होने का बस और बस एक यही मापदंड है " ! 
"जो पिता कल तक अपनी पत्नी/ बहन को आँगन के बाहर कदम नहीं रखने देता था और आज अपनी बेटी के साइकिल के करियर में बेटी का स्कूल बस्ता रखते हुए ..न जाने कितनी आशाओं को देखता है " - यह एक जबरदस्त सामाजिक परिवर्तन है - इसकी गूँज बस अगले कुछ सालों में सुनाई ही नहीं - दिखाई भी देने लगेगी ...:)) 
लड़कों ...संभल जाओ ...जीवन साथी उसी मिजाज़ से पनप रही है ...जिसमे तुम पनप रहे हो ...
वैसे भी ...तुम लोग नया जेनेरेशन ...हमेशा बढ़िया ...
शुभआशीष ...:))

@RR - ५ अगस्त २०१३ 

एक शहर जो नहीं बदलता .....


शहर का शहर बदल जाता है ...शहर के अन्दर एक नया शहर बस जाता है ...शहर के हर छोर पर एक नया शहर दिखता है 
पर कभी गलिओं को बदलते नहीं देखा ...पुराने ढहते मकानो की जगह नयी ईमारत को भी देखा ...पर कभी गलिओं को बदलते नहीं देखा ...

@RR - २० अगस्त २०१३ 

नीला चाँद ....

नीले आसमां का वो नीला नीला सा प्यारा चाँद... 
सावन पूनम की रात वो कुछ गीला गीला सा चाँद ...
बादलों के संग पुरी रात बूँद बूँद पिघलता वो चाँद ...
सावन पूनम की रात झूले पर संग बैठा वो मेरा चाँद ....:)) 
~ RR - २१ अगस्त २०१३ 

संवाद.....

किसी भी रिश्ते की जान् होती है - संवाद ! जब रिश्ते में संवाद खत्म हो जाए - रिश्ते मुरझा जाते है - रिश्ते अंतिम दम तक जीने कि कोशिश करते हैं ..शायद संवाद हो जाए वो उस रिश्ते की कुछ पत्तियां हरी भरी हो जाएँ ! इसी इन्तजार में ..न् जाने कब 'जड़' भी सुखने लगता है और फिर एक दिन वो रिश्ता खत्म हो जाता है..मर जाता है ! अहंकार किसी भी रिश्ते का दुश्मन है एक बार हरे भरे रिश्ते को इसने छू लिया फिर उस रिश्ते को मुरझाने से कोई नहीं रोक सकता ..कोई भी नहीं ..एक पक्ष झुक भी गया ..फिर भी वो अहंकार रिश्ते के किसी टहनी में चुप चाप बैठा होता है ..अपने वक्त का इंतज़ार करता रहता है ...दूसरा पक्ष कब अपने अहंकार के फुंफकार से डस ले ..पता नहीं चलता ! 

~ रंजन ऋतुराज / २३ मार्च - २०१२ 

Monday, September 29, 2014

जेठ - बैसाख की चिलचिलाती धूप............


जेठ - बैसाख की चिलचिलाती धूप / गर्मी बर्दास्त से बाहर है ! एक जमाना था - इसी मौसम के लिए हम सभी तरसते थे - गर्मी की छुट्टी - क्या जमाना था - तब 'ऋतुराज वसंत' और 'सावन' फीके नज़र आते थे ! 
एक डेढ़ महीने की लम्बी गर्मी की छुट्टी - गाँव जाना है - ननिहाल जाना है - बाबा / दादी के पास जाना है - नाना / नानी के पास जाना है - मालदह आम खाना है - शाही लीची खाना है ..:)) 
तब के दौर में ठंडा और कोका कोला नहीं होता था - यह मौसम शादी विवाह का भी होता था - कहीं किसी के यहाँ शादी है - खूब बड़े ड्राम में 'रूह आफजा " घोला हुआ है - हम बच्चे इर्द गिर्द - कौन कितना ग्लास शरबत पी जाए ...कोई रोकने वाला नहीं ..कोई टोकने वाला नहीं ..कभी पता चला किसी रईस ने अपने कुएं में ही चीनी का बोरा डलवा दिया - लीजिये ..सुन लीजिये ...बिजली नहीं होती थी ...होती भी थी तो गुलर के फूल की तरह ...शाम होते ही घर के छत पर ..पानी ...दे बाल्टी ...दे बाल्टी ...और धाप देने लगा  ...एक तरफ से खटिया बिछना शुरू हो गया ...हम टीनएज का अलग जमात ...माँ - फुआ / मौसी लोग का अलग ...दे गप्प ...दे गप्प ...जब तक मुह थक न जाए ...हम लोग भूत का किस्सा सुनते और सुनाते ...फलाना मामा / चाचा को इमली के पेड़ के पास भूत पकड़ लिया था ..पिछले साल ...ऐसे कहानी हमउम्र पर एक दो साल बड़ा चचेरा / ममेरा 'ढक्कन' टाईप भाई सुना देता था ...अब नींद काहे को आवे ...छत पर नहीं सोना ...रूम में चलो ...माँ को तंग कर देते थे ...
सुबह ...दरवाजे पर एक बड़े बाल्टी में तरह तरह का आम ...घूम फिर के आईये और एक आम धो के ...किसी कमरे में लीची में ...बड़का कटोरा में एक दर्ज़न लीची ...तब तक कोई बोल दिया ...पेट 'दुखाने' ( दर्द) करने लगेगा ...ज्यादा मत खाओ ...आँगन में कटोरा खूब जोर से फेंकिये ...चल दीजिये ...बाबा / नाना के पास ...
अब ये सब कहानी ..नया जेनेरेशन सुनेगा ...कहेगा ..."दालान" वाले भईया गड़बड़ा गए हैं ..

@RR - मई १६ , २०१३ 

भावनाओं की सुन्दरता ....:))


भावनाओं की सुन्दरता तभी है - जब वो तरल हो ( लिक्विड) - तेज़ प्रवाह वाली भावनाएं - गैस या कठोर भावनाओं में आप नहा नहीं सकते - बेकार - या तो मजा नहीं आएगा या फिर आप चोटिल हो जायेंगे ! जो भावनाएं जितनी पवित्र - उसमे उतना ही प्रवाह - उसमे उतनी ही गती - वेग के साथ बहती भावनाएं - अपने साथ सबकुछ बहा ले जाने की क्षमता वाली भावनाएं - गंगोत्री की धार लिए ! 
इस तेज़ धार को अपने साथ लिए वो किनारे - कभी उस तेज़ प्रवाह में विलीन होते तो कभी उस वेग को नयी दिशा देते - वो किनारे - गंगोत्री से लेकर समुद्र तक उसका साथ निभाते - अगर मजबूत किनारे न हों ...उन भावनाओं को ना दिशा मिलेगी और ना ही गति ...और वही किनारे और गति ...उनको निरंतर बहने की शक्ती देते हैं ....'बाँध' अक्सर टूट जाते हैं ...किनारे हमेशा साथ रहते हैं ...:))


@RR - २० जून - २०१४ 

मेरे मिजाज़ का शहर .....


