Thursday, November 6, 2014

सोच .....


लिखने से पहले ..मै यह मान के चल रहा हूँ ...मेरी तरह आप भी किसी स्कूल - कॉलेज में पढ़े होंगे - जैसी आपकी चाह और मेरिट या परिस्थिती ! अब जरा अपने उस 'क्लास रूम' को याद कीजिए - चालीस से लेकर सौ तक का झुण्ड - कुछ सीनियर / जूनियर को भी याद कर लीजिये ! "एक क्लासरूम में लगभग एक ही मेरिट के विद्यार्थी - पर सबका मकसद अलग अलग ..:)) " 
किसी को पढने में मन लगता है तो वह अपने मन लगाने के लिए पढ़ रहा है - किसी के खानदान में सभी पढ़े लिखे हैं - इसलिए वो पढने आ गया - नहीं पढ़ेगा तो लोग क्या कहेंगे - किसी को पढ़ लिख के नौकरी पकड़ना है - इसलिए वो पढ़ रहा है - कोई अपने परिवार का प्रथम जो ग्रेज्युएट होने जा रहा - इसलिए वो भी है - किसी को टॉप करना है तो वो प्रथम बेंच पर बैठा हुआ है - कोई ज्ञान के लिए पढ़ रहा है - भले पास करे या फेल -कोई मेरी तरह भी-नहीं पढ़ेगा तो बढ़िया कुल खानदान में बियाह नहीं होगा टाईप  
मेरिट एक - वातावरण एक - बस मकसद / सोच अलग अलग - पुरी ज़िंदगी की दिशा और दशा ही बदल गयी - वही पढ़ाई पढ़ के कोई कम्युनिस्ट का नेता बन गया तो कोई टाटा संस में वाईस प्रेसिडेंट ( विनोद मिश्र और गोपालकृष्णन दोनों आईआईटी - खड़गपुर से सत्तर के दसक में साथ साथ पढ़े ) ! कई बार वो मकसद / सोच जिन्दगी के बीच राह में बदल भी जाती है ! एक बहुत ही करीबी मित्र से यूँ ही गप्प हो रही थी - बहुत ही बढ़िया कूल खानदान का और विश्वस्तरीय स्कूल कॉलेज से पढ़ाई - कहने लगा 'शौक' के लिए पढ़ा - पढ़ते वक़्त कभी लगा ही नहीं - पैसा भी कमाना लक्ष्य है - जिस प्रथम दिन नौकरी के लिए जाना था - बाथरूम में फूट - फूट कर रोया ! 
अपने जीवन की एक छोटे हिस्से की बात बताता हूँ - बंगलौर में नौकरी करता था - यह पता था - आज नहीं तो कल वापस लौटना है - और जब लौटना ही है - फिर क्यों न वह ज़िंदगी जी लो - जो शायद पटना में नहीं मिले - सुबह कंपनी - दोपहर कर्नाटका सेक्रेटेरियेट में भोजन - शाम एमजी रोड - और वीकएंड सुबह इंडियन कॉफ़ी हॉउस में डोसा ..जी भर जिया ...आज से 18-19 साल पहले - जितनी मेरी क्षमता उससे बड़ी ज़िंदगी मैंने जी - उस हद तक जी की अब कोई प्यास नहीं ! मकसद ही अलग था ! दिल्ली गया - पिता जी का दबाब - फिर से नौकरी करो - जब वहां गया - एक ही महिना में खुद के लिए फ़्लैट खोजने लगा - बीआईटी - मेसरा की बढ़िया नौकरी छोड़ दी - लगा वापस रांची चला गया - दिल्ली या आसपास अपना फ़्लैट नहीं हो पायेगा - चाईल्ड साइकोलोजी - बड़े लोगों का महानगर में अपना फ़्लैट होता है ! जिस साल रजिस्ट्री करवाया - दिल्ली से आधा मोहभंग - और जिस दिन लोन चुकता किया - पूरा मोहभंग - मकसद ही अलग था - कभी किसी को यह नहीं बताया - मै नॉएडा के एक बेहतरीन कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ - मकसद प्रोफ़ेसर बनना था ही नहीं ! 
कौन गलत है और कौन सही है - कहना मुश्किल है ! दरअसल हम इतनी छोटी दुनिया से आते हैं और अपने हाथ में एक सामाजिक स्केल लेकर बैठ जाते हैं और उसी स्केल से हर किसी को नापने लगते हैं ..
उसी पद पर बैठ - लालू / राबडी ने सामाजिक न्याय का रथ चलाया - उसी पद पर बैठ नितीश विकास की बात सोचे - उसी पद पर बैठ वर्तमान मुख्यमंत्री अलग बात कह रहे हैं - सबका मकसद अलग अलग - कल कोई और आएगा - उसका मकसद अलग होगा ! 
और यह मकसद - उसके आंतरिक व्यक्तित्व से निकलता है ...:)) 