छोटे शहर भी अजीब होते हैं - जिस मोड़ ...जिस रूप में .. हम उन्हें छोड़ के जाते हैं ...वो वहीँ ..उसी रूप में ...वर्षों बाद भी खड़े मिलते हैं ...! वो मेरे गली के चौराहे पर 'चाट वाला' ..आज पचीस साल बाद भी ..उसका ठेला वैसा ही है ..उसके प्लेट और एक तरफ से घिसे हुए चम्मच भी वही हैं ...उसके चाट का स्वाद भी वही है ..आज भी जूठे प्लेट इधर उधर रख देने से ...वो उसी गुस्सा में बोलता है ...जब हम हाईस्कूल में होते थे ....! मेरी गली में वो परचून की दूकान ...जिसके काउंटर पर सीसे के मर्तबान में रखे मोर्टन के टॉफी की जगह नए ब्रांड आ गए पर वो सीसे का मर्तबान वही है ...जिसके ढक्कन में जंघ लग गयी है ...वो जंघ तो पचीस साल पहले भी लगी हुई थी ...उसके दूकान से मरे हुए चूहे की गंध भी वही है ...और वो साव जी ...आज भी गेहूं की बोरी पर बैठ ...महीने का सामान लिखते हैं ...पैसा मिल जाएगा ...'बौउआ' आप घर जाईये ..सामान पहुँच जायेगा ...मै क्यों नहीं उनकी नज़र में 'बड़ा' हुआ ...आज भी 'बौउआ' ही हूँ ...हर बार सोचता हूँ ...अगली बार उनके लिए भी कुछ लाऊंगा और हर बार भूल जाता हूँ ...! और एअरपोर्ट पर खडा मेरे पापा का ड्राईवर 'सोनेलाल' ...फ्लाईंग शर्ट को ऊपर से पहने ...पीछे हाथ ...प्रणाम कह ...तुरंत मेरे सामान को ले लेना ...तीस साल हो गए उसको ...दस साल में हमने कई नौकरी बदल ली ....वो क्यों हमारे परिवार से चिपका हुआ है ...क्यों सोनेलाल को देख एक निश्चिंती मिलती है ...पापा सुरक्षित हैं ..'सोनेलाल' हर बार एअरपोर्ट पर छोड़ने आता है ...अगली बार रिसीव करने के लिए ! 
पड़ोस की डाक्टर आंटी ...सत्तर की होने आयीं ...आज भी उसी अंदाज़ अपने फिएट से उतरती हैं ...सबकुछ बदल गया ...नयी गाडी भी आ गयी ...पर उनके गैराज में ..आज भी वो हलके हरे रंग की फिएट खड़ी रहती है - जिसमे गेयर स्टीरिंग के साथ होता था ...कभी कभी वो चलाती हैं...सिल्क साड़ी और स्लीवलेस में ...सारी दुनिया देख लिया ...वो कान्फिडेंस और खुबसूरती अब क्यों नहीं नज़र आती ...हमारी जेनेरेशन तो ज्यादा पढी लिखी और एडवांस है ...न ! 
जब सारी दुनिया बदल रही है ...वो क्यों नहीं बदलता ...जहाँ हमारे बचपन की 'रूह' कैद है ...सबको बदल जाने दो ...तुम मत बदलना ....! 
~ रंजू

@RR - २२ जून - २०१४ 

नौकरी और मिजाज़ ....:))


दिल्ली में मेरे एक बिहारी मित्र होते थे - उम्र में पांच / छः साल बड़े ! बेहतरीन वक्ता और अपने क्षेत्र में एक नामी गिरामी पर्सनाल्टी और खुद भी दिल्ली से पढ़े लिखे थे सो नेटवर्किंग भी जबरदस्त ! देर शाम अक्सर फोन पर लम्बी वार्तालाप होती थी ! 
उनके दादा जी / पिता जी इत्यादी भी देश के बेहतरीन स्कूल कॉलेज से पढ़े लिखे थे - उनके दादा जी सेंट स्टीफेंस के बेहतरीन विद्यार्थी होने के बाद - अपने गाँव लौट आये और खेती बाड़ी में व्यस्त हो गए ! 
बहुत वर्षों बाद - उनके स्टीफेंस के दोस्तों ने उनको याद किया - श्रीमति इंदिरा गांधी तुमसे मिलना चाहती हैं - यह खबर मिलते ही वो दिल्ली रवाना हो गए - तब श्रीमति इंदिरा गांधी नयी नयी प्रधानमंत्री बनी थीं - श्रीमति गांधी ने उनसे यूरोप के एक प्रमुख राष्ट्र का 'राजदूत' बनने का ऑफर दिया - वो अचानक से चुप हो गए - एक महीना का समय लेकर अपने गाँव वापस लौट गए ! 
गाँव में अपने दोस्तों की महफ़िल बुलाकर - यह प्रस्ताव सबको बताया ! एक ने कहा - "इसका मतलब आपको इंदिरा गांधी का नौकरी करना होगा - वो जो कहेगी वही करना होगा - जिस दिन मन करेगा आपको हटा देगी " .......हा हा हा हा ....यह बात बुरी तरह से मेरे मित्र के दादा जी को चुभ गयी ...उन्होंने उसी वक़्त प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिख अपने नए निर्णय से अवगत करा दिया ..मुझे यूरोप पसंद पर आपकी नौकरी के रूप में नहीं ! 
हा हा हा हा ....कल्पना कीजिए ...मेरे मित्र के दादा जी के व्यक्तित्व को ...मिजाज़ भी एक चीज़ होता है ...:))

@RR - २५ जून - २०१४ 

गुलज़ार / Gulzar




ए कुम्हार ...तुम क्या गढ़ते हो ...वो मिट्टी कहाँ से लाते हो ...कैसे उसमे प्राण फूंकते हो ...

ए कुम्हार ...तुम क्या रचते हो ...वो नज़र कहाँ से लाते हो ...कैसे हुबहू बना देते हो ....
मै भी तो मिट्टी का एक लोदा ...कब मुझे साना ...कब मुझे अपनी उंगलीओं से आकार दिया ...कब मुझमे एक प्राण फूंका ....
मूरत भी हंसने लगे ...मूरत भी खिलखिलाने लगे ...मूरत भी कुछ बोलने लगे ...
ए कुम्हार ...ये कला कहाँ से लाते हो ...कुछ मुझे भी सिखाओ ...कुछ मुझे भी बताओ ...
~ रंजन ऋतुराज


@RR - 29 July 2014 

एक शहर होता है..........


एक शहर होता है – शहर में लोग रहते हैं – लोगों के अलग अलग शौक होते हैं – इन्ही शौकों के आधार पर शहर में कई क्लब होते हैं ! मेरा भी एक शहर है – पटना ..:)) पटना में अलग अलग क्लब हैं – बांकीपुर कल्ब , गोल्फ क्लब , मगध स्पोर्ट्स क्लब ..:)) 
जी ...मै भी पटना के बहुचर्चित मगध स्पोर्ट्स क्लब द्वारा आयोजित मानसून कार रैली में भाग लेने जा रहा हूँ – इसी शनीवार – पटना से बोधगया – कुल पचीस के करीब टीमे होंगी – मेरे साथ होंगे मेरे स्कूलमेट अजय कुमार शर्मा ... 
मगध स्पोर्ट्स क्लब के संचालक हैं – श्री प्रणव शाही जो मेरे जिले गोपालगंज से आते हैं और लगभग उनसे तीस वर्ष पुराना नाता है – तब जब हम हाईस्कूल में होते थे और वो इंटर के विद्यार्थी – और वो बिहार का प्रथम विडियो फिल्म बना रहे थे –‘दिल अपना और प्रीत पराई’ – उनके आवास ‘हथुआ कोठी’ – गांधी मैदान जाना होता था और वो अपने स्क्रिप्ट में व्यस्त – शाम को अक्सर उन्हें उनकी उस जमाने की ‘कोनकोर्ड’ साइकिल पर देखता – जब वो शूटिंग कर रहे होते – मै चुपके से उनकी साइकिल के पैडील पर अपने पाँव रख खुश हो जाता था – यही पहली याद है उनकी ! 
बरस दर बरस ख़त्म हो गए – हम सभी अपनी अपनी ज़िंदगी में व्यस्त – वर्षों बाद इंटरनेट के एक वेबसाईट पर उनका नाम देखा और फिर से उनके नजदीक आ गया – इंसान कहीं भी चला जाए – बचपन को साथ लेकर घुमते रहता है ..:)) 
मगध स्पोर्ट्स क्लब पिछ्ले साथ आठ सालों से बिहार में कई कार रैली करवा चुका है – और कई सालों से श्री प्रणव शाही की तमन्ना थी – मै भी उनके किसी कार रैली का हिस्सा बनू – पटना से दिल्ली , दिल्ली से पटना , बोधगया से कुशीनगर , पटना से पुरी इत्यादी ! इसबार जब उनके प्रोफाईल पर इस साल वाला मानसून रैली का खबर पढ़ा – खुद को रोक नहीं पाया – बोला ...सर ..मै भी ...वो भी उधर से जबाब दिए ...ज़ल्दी घर आईये ...फिर ढेर सारे गप्प ...कैसे एक साथ छः विश्व प्रख्यात विश्वविद्यालयों में ‘फिल्म निर्माण’ को लेकर उनको स्कोलरशिप मिली – ब्रुकलिन से लेकर प्रख्यात लन्दन स्कूल तक – कहीं सिलेबस से ज्यादा उनको ज्ञान तो कहीं परिवार का बंधन – पर वो फिल्म निर्माण और मीडिया से जुड़े रहे – हर जगह और हर व्यक्तित्व की अपनी एक परिधी होती है और आपको उसमे ही रहकर अपना बेस्ट देना होता है – उनका एक विडियो ‘बुद्ध’ पर ..विश्वभर में सराहा गया ! जब मेट्रो दूरदर्शन आया – उनका एक शो – गुड मोर्निंग मेट्रो दो तीन साल तक काफी फेमस भी रहा ! 
शनीवार सुबह कार रैली हथुआ कोठी – गांधी मैदान से शुरू होगी – कुछ नियम कानून होंगे – एक सफ़र मस्ती का होगा – फिर बोधगया में रात्रीविश्राम के बाद – अगली सुबह वापस ! 
दिल्ली / एनसीआर में बारह साल रहने के बाद – पटना में वापस रहना आसान नहीं है –– हर शहर का अपना अंदाज़ होता है – फिर ऐसे ही कुछ हाथ होते हैं – जो आपको पकड़ लेते हैं – कुछ दूर तक सहारा देते हैं – एक हौसला भी – ज़िंदगी यहाँ भी है ....:)) 
मैंने तो ...बस ...’हेल्लो पटना’ बोला था .....:))

@RR - 2 July 2014 

गया मेरा जन्मस्थान......


गया मेरा जन्मस्थान है पर सरकारी कागजों पर कहीं गोपालगंज तो कहीं मुजफ्फरपुर तो कहीं पटना लिखा है - पर मेरा जन्म तो गया में हुआ था ...हां...माँ ने यहीं मुझे जन्मा था ...गया....! 
गया मेरे अन्दर कहीं छुप के बसा होता है ...कभी निकलता नहीं ...गोपालगंज / मुजफ्फरपुर / पटना के ताम झाम में 'गया' मालूम नहीं कहाँ छिप जाता है - पर मुझे पता है - वो कहाँ छिपा होता है...मै कभी कहता भी नहीं ...बाहर निकलो....अब माँ नहीं हैं तो ...अन्दर से झाँक रहा है ....गया ... 
जन्म के बीस इक्कीस साल बाद - मन हुआ - गया जी का दर्शन कर आऊँ - ट्रेन पकड़ लिया - एकदम अकेले - एक दोस्त के घर रुका - गया जी को महसूस किया - फिर बोधगया घुमा ...चुप चाप ..हाथ को पीछे मोड़ ...एक हक से ...फिर वापस लौट गया ...फिर एक दो साल बाद ही ...एक दोस्त की शादी में आया ...पर बस शादी में ही व्यस्त ...तब भी दोस्त के घर के खिड़की से ...गया को देखा था ...! 
आज फिर ...बाईस साल बाद ...गया जी और बोध गया का दर्शन हुआ ...महसूस किया ...ये वही जगह है ...जहाँ माँ ने मुझे जन्मा था ...इस धरती को दिखाया था ...बड़े नाना जी की पोस्टिंग यहीं थी ...मामू लोग की ढेर सारी मेरे जन्म की कहानी ...ननिहाल में सबसे बड़ा था ...तो कहानी भी मेरी ही होगी ...न ...वो सारी बातें ....ऊन के गोले की तरह ...सुबह से खुलते जा रहे हैं....मालूम नहीं ..कहाँ कहाँ उलझते जा रहे हैं ....
गया जी ....गया को आदरभाव से 'गया जी' ही कहते हैं ...:))

@RR - 5 July 2014 

मानसून कार रैली - पटना - गया - पटना ....


मानसून कार रैली - पटना - गया - पटना ....