मुझे ऐसा लगता है - ज़िंदगी या किसी भी अन्य चीज़ के लिए 'सोच' के तीन आधार है - १) ईश्वरीय देन २) परिवेश / खून ३) वर्तमान - अब इन तीनो में जो कुछ आपके उस सोच पर हावी होगा - वैसे ही आपके एक्शन या प्लान होंगे ! 
यह ईश्वरीय देन है जिसके कारण एक ही परिवेश / एक ही कोख से जन्मे / एक ही वर्तमान में जी रहे 
दो लोग ज़िंदगी के प्रती अलग अलग सोच रखते हैं या अपना मकसद बनाते हैं ! हर एक इंसान को ईश्वर एक अलग सोच देकर इस धरती पर भेजता है ! उस सोच को आप बदल नहीं सकते - अगर आपको लगता है - आपकी कोई एक ख़ास सोच गलत है - फिर उसको बदलने के लिए बहुत ही कठोर साधना की जरुरत होती है - जिसे हम मन का निर्मलता भी कह सकते हैं ! जैसे अलग अलग जानवर अपनी अलग अलग विशेषता के लिए जाने जाते हैं - ठीक वैसे ही इंसान भी है - अब ईश्वर ने आपकी सोच भेड़िया वाला बना के भेजा है फिर आप शेर की तरह वर्ताव नहीं कर सकते - ईश्वर ने आपका दिल चूहा वाला दिया है - फिर आप हमेशा एक डर में जियेंगे - यह कोई समाज या परिवेश नहीं बदल सकता है - यह इंसान अपनी असीम 'विल पावर' से बदल सकता है - इसी तरह सकरात्मक सोच भी होते हैं - जिसका फायदा इंसान अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक उठाता है ! 
दूसरा महत्वपूर्ण है - परिवेश - आप किस परिवेश में पले बढे हैं - मेरी बड़ी दादी कहती हैं - आदमी कहीं भी चला जाए - जहाँ का जन्मा होता है वह उसके साथ हमेशा रहता है ! मेरे एक दोस्त है - काफी वर्षों से बाहर ही सेटल है - बचपन का नहीं पर बचपन जैसा ही है - जब कभी पटना आएगा - मै फोन करूंगा - मुलाक़ात होगी ? उधर से जबाब - गाँव जा रहा हूँ - बेटी को बकरी / देसी गाय का दर्शन करवाना है - उसके पिता भी भारत सरकार से रिटायर है - किताबों के जबरदस्त शौक़ीन - घर में ट्रंक के ट्रंक किताब - एक दिन पूछा - तुम्हारे ..पापा का क्या हाल है ...दोस्त का जबाब आया ...गाँव गए हुए हैं ..तोडी / सरसों तुडवाने ...:)) अब सोचिये ...एक इंसान प्रिंस स्टाईल जीवन ...खेतों में घुसा हुआ - यह परिवेश ..खून का असर है ...मै जिस समाज से आता हूँ - वहां का लड़का हारवार्ड में भी टॉप करके - अगर बिहार आया तो वो एक नज़र अपने खेतों को जरुर देखना चाहेगा - अगर नहीं देख पाया तो उसका हिसाब किताब जरुर लेना चाहेगा ...:)) 
जीवन के सोच को लेकर - परिवेश का बहुत महत्व है - कई बार मै उस तरह के इंसान से बहुत नजदीक हो जाता हूँ - जिसका परिवेश / लालन पालन मुझ जैसा हुआ हो - जिसको हम 'बेसिक क्लास' कहते हैं - आप कहीं भी चले जाएँ - आपका बेसिक क्लास क्या है - वही क्लास आपके संबंधों को मधुर या ज़िंदा रखेगा और इस बेसिक क्लास का आपके वर्तमान वैभव से / वर्तमान कठिनाई इत्यादी से कुछ नहीं लेना देना होता है ! 
एक और अनालौजी देना चाहूंगा - मै जब नॉएडा में पढ़ाने लगा तो देखा एक क्लास में तीन तरह के विद्यार्थी हैं - प्रथम जो दिल्ली या आस पास के हैं - दूसरी या तीसरी पीढी दिल्ली में सेटल है - दुसरे लखनऊ या आस पास बड़े शहर से हैं और तीसरे जो पूर्वी हैं ! अब तीनो ग्रुप एक ही क्लास - एक ही शिक्षक - एक ही सिलेबस - पर तीनो ग्रुप का जीवन के लिए अलग अलग गोल ! पहला ग्रुप - सेकेण्ड ईयर से ही अमरीका / यूरोप के बेहतरीन कॉलेज में पीजी में एडमिशन के लिए तैयारी - लखनऊ या आस पास बड़े शहर वाले - किसी मल्टीनेशनल में किसी तरह से नौकरी हो जाए - मिल गया - शर्ट का दो बटन खोल कैपस में घूम रहा ! तीसरा पूर्वी वाला - पब्लिक सेक्टर / सरकारी नौकरी के लिए बेचैन - हर बार समझाया - यार ..मेरिट है ...फुल स्कॉलरशिप मिल जायेगी - जीआरआई दो - अब वो ऐसे परिवेश से आते थे - उनकी हिम्मत नहीं हो पाती - अब अगर उनको कैम्पस में किसी मल्टीनेशनल में नौकरी मिल गयी - वो उदास है - क्यों भाई ..क्यों उदास हो ...पिता जी को क्या बोलेंगे ...नौकरी सरकारी थोड़े न है ...हा हा हा हां ....:)) 
आपका परिवेश ...आपका जड़ ..आपकी सोच को किस हद तक प्रभावित करता है ...कभी सोचियेगा . 