परसों देर शाम बुखार होने के बाद भी - कल सुबह पांच बजे नींद खुद ब खुद खुल गयी - शेविंग तेविंग कर के - जींस टीशर्ट जूता मोजा गॉगल्स कस के - गाडी हांक दिए - रास्ता में अपने नेविगेटर अजय को भी उठा लिए ! स्पॉट पर सबसे पहले - बूंदा बांदी हो रही थी ...अभी अपनी डस्टर पार्क ही किये - पीछे से दो बड़ा बड़ा ऑडी - मन को शांती मिला - हम ही कुछ ज्यादा उत्साहित नहीं हैं - बाकी लोग भी है - फिर उसके बाद ..लोग आते गए ...गाडी सब नंबर के आधार पर क्यू में खड़ा हो गयी - बड़का हथुआ राज कोठी के हाता को भरते हुए ... नौ नबर हमलोग थे ! बारिश तेज़ होने लगी - सब कुछ धुंधला दिखने लगा - पर मेरा डार्क ब्लैक गॉगल्स अपनी जगह पर ही चिपका हुआ था ...हा हा हा ..:)) 
हर दो मिनट पर एक एक कर के गाडी सब का फ्लैग ऑफ होने लगा - कोडेड रूट चार्ट मिल गया था - ओडो मीटर को रिसेट कर लिया गया - गाँधी मैदान होते - बिस्कोमान से पीछे से गोलघर होते हुए राजा पुल - पतलून शो रूम होते - बोरिंग चौराहा होते हुए बेली रोड - डाकबंगला - रेडिओ पर अरजित सिंह बजने लगे - तुम ही हो - मेरे नेविगेटर अजय कलम पेन्सिल कागज़ कल्कुलेटर पर व्यस्त और कोडेड रूट चार्ट से मुझे दिशा निर्देश कर रहे थे - खूब तेज़ बारिश - हर दो मिनट पर रैली की कार ...सनसनाते हुए ..पटना की सडकों पर ...:)) 
कंकडबाग रोड होते हुए ....पटना गया रोड पर ...अब तक दो जगह पर मार्शल मिल चुके थे - ये काम कठिन है - मै खुद पंद्रह साल पहले - दो तीन रैली में मार्शल का काम कर चुका हूँ - घड़ी लेकर बैठना - जैसी ही कोई कार रस्सी को क्रोस की - जोर से "हिट" बोलना - फिर नेविगेटर का तेज़ी से दौड़ - अपने चार्ट में समय दर्ज - ये सब काम अजय बखूबी निभा रहे थे - हम बस मस्ती में गाडी हांक रहे थे - मसौढ़ी के पास - रूट कोड के चलते किसी और दिशा में गाडी मोड़ दिए - हम ही अकेले नहीं थे - दो तीन और लोग रास्ता भटक चुके थे - अजय जिद पर अड़ गए - वापस लौटो - हुआ झगडा हम दोनों में - हा हा हा हा ...खैर अजय सही थे - वापस मोड़ दुसरे रास्ते पर निकले - बारिश तेज ही थी ...जहानाबाद तक !
टाईम - स्पीड - डिस्टेंस के फॉर्मेट पर रैली थी - कभी अचानक से अजय बोलते - गाडी तेज़ करो - फिर कहते स्पीड का करो ...यही सब करते धराते - हम लोग गया शहर के जाम में फंस गए ... सब बुद्धि फेल हा हा हा हा ....खैर समय से कुछ मिनट लेट हमलोग एक बड़ी हवेली 'माल्या कोठी' पहुँच गए - और रैली समाप्त हुआ ! ग्रुप श्रूप फोटोग्राफी के बाद - बेहतरीन भोजन - कुछ एक लोगों से गुप्तगू - श्री राजेश्वर शाही जो बनारस / एलाहाबाद में विंटेज रैली करवाते हैं - पटना के ही श्री सुधांशु सिन्हा जी - जिनके पास खुद की छः मर्सिडीज और कुल 21 कारें - कुनाल जो रैली के लिए कलकत्ता से आये थे - कुछ एक लोग अपने परिवार के साथ - वो अपनी दुनिया में मस्त ! 
फिर वहां से रैली के सभी लोग करीब तीस गाड़ी एक साथ - आगे आगे माल्या कोठी के देवेश जी की विंटेज विल्ली लेफ्ट हैण्ड ड्राईव खुली जीप और सबसे पीछे ...अपने टाटा सफारी पर प्रणव शाही - उनकी कार में छः फीट लंबा एंटीना - दिल्ली का कोई भी काफिला - इस काफिले के आगे फेल था ..:)) 
बेहतरीन होस्पितलिटी - प्रणव सर दोनों पति पत्नी द्वारा - हर किसी पर ध्यान - हर किसी की जरुरत को समझते हुए - आयोजन ! 
शाम को हम और अजय बोधगया मंदिर निकल गए - काफी देर घुमा - अजय के कैमरे से कुछ तस्वीरें ली ...मन को शांती ...फिर देर शाम ..प्रणव सर से ...एक पार्टी रखा हुआ था ..कुछ एक लोग कराओके पर बेहतरीन गीत भी गाये ....मेरे ऊपर मंदिर का प्रभाव ज्यादा था - होटल लॉबी में ..एक सोफे पर काफी देर आराम किया ....बुद्ध को स्मरण किया ...
फिर से ...श्री प्रणव शाही सर - मगध मोटर स्पोर्ट्स क्लब के जनक श्री राजेश्वर शाही - श्री सुधांशु सिन्हा सर - और सभी स्पोंसर कंपनी ...और सभी प्रतियोगीओं को धन्यवाद ...मंगल को रिजल्ट निकलेगा ...
आज सुबह ब्रेकफ़ास्ट के बाद ...वापस ...अजय मेरे बगल ...सीट को डाउन कर के लेटे रहे ...और मै पुरे रास्ते ...बुद्ध को स्मरण ...."अनंत किर्ती' के साथ बुद्ध पैदा लिए होंगे ....तभी तो आज तक ज़िंदा हैं ....और उस मंदिर में प्रवेश के साथ ...इतनी शांती क्यों मिलती है ...और मन की शांती से बड़ी कुछ भी नहीं ....!


@RR - 6 July 2014 

हल्की बारिश की बूंदों में लिपटी ..एक शाम....


हल्की बारिश की बूंदों में लिपटी ..एक शाम ...शहर का वो फेमस चौराहा जिसके इर्द गिर्द ....जगमगाती रौशनी में डूबे 'शो रूम की कतारें' ...वहीँ एक चौराहे पर अपनी सेक्सोफोन के साथ ...'केनी' ...बिना किसी को देखे ...अपनी सभी बेहतरीन धुनों को बजाते ....पास वाली चौड़ी सड़क पर बेहद धीमी रफ़्तार से रेंगती कारें ...और कारों से अपने हाथ निकाल ...'केनी' का अभिवादन करते लोग ....:)) 
देर किस बात की ....हेडफोन / इयरफ़ोन को प्लगइन कीजिए ...और इस बेहतरीन धुन का मज़ा लीजिये ...अपने कार से ..हाथ निकाल ....केनी को सुनते ...:))

@RR - 10 July 2014

जब हमलोग बच्चा होते थे.....


जब हमलोग बच्चा होते थे - बाबु जी के दोस्त महिम टहलते हुए शाम को आते थे - गप्प के लिए - हाथ में एक टोर्च और एक छाता लिए हुए - पैंट का मोहरी ऊपर तक मोड हुए - एक शिकायत के साथ - महाराज ...आपके गली में भर ठेहुना पानी लगा हुआ है ....:)) अलग अलग व्यक्तित्व के मालिक लोग ....कोई एकदम सीरियस टाईप ..कोई खुल कर हंसने वाले ..कोई हमलोगों से तरह तरह के सवाल पूछने वाले - बाबु जी के वैसे दोस्तों के हिसाब से हमलोगों की शाम होती थी - कोई लम्ब्रेटा से तो कोई विजय सुपर से - कोई राजदूत से तो कोई बुलेट वाला - फिर फिएट वाले- तो कोई पैदल - खिड़की से झांक लेते थे - कौन सा गाडी रुका है - उसके हिसाब से हम लोग अपना मूड बनाते थे - पढना है या ऐसे ही लाफाशूटिंग - बज़ट से लेकर स्थानीय कॉलेज का पोलिटिक्स - सब चर्चा ...गप्प सुनने में मज़ा आता था - तब तक कोई टोक दिया - नहीं पढ़ना है तो अभी ही बता दो - तब माथा एकदम से झन्न झन्न करने लगता था ...
कोई कोई बिना छाता के भी आते थे - छाता लेकर उनको घर तक छोड़ने जाओ - रास्ता भर दिल धक् धक् करता था - ऐसा ना 'अंकल' रिज़ल्ट पूछ दें ..हा हा हा हा ...कहाँ गए वो दिन ...:))

@RR  - १० जुलाई - २०१४ 

गुरु पूर्णिमा की शुभकामनाएँ ....

गुरु पूर्णिमा की शुभकामनाएँ .... 


बुद्ध के गुरु कौन थे ? वो किस किताब से ऐसा ज्ञान प्राप्त किये जो आज हजारों वर्ष बाद भी प्रचलित है - वो किस विश्वविद्यालय से डिग्री लिए या परीक्षा पास किये ...बात सिर्फ बुद्ध की ही नहीं है - कई सारे ढेर वैज्ञानिक या अपने क्षेत्र में शिखर पर पहुंचे लोग बिना किसी आकार वाले गुरु के ही ज्ञान प्राप्त किये हैं ....दरअसल आपका 'मन' ही सबसे बड़ा गुरु है ...जब मन मंथन करता है ...ज्ञान वहीँ से निकलता है ...जो आप सोचेंगे ..आपका मन उसी का मंथन करेगा ...वो कंप्यूटर साईंस हो या फिलोसोफी या अध्यातम या फिर भूगोल या राजनीति ....वही मन आपको ज्ञान देगा ...और एक सही दिशा निर्देशन ही सच्चा ज्ञान है ....कई ज्ञान खुद के लिए होते हैं और कई ज्ञान बांटने के लिए ....ज्ञान कोई दान नहीं होता जो आप किसी और को देने के बाद भूल जाएँ ....इसे देने के लिए सही पात्र का चुनाव किया जाता है ...और यहीं से एक रिश्ता बनता है - गुरु और शिष्य का ...आपके मन और आपके ज्ञानेन्द्रियों का ....मन आपका गुरु ....एक बगैर आकार वाला गुरु ....और आपके बढ़ाते कदम बताएँगे ...आपका गुरु कैसा है ....:))


@RR १२ जुलाई - २०१४ 

बिहार


पटना में मेरा इंटरनेट कनेक्शन प्रीपेड है - समय और पैसा ख़त्म हो गया था - उसको रिचार्ज करवाने के लिए मै अपने चौक तक गया - वहीँ एक मोबाईल दूकान में घुस गया - दो मिनट के अन्दर मेरे आस पास करीब छः सात लोग आ खडा हुए - सभी आयु में बीस से कम थे - चौक पर कुछ एक दूकान है - सभी दुकानदार पचास से ऊपर के हैं ! यही दृश्य है - बिहार का ! हर एक बच्चा पढ़ रहा है - किसी भी क्लास / जाति का हो - जितना उसका अपना क्षमता - जी जान लगा दे रहा है - ज्ञान के लिए नहीं - "बिहार के बाहर निकलने के लिए "  और जो निकल गया - वो परदेस में जी जान लगा दे रहा है - "बिहार कभी वापस नहीं लौटने के लिए"  जो बिहार में रह गया / फंस गया - वो कुंठित हो चला है - यह एक सत्य है - उसे वही लगता है जो बाहर है वो दुनिया की सारे भोग विलास में है - मेरे पास कुछ नहीं है - ऐसी कुंठा स्वाभाविक है - जिसके पास विजन ही नहीं है - उससे आप कुछ भी गवा लीजिये - वो एक ही राग गायेगा ...हा हा हा हा ...
तरह तरह के अफवाह - फलाना बाबु मर गए - बेटा विदेश से ही पड़ोसी को पैसा भेज दिया - क्रिया कर्म कर दीजियेगा - इससे बड़ी त्रासदी किसी भी इंसान के लिए क्या होगी - औलाद रहते - मुखाग्नी कोई और दे रहा है - कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो सही है ही है ! ये तो सही है ही है - कई लोग माता पिता के देहांत के बाद - अंतिम दर्शन नहीं कर पा रहे हैं - वजह जो भी हो ! 
जब दिल्ली आया था - रोज अखबार में खबर - बड़े मोहल्ले में वृद्ध दम्पती को लूट नौकर फरार - अस्सी साल के बुजुर्ग की हाथ - बुजुर्ग ने आत्महत्या की - ऐसी खबरें बिहार से नहीं आ रही - सामाजिक भावना अभी ज़िंदा है - आप नहीं हैं पर आपके कई हित कुटुंब है - आपके माता पिता की सहायता के लिए - पर कब तक ?? 

@RR - १४ जुलाई - २०१४ 

बिहार बनाओ ....


बिहार से बाहर जाना कोई नया बात नहीं है - कई दसक पहले गिरमिटिया मजदूर बन के भी लोग दुसरे देशों में बस गए - फिर वापस नहीं आये - उसमे से कुछ बिहार से रोटी / बेटी का सम्बन्ध बना कर रखे लेकिन अब वहां की नयी पीढी भी विद्रोह कर रही है ! बात अपवाद की नहीं होती है - बात आम की होती है ! लोग पहले भी कलकत्ता / दिल्ली जाते रहे हैं - कमाने के लिए - लेकिन अपनी जड़ें बिहार में मजबूत रखते थे - अब वो जड़ें कहीं न कहीं हिल रही हैं - वजहें साफ़ है -खुद की ज़िंदगी की जरूरतें इतनी बड़ी हो चुकी हैं की इंसान वहीँ खुद को दबा कुचला महसूस कर रहा है ! एक छोटा सा उदहारण देता हूँ - बस दस / पंद्रह साल के अन्दर - लोग होली / छठ पूजा में बिहार जाना बंद कर दिए - अगर आप किसी महानगर में रह रहे हों - तस्वीर साफ़ साफ़ नज़र आयेगी - हर शहर में बिहारी छठ पूजा करते नज़र आयेंगे - छठ पूजा में गाँव / अपने शहर जाना सिर्फ संस्कृति या सभ्यता नहीं थी - फिर से कई संबंधों को उजागर करने की एक कोशिश होती थी ! सभ्यता और संस्कृति तो हज़ारों साल बाद भी जिंदा रहती है लेकिन अपनी मिटटी से कब सम्बन्ध ख़त्म हो जाता है - पता ही नहीं चलता ! 
1990 के बाद आर्थीक उदारीकरण और आईटी ने हर मिडिल क्लास घर के काबिल को विदेश घुमा दिया - वर्ना पहले सिर्फ डॉक्टर ही विदेश जाते थे या तो डिग्री के लिए या फिर पैसा कमाने के लिए - बाहर बसना कोई नहीं चाहता था ! 
अब क्यों लोग बसने लगे हैं - वजहें साफ़ है - आर्थीक उदारीकरण के बाद देश का हर एक राज्य की राजधानी की प्रगती हुई पर पटना जैसे शहर वहीँ के वहीँ खड़े रह गए या पीछे हट गए - दो चार ओवरब्रिज बन जाने से आप देश के दुसरे शहर के बराबर नहीं खड़े हो सकते ! रोजगार पैदा करना होगा - जातिवाद लगभग समाप्त हो चुका है - जिनकी आँख ही मंडल के बाद खुली - उनको कबतक मंडल की घुट्टी पिलायेंगे - भाजपा जैसे बड़े राजनितिक दलों को 'कमंडल' उतार अपनी राजनीति फिर से शुरू करनी पडी ! 
एक उदहारण देता हूँ - मेरे इस दालान पेज पर 70 % वैसे लोग हैं जिनकी आयु " 18 से 34 के बीच है - इनकी अपेक्षाएं अलग हैं - कई तो स्मार्ट फोन के युग में पैदा लिए हैं - वो अपनी दुनिया अपने ढंग से देखना चाह रहे हैं - जो मेरी उम्र के हैं वो खुद के बच्चों को देख सकते हैं ....
अब बात आती है ...एक प्रवासी बिहारी / अप्रवासी बिहारी कैसे बिहार को मजबूत कर सकता है ....बहस यहाँ होनी चाहिए ....:)) 

@RR - १५ जुलाई - २०१४ 

बिदेसिया .....