मैंने बहुत पहले दालान ब्लॉग पर लिखा था - आखिर वो कैसी घड़ी रही होगी - जब एक बैरिस्टर 'मोहन दास करम चंद् गांधी' को "महात्मा गांधी" बनने को मजबूर किया ! ट्रेन से सामान फेंकने की घटना तो न जाने कितने और अश्वेत के साथ भी हुई होगी - पर सब के सब तो महात्मा गांधी नहीं बन पाए ! 
वाल्मीकि / गौतम बुद्ध / गैलेलियो / अरिस्टो / प्लेटो / महात्मा गांधी और वो सभी जो काल की सीमा तोड़ अपनी पहचान बना सके - सबके के उस वर्तमान जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना जरुर हुई जो उनकी पुरी दिशा बदल दी ! पर असल सवाल यह उठता है - ऐसी घटना तो बहुतों के जीवन में भी होता आया होगा या है - सब तो वो नहीं बन पाते ! 
अब अगर मै एक आधी रात उठ - सत्य की तलाश में - घर छोड़ निकल जाऊं - क्या मै भी गौतम बुद्ध बन सकता हूँ ? ...:)) क्या मै भी हजारों साल तक ज़िंदा रह सकता हूँ ?...:)) 
फिर वो क्या चीज़ है ..जो इनको महान बनाया ! इस बात पर एक मित्र से बात किया - उसने कहा जो मेरा भी मानना है - जिज्ञासा ! आपके अन्दर कितनी जिज्ञासा है और वो कैसी जिज्ञासा है ! सेब तो किसी के भी माथे पर गिर सकता है - पर वो सेब नीचे ही क्यों गिरा - यह एक जिज्ञासा न्यूटन को अमर कर दिया ! ट्रेन से सामान कितनो का फेंका गया - पर ऐसा क्यों - महात्मा गांधी बना दिया ! हर कोई पाप करता है - अपने परिवार के भरण पोषण के लिए - कोई अंगुलीमाल डाकू से ऋषी नहीं बन पाया ! 
कोई एक घटना - मामूली ही - इतने जोर से अन्दर धक्का देती है - जैसे ज्ञान का फव्वारा खुल पड़ता है - पर याद रहे - जैसे - एक बंद पाईप से पानी बह रहा है - और आप उस पाईप को कहीं से छेद कर दे या काट दें - फव्वारा वहीँ से खुल जाएगा - शर्त है ...उस पाईप के अन्दर पानी बहता होना चाहिए .....:)) 
हाँ ...जिसके अन्दर वो जिज्ञासा शुरू से होती है ...उसी को कोई घटना ...उसकी समझ खोल सकती है ...अगर जिज्ञासा नहीं है ...फिर बड़ी से बड़ी घटना भी जीवन के छोटे से रहस्य को खोल नहीं सकती ...
थैंक्स ....:))) 
~ रंजन ऋतुराज