बात दस साल पुरानी है - मैंने इंदिरापुरम में जान पहचान के ही एक बिल्डर के यहाँ अपना फ़्लैट बुक करवाया - हम सभी कई जान पहचान वाले लोग भी वहीँ फ़्लैट बुक करवाए ! एक मेरे करीबी मित्र के संबंधी जो कई वर्षों से अमरीका में रह रहे थे - उन्होंने ने भी वहीँ फ़्लैट बुक करवाया - कुछ महीने बाद वो अमरीका से आये - सपरिवार - वहीँ साईट ओफ्फिस में मुलाकात हुई - बातों बातों में मैंने उन्हें टोका - सर ..आप अमरीका में तीस साल से हैं पर आपकी हिंदी बोल चाल की भाषा में आपके गृह जिला 'पूर्णिया' की झलक और खुशबू है - वो हंसने लगे - कहे - मैट्रीक गाँव से किया - इंटर पूर्णिया से - फिर इंजीनियरिंग आईआईटी से करने और टॉप करके तुरंत - अमरीका निकल गया - तीस साल से वहीँ हूँ पर हिंदी तो वही रह गयी जो बचपन में सिखा ! फिर मैंने पूछा - ये अचानक - यहाँ फ़्लैट ! वो थोड़े खामोश हो गए ..बोले ...सैन फ्रांसिस्को पहुंचा ..इंटेल में नौकरी मिली ...कैरियर रॉकेट की तरह उड़ा ...कंपनी में प्रोमोशन दर प्रोमोशन ...इसोप से करोड़ों रुपैये हुए ....जब सैन फ्रांसिस्को के इलीट कक्षा / वर्ग / ऑर्बिट में मेरे कैरियर का रॉकेट रूका ...तब वहां इस बात की पूछ नहीं थी ...मैंने कितने पैसे बनाए या विश्वविख्यात इंटेल कंपनी के शीर्ष पर हूँ ...बे एरिया में आठ कोठी है ...सब गौण हो गए ....अब वहां पहचान और बात का जरिया हो गया - " मै कौन हूँ / मेरी जड़ें कहाँ हैं / मेरा खून कैसा है " - 
पढ़ाई / लिखाई / पद - प्रतिष्ठा / पैसा - कौड़ी आते जाते रहता है पर सभ्यता संस्कृति ही आपकी असल पहचान होती है - वही आपके जड़ को बताती है ...उसको ज़िंदा रखना आसान नहीं होता ! फुर्सत मिले तो इस गीत को सुनिए ....कई दसक पहले ....फिजी में बसे लोग ...कैसे अपने इतिहास को ...इस गीत के माध्यम से गा रहे हैं ...उनका दर्द आपको भी महसूस हो सकता है ....कल्पना कीजिए ...एक पनिया जहाज में मजदूर बन ...निकल गए ...न जाने किस दिशा में ...महीनों उस पानी के जहाज में ....मालूम नहीं कहाँ रुके ....

@RR - १६ जुलाई - २०१४ 

एक सुबह आये......


एक सुबह आये ...बगैर फिक्र वाली ...खिड़की से झाँका तो ...बरसती बूंदों वाली....पुरे दिन को अपने ही स्वाद में घोलती...एक सुबह आये ...बगैर फिक्र वाली ..कोई शाम न आये ...आये तो सीधे रात आये ...उसी सुबह के आस में आये ....बगैर फिक्र वाली ...:))

@RR - १७ जुलाई - २०१४ 

ज़िंदगी कटी पतंग नहीं होनी चाहिए......


ज़िंदगी कटी पतंग नहीं होनी चाहिए ....कोई भी आया और लूट लिया ...दर्द उसको होता है ...जिसकी पतंग कटी होती है ...बाकी दुनिया तो बस मजा लेती है ...बस ..अपने धागे को मजबूत रखिये ....
इस दुनिया में कोई आपके एहसासों का क़द्र नहीं करता है ...और जो करता है ...उसको अपनी क्षमता से आगे बढ़ कर प्रेम और आदर दीजिये ...और उसको बिना शर्त अपने ह्रदय में जकड लीजिये ...:)) 

@RR - २० जुलाई २०१४ 

आपका मन ......


दुनिया का सबसे बड़ा हैवान ...सबसे बड़ा शैतान ...सबसे बड़ा भगवान् ...सबसे गंदा ...सबसे पवित्र ....किसी भी इंसान का मन होता है ! एक पल में न जाने कितनी भावनाएं से यह एक अकेला मन गुजरता है ...हर तरह की भावनाओं में रंगा होता है - हर एक किसी का मन ...! सारा खेल इसी मन का होता है ! आस पास की घटनाएं और वातावरण भी मन को प्रभावित करती हैं ...जैसे एक मंदिर में प्रवेश करते ही आपका मन भक्तिमय हो जाता है ...वही इंसान कुछ पल अपने ओफ्फिस में तंग मन से काम करता है ....! 
कई बार मन की बातों को ....जुबान देने से वो बातें मन में घर कर लेती हैं ...यहीं पर "मन का योग" शुरू होता है ...हम किस तरह की चीज़ें अपने मन में घर करना चाहते हैं - उसका योग करना चाहिए ! चोरों / डकैतों के महफ़िल में आप साधू जैसी बातें कीजिएगा ...बस कर के देखिये ...आप खुद ब खुद उस तरह के ग्रुप से बाहर निकल जाईयेगा ...क्योंकी आपने अपने मन के किसी एक पवित्र भावना को जुबान देना शुरू कर दिए ...जैसे ही उन भावनाओं को जुबान देना शुरू कर देते हैं ...वो भावनाएं मजबूत होने लगती हैं ....मन कभी भी 'शुन्य' में नहीं जीता है ...कुछ न कुछ उसको भर देता है ...अब आपके मन को कैसी चीज़ों से भरना है ...वो आप पर है ! गलत - सही की परिभाषा अपने आप में बहुत जटिल है - फिर भी हज़ारों साल से जो गलत है वो गलत है और जो सही है वो सही है ....किसी और को दिखाने के लिए नहीं ....खुद के लिए अपने मन को निर्मल कीजिए ....आपके पास दो आँखें हैं ...दुनिया हजारों आखों से आपको देख रही है ...दुनिया की चिंता मत कीजिए ....वो आपके निर्मल मन को देख ही लेगी ! 
हाँ ...जिन बातों को आप जुबान नहीं देंगे ...वो खुद ब खुद ख़त्म भी हो सकती हैं ....कभी कोशिश कीजिए ...आदतों का अगला पडाव ही चरित्र है ...खुद के अन्दर की बहुत सारी चीज़ों को आप नहीं बदल सकते ...पर मन के योग से बहुत कुछ बदल सकते हैं ...एक कोशिश कीजिए ...जोर लगेगा ...मन पर हैवानियत सवार होगी ...पर एक मजबूत मन को देख वो भाग खड़ी होगी ...फिर आयेगी ...तब तक आते रहेगी ...जब तक आप थोड़े भी विचलित हैं ...और एक दिन वो सारी गलत भावनाएं ....हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी !

@RR - २१ जुलाई - २०१४ 

शब्दों की शक्ती ....


शक्ती स्त्रीलिंग शब्द है और पुरुष कमज़ोर और यहीं से शुरू होती है - शक्ती की चाहत - हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का 'आशीर्वाद / साथ' होता है ! खैर ...शक्ती हर तरह की होती है - मै जिस धर्म को मानता हूँ वहां उन शक्तीओं को मोटे तौर पर 'दुर्गा - लक्ष्मी- सरस्वती' के रूप में दर्शाया गया है - दुनिया बहुत बड़ी है और हर तरह की शक्ती होती है - धन की शक्ती , बाहुबल की शक्ती , ज्ञान की शक्ती ...भावनात्मक शक्ती ...हर तरह की शक्ती ...हर पुरुष की कामना होती है वो किसी ना किसी एक शक्ती से परिपूर्ण हो ...सर्वप्रथम उस शक्ती को ग्रहण करने के लिए आपको खुद को तैयार करना होगा ...फिर उनलोगों के समीप जाना होगा जिनके पास वो शक्ती है ...मसलन आपको धन कमाने की तमन्ना है ...फिर लक्ष्मी पुत्रों के समीप जाना होगा ...वहीँ से आपको प्रेरणा / रास्ता दिखेगा और मदद भी ! अब आपको ज्ञान की शक्ती की चाहत है फिर बेहतर होगा आप अपने विषय के किसी ज्ञानी के पास जाएँ ...वहां ज्ञान प्राप्त करने का एक माहौल मिलेगा - हाँ ..उसके पहले आपको खुद को तैयार करना होगा ...! 
जीवन के हर क्षण एक जैसे नहीं होते - मजबूत से मजबूत इंसान भी एक समय कमज़ोर होता है - वहां उसे भावनात्मक शक्ती की जरुरत होती है - दुनिया का सब भोग रहते हुए भी वो खुद को अन्दर से कमज़ोर पाता है - ऐसे पल में भावनात्मक रूप से मजबूत इंसान उसे मजबूत बना सकता है ...शब्दों में इतनी ताकत होती है की वो सकरात्मक शब्द किसी को भी कहीं से भी खिंच किसी भी शिखर तक पहुंचा सकते हैं ....
धन / ज्ञान / बाहुबल ...कोई भी शक्ती तभी आपको सुशोभित करेगी जब आप भावनात्मक स्तर पर मजबूत होंगे ...वरना वो सब फीका लगता है ...हाँ ...कोई भी शक्ती जब आपको परिपूर्ण करेगी ...वो शक्ती है ...ताकतवर है ...पूर्ण है ....सर्वप्रथम आपके अहंकार को समाप्त करेगी ...:))

@RR - २३ जुलाई - २०१४ 

ओशो का दर्शन ....


बात बहुत पुरानी है - नौवीं दसमी में था - सब कुछ पढ़ रहा था सो रजनीश / ओशो को भी थोडा बहुत पढ़ लिया ! उसके बाद भी जब मौक़ा मिला थोडा बहुत कभी कभार पढ़ लिया करता था - पर ज्यादा नहीं ! अध्यातम और फिलॉसफी में बहुत अंतर हमको नहीं समझ में आता है - और आधुनिक भारत के एक बेहतरीन फिलौस्फार थे - रजनीश ! 
भगवान् बुद्ध और गांधी के बाद - खुद को उसी दर्ज़ा में स्थापित करने कोशिश में ओशो / रजनीश पुरी दुनिया में मशहूर हुए ! पर एक बात समझ में नहीं आयी या मुझे इसकी समझ है - इतना गहरा फिलॉसफी - इतने सारे प्रशंसक - जीवन के सच को खुलेआम कहने की ताकत - फिर भी वो कैसे और कब मायाजाल में फंस खुद का ऐसा अंत करवा लिए - कहाँ चूक हो गयी ! 
अरबों रुपैये के हीरों से जड़ा टोपी / सौ के करीब रोल्स रॉयस - सैकड़ों एकड़ में आश्रम - अमरीका में ज़िंदगी ! फिर भी अपने स्तर से काफी निचे जा कर कुछ ऐसे कार्य जो उनकी सारी फिलॉसफी धो डाली ! 
कहीं न कहीं - चाईल्ड साईंकौलौजी - कुछ कमी का आभास - और सबको पूर्ण का एहसास दिलाने वाले - खुद एक कोने से अपूर्ण से दिखे और उस अपूर्णता को भरने की कोशिश में - कब कदम डगमगा गए और जेल तक जाना पडा ! 
सबके जड़ में है - चाईल्ड साइकौलौजी - बचपन में किसी चीज़ की कमी का एहसास होना - कमी तो हर किसी के बचपन में होती है - राजा का बेटा भी किसी न किसी तरह की कमी में जीता है - पर उस कमी का 'एहसास' होना - यह खतरनाक है ! भगौलिक दुनिया में - यही कमी आपको ऊपर तक भी ले जाती है - पर काफी ऊपर जाकर - वह एहसास - कमी का एहसास - पटाखा वाले रॉकेट की तरह फटता है - जोर से - और सब कुछ वहीँ ख़त्म हो जाता है ! 
और जो खुद अन्दर से अपूर्ण है - वो दूसरों की नब्ज़ पकड़ अपना खेल तो खेल सकता है - पर किसी गैर को पूर्ण नहीं कर सकता !

@RR - 23 July - 2014 

बहुत याद आती हो ....


कभी मिलो तो ऐसे मिलो ...जैसे किसी रेस्तरां में ...अपने जुड़े के क्लिप को दांतों में फंसा ...अपनी हाथों से ...अपने तंग जुल्फों में व्यस्त मिलो ...

कभी मिलो तो ऐसे मिलो ...जैसे मेरी नज़र तुम्हारे उस खुबसूरत पेंडेंट पर अटकी हो ...और तूम अपने उस बड़े टोट बैग में ...अपनी लिपस्टिक को खोजती ...थोड़ी परेशान मिलो ... 
इन छोटी - छोटी उलझनों के बीच ...वो जो तुम्हारा हसीन चेहरा ...थोड़ा तंग दिखता है ...बेफिक्र होकर भी ...थोड़ी फिक्रमंद दिखती हो ....प्यारी लगती हो ... 
वो जो अपने लिपस्टिक - जुड़े का गुस्सा ...अपने लाल टोट बैग में खोये सामान का गुस्सा ...मुझपर निकालती हो ...अच्छी लगती हो ....
हाँ ..उसी रेस्तरां में ...एक प्याली चाय और गर्म पनीर पकौड़े के बीच ...जब तुम्हे शाम के पहले अपने घर लौटने की हडबडी में ..मुझसे ही लिफ्ट मांगती हो ...बहुत याद आती हो ....
~ ............