@RR

Thursday, October 30, 2014

धन के रूप ...:))


हास्य/ व्यंग्य : 
मैंने बहुत पहले लिखा था - धन भी कभी काला - गोरा हुआ है ..भला ? धन ..धन होता है ! पर रंग भेदिओं ने "माँ लक्ष्मी" को भी काली के रंग में रंग दिया है  
आपकी क्षमता कम है - आप ग्रामीण बैंक में पैसा जमा करते है - किसी की क्षमता ज्यादा है - वो पंजाब नेशनल बैंक में पैसा जमा करता है - कोई सोफिसटिकेटेड है वो एचएसबीसी में जमा करता है - अब इसमे हंगामा का क्या बात है ? सबको पेर के रख दिए हैं  
किसी का धनिक होना भी बर्दास्त करना सीखिए ! मारिये ...वो सब ...एक बात सच सच बोलिए ...आप जिस कंपनी में काम करते हैं - क्या उसमे लक्ष्मी का काली रूप नहीं लगा हुआ है ? या आप अफसर है तो आपके दफ्तर में लक्ष्मी पुत्र आता है तब आप उठ के उसका अभिवादन नहीं करते हैं ? या आप नेता हैं तो धनिक लोग आपके पास बैठें इसकी तमन्ना आपमे नहीं रहती है ? 
सब के जड़ में है - चाईल्ड साइकोलॉजी - पढोगे लिखोगे - बनोगे नबाब - बस दे रट मारे विद्या को - बड़ा हुए तो ना खराब बन पाए ना ही नबाब - बीचबिचवा बन के रह गए - अब फ्रस्टेशन उसपर निकाल रहे हैं जो बड़ा बड़ा रिस्क लेकर लक्ष्मी के सब रूप का आनंद उठा रहा है - अब टेंशन में सरकार के पीछे पड़ गए  रोज भोरे भोरे अपना पासबुक देखना भी आनंद है - अब अपना पासबुक तो है नहीं तो दुसरे के पासबुक में कितना माल है - उसके चक्कर में गला फाड़ फाड़ के हंगामा किये हुए हैं ! मनुष्य स्वभाव से ही जलनशील होता है ! 
बचपन में जो सगे संबंधी बढ़िया कपड़ा लत्ता / गाडी घोडा से आये - उनको चार बार झुक के प्रणाम - घर में भी वही सिखाया गया - पढोगे तो वैसा बन जाओगे - तब क्यों नहीं सिखाया गया - पढने का मतलब विद्या - परीक्षा नहीं - धन नहीं ! अब बाज़ार में आये तो देखे - सब विद्या एक तरफ और बाज़ार का रौनक एक तरफ और ये रौनक बिना धन के आ ही नहीं सकता ! 
एक और बात बताईये - बिना टैक्स चोरी किये हुए कोई बिजनेस हो सकता है - सच सच दिल पर हाथ रख के बोलिए - गला फाड़ कम्पटीशन में प्रॉफिट कैसे बनेगा ? अगर आप कोरपोरेट में बडका मैनेजर हैं - फिर बिना टैक्स वाला 'पर्क्स' की तमन्ना क्यों करते हैं - बेसिक सैलरी दस हज़ार और टोटल सैलरी दो लाख - अजीब हाल है - बिना टैक्स वाला सैलरी लेते वक़्त - देश / समाज नहीं याद आता है ? 
पुरे विश्व में आर्थीक मंदी आया - लक्ष्मी अपने काले रूप में भारत को बचा ली - ये मै नहीं कह रहा - बड़े बड़े इकोनोमिस्ट लोग कहते हैं ...
लक्ष्मी के दोनों रूप का आनंद लीजिये - थोडा काला थोडा गोरा ...:)) रंगभेदी मत बनिए - यह जुल्म है ...:))