@RR 

एक कहानी - मेरा भाई ....


एक और कहानी ...:)) 
फूफा जी आते थे - विली के जीप से - भारी भरकम शरीर वाले - बड़ी बड़ी मुछों वाले - जाड़ा के दिन में थ्री पिस सूट और गर्मी के दिन में सिल्क का कुरता - एकदम पसीने से लथपथ - गर्मी के दिन में उनके आते ही - एक बाल्टी शरबत घोला जाता था - रूह आफजा डाल कर ! साथ में उनके ढेर सारे चर चपरासी - सभी शरबत पीते थे ! फूफा जी जोर का ठहाका लगाते थे - फिर आँगन में आते - दादी और माँ से गप्प फिर दरवाजे पर ओसारा पर बाबा और बाबु जी से गप्प - बहुत बड़े इंजिनियर थे - मेरे इलाके में जो नहर खोदी जा रही थी वो उनके ही देख रेख में हो रहा था ! कभी कभी फुआ भी आती थी - मेरे फुफेरे भाई बहन भी आते थे - सुन्दर सुन्दर कपडे और काला जूता और लाल मोज़े के साथ - अंग्रेज़ी में बोलते थे - वो अपने खिलौने अपने साथ लाते - हम सभी मिल कर खेलते - लौटते वक़्त वो अपने खिलौने मुझे देना चाहते थे - मै थूक घोंटते हुए - मना कर देता था - माँ आँगन से इशारा करती - नहीं लेना है - मै उन खिलौनों को बस एक नज़र देख - जोर से दौड़ते हुए आँगन में जाकर माँ से लिपट जाता था ! फिर फुआ आँगन में आती - कुछ रुपैये हाथ में पकड़ा देती - मै मुठ्ठी में जोर से पकड़ लेता था - माँ से नज़रें चुराते हुए ! घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी - पर आज लगता है - नौकरी पेशा वाले परिवार नहीं होने के कारण - रहन सहन में 'चिकनाई' नहीं थी ! 
बाबु जी खिलौने नहीं खरीदते - कभी पास के शहर गए तो उधर से ढेर सारे पत्र पत्रिका खरीद लाते - वही मेरे दोस्त और खिलौने थे - नंदन , पराग ! बाबु जी नौकरी नहीं करते थे - बाबा के इकलौते थे - वो फुआ भी बड़े बाबा की इकलौती बेटी - फूफा जी ससुराल में कोई संपती लेने से मना कर दिए थे - बड़ी इज्जत मिली थी फूफा जी को मेरे पुरे गाँव में ! मेरे बाबु जी डबल एमए थे - अंग्रेज़ी से - पढने का बहुत शौक - दालान के कोने में उनकी अपनी लाईब्रेरी होती थी - बाबा को नहीं पसंद - बाबु जी नौकरी करें - कुछ दिन कर के छोड़ दिए - एकदम चुप रहते थे - मै भी अकेला रह गया - एक बड़ा भाई था - मालूम नहीं क्या हुआ - कोई कहता कोई साधू उठा के ले गया - हम चारों की एक तस्वीर थी - मै माँ के गोद में और भाई बाबु जी के गोद में - स्टील वाले फ्रेम में लगी वो तस्वीर माँ के आलमीरा में रहती थी - बाबु जी उस आलमीरा को कभी नहीं खोलते थे - माँ हर रोज उस आलमीरा को खोलती थी फिर अंचरा से अपने आंसू पोंछ - भंसा घर में व्यस्त ! माँ बाबु जी में बात भी बहुत कम - आज तक दोनों को साथ बैठ हंसते नहीं देखा ! घर में एक सन्नाटा रहता था ! दिक्कत तब होती - जब कोई दूर दराज के संबंधी आते - बातों बातों में भाई की चर्चा होती और वो पल माँ मुझे जोर से पकड़ लेती थी ...आज भी लगता है ...वो लोग ऐसे सवाल क्यों करते थे ....
समय के साथ ..मै बड़ा होते गया ....मेरा इंजीनियरिंग में हो गया - सिविल ब्रांच नहीं मिला - बाबा बोले - जीप वाला इंजिनियर नहीं बनेगा - मै जोर से हंसा था - बाबा ..जमाना बदल गया है ! 
मै उस फोटो को लेकर होस्टल आया था - बस एक दोस्त को बताया - बाबु जी के गोद में कौन है - फिर शायद पुरे होस्टल को पता चल गया था - कोई दोस्त मुझसे कोई सवाल नहीं पूछता था -कोई मेरे भाई का नाम भी नहीं पूछता था - मै बस पढता था - कोई गलत आदत नहीं - ईश्वर और अध्यात्म को महसूस करने लगा था - शायद जीवन में कोई कमी लगती थी - तभी तो अध्यात्म आता है - एक रोज बहुत मन किया हरिद्वार भाग जाऊं - अगले दिन सुबह निकलने का तैयारी कर लिया था - बिना किसी को बताये - और उसी शाम बाबु जी आ टपके - वो शाम अजीब थी - एक शाम से अगली सुबह बाबु जी संसार और सांसारिक भोग की बातें बताते रहे - एकदम करीबी दोस्त की तरह - लगा ईश्वर ने ही उनको अचानक यहाँ मेरे पास भेज दिया है - मैंने बाबु जी का यह रूप कभी कल्पना भी नहीं किया था -हर पल सीने से सटाए रहने वाले बाबु जी इस ज़िंदगी की दौड़ में दौड़ने को उकसा रहे थे - अगली सुबह वो प्रोफ़ेसर माथुर साहब के यहाँ ले गए - माथुर साहब के यहाँ दो घंटे सिर्फ टेक्नोलॉजी की बात - अमरीका की बात - माथुर साहब कहने लगे - कृष्ण के तीन रूप - बाल रूप / प्रेमी रूप और कर्म रूप - क्यों न इस कर्म रूप को अपनाया जाय - फिर वो प्रोजेक्टर पर मेरे क्षेत्र में हो रहे तरह तरह की विकास दिखाने लगे - अंत में एक लाईन कहे - शायद तूम समाज को कुछ देकर - ईश्वर को ज्यादा खुश कर सकते हो - कुछ भी कर लों ...तुम्हारा खोया हुआ भाई वापस नहीं आएगा और जब उसे आना होगा - कोई रोक भी नहीं सकता ....
ज़िंदगी बदल गयी - कुछ दिन नौकरी कर के - अपना व्यापार शुरू किया - टेक्नोलॉजी में - माँ बाबु जी को पहली बार हंसते हुए देखा - जब मेरा प्रथम बेटा हुआ - बाबु जी बड़ी हिम्मत से उसका नाम फिर से रखा ..." दक्षिणेश्वर " - मेरे भाई का नाम - ऐसे जैसे ईश्वर ने उसे लौटा दिया .....
आज मेरी कंपनी का नाम भी - "दक्षिणेश्वर टेक्नोलॉजी" है - सभी मित्र समझते हैं - मेरे बेटे के नाम पर है कंपनी का नाम - पर वो मेरा भाई है ................दक्षिणेश्वर - दक्षिण का ईश्वर - बाबु जी ने बड़े प्यार से भाई का नाम रखा था .....मेरा भाई ....

@RR - ५ मई - २०१४