@RR

Wednesday, October 29, 2014

छठ - २०१४


प्लस टू के बाद से ही घर से दूर था - बीच में एक दो साल पटना ! दक्षिण भारत में पढ़ते वक़्त - नौकरी करते वक़्त .... छठ आया - गया - बहुत नहीं अखरता था ! पर जब से "नॉएडा" गया - छठ अखरने लगा ! कई वजहें थी - कई बिहारी परिवार का आस पास होना - और खुद के घर छठ नहीं होना - और टीवी पर सीधा प्रसारण - खुद को एकदम 'बिलल्ला' - जिसका कोई वजूद नहीं - वाला फीलिंग एकदम से जकड लेता था ! 
आज 'खरना' के दिन ..ऐसा लगता था ..पड़ोस में किसी के दरवाजे पर संकुचा के खड़े होना - फिर आज के परसाद को हाथों में लेकर वापस अपने घर - बस यही कुछ रह गया था ! फिर एक स्कूल के दोस्त और साथ में काम करने वाले - अभय के घर जाने लगा - वहां उनकी माँ छठ करती थी - वहीँ शरीक होने लगा - तिरहुत के महीन हैं - कभी यह फील नहीं होने दिए - मै गैर हूँ ! कई बार ऐसा लगा - जैसे मै खुद के परिवार में हूँ ! पर जब उनके यहाँ से अपने घर लौटता - बिहार / पटना / गाँव / दादी सब जोर से याद आने लगते ! थक हार कर यही लैपटॉप और ब्लॉग ! घर से दूर - यह पर्व बहुत अखर जाता है - खासकर संझिया अरग वाले दिन ! हर घर - परिवार में मनाया जाने वाला पर्व - जब खुद के घर में - किसी कारणवश नहीं मनाया जा रहा हो - बहुत अखरता है ! 
बड़ा ही शुद्ध और पवित्र पर्व है - और जहाँ शुद्धता और पवित्रता होती हैं वहीं भावनाओं का सैलाब भी आता है - शायद इसीलिए इस पर्व में हर एक बिहारी और खासकर मेरी पीढी - एकदम से भावनाओं में घुस गोते लगाना शुरू कर देती है !

आज संझिया अरग है ! पूरा का पूरा बिहार 'छठमय' हो चुका है ! 'आस्था' अपने चरम सीमा पर है ! क्या मिश्र जी तो क्या राम जी - क्या अफसर तो क्या चपरासी - क्या डाक्टर तो क्या कंपाऊंडर - क्या मालिक तो क्या नौकर - सबके सब एक साथ उस डूबते सूर्य को अपना प्रणाम कहेंगे / अरग देंगे और कल सुबह उस उगते सूरज को - हल्की ठण्ड में ! 
" ना कोई मंत्रोचारण होगा और ना ही कोई पंडित दक्षिणा मांगेगा " - ना कोई छुआछात होगा और ना खुद को बड़ा समझने का घमंड होगा ! ईश्वर / प्रकृती से इंसान का सीधा सपर्क होगा - यही शुद्धता है - यही पवित्रता है ! कोई वाया / मार्फ़त नहीं ! 
धर्म / जाति / उंच - नीच / गरीब - अमीर ...न जाने कितने बंधन एक साथ टूट जाते हैं - जिस समाज ने इन बंधनों को बनाया - ऐसी दीवारें खड़ी की - वही समाज आज के दिन इन दीवारों को तोड़ता है - समाज के सबसे निर्बल के यहाँ से आये 'सूप' में ही हम अपनी पवित्रता सौंप उस सूर्य को नमन करते है - जिसे शक्ती का सबसे बड़ा श्रोत कहा जाता है ! 
आज शाम अजब नज़ारा होगा - गाँव के पगडंडी पर - एक साथ सैकड़ों लोग - उत्साह / उल्लास / श्रधा / शुद्धता / पवित्रता / आस्था और न जाने कितनी अन्य भावनाओं को अपने अन्दर समाहित किये हुए - खाली पैर - महिलायें 'अलता' लगाए हुए :)) - और यह नज़ारा बिहार के हर एक गाँव का होगा - यह नज़ारा बिहार के हर एक शहर का होगा - हर एक मोहल्ला का होगा - हर एक इंसान का होगा ! 
हज़ारों साल से चली आ रही परंपरा को आप/हम क्षणभर में समाप्त नहीं कर सकते और जो संस्कार हमारे खून में है उसे हम आपको पलभर में समझा भी नहीं सकते ...:)) 
विश्व के कोने - कोने में फैले - समस्त बिहारीओं को ....विश्व के सबसे पवित्र पूजा की शुभकामनाएं ....!!! 

चिंकू , मिंकू , पप्पू , गुड्डू , पुत्तु , मिंकी , टिंकी ..सब के सब के तैयार हो चुके हैं ! मिंकी और टिंकी की मम्मी खूब जोर से ललका रिबन बाँध दी है ! पप्पू और गुड्डू बार बार उसका रिबन छू दे रहे हैं और वो रोने लग रही है ! कनिया चाची का सैंडिल भुला गया है - साड़ी के मैचिंग का सैन्डील था - बंगलौर से आया था ! झुल्ला भैया भी आये हैं ! पूरा गाँव उनको झुल्ला ही कहता है - अमरीका गए थे पढने - ओनही से किसी 'मद्रासीन' से बिहाय कर लिए ! तीन दिन से पुरे गाँव की महिलायें झुल्ला भैया के भाभी को देखने आ रहीं है - वो भी बार बार जींस में दुआर /दुरा पर निकल जा रही हैं - झुल्ला भैया - कुछ कुछ अंग्रेज़ी में गिटिर पिटिर बोलते हैं - दिस इज बिहार नोट योर शिकागो ! फिर जब कोई उनकी वाईफ को 'मद्रासीन' कह दे रहा है - वो बार बार एक ही किस्सा - ये लोग बंगलौर का है - रूट बंगलौर में है - मद्रास का नहीं ! बडका चाचा का छोटका - जिसको हम लोग छोटू कहते हैं - धीरे से बोल गया - "झुल्ला भैया पूरा ससुराली हो गए हैं  - तीन दिन से खाली बंगलौर के ससुराल का किस्सा सुना सुना के पका दिए हैं ! " झुल्ला भैया अमरीका से वालमार्ट से डिस्काउंट वाला 'डीओ' खरीद के पूरा गाँव में बाँट दिए हैं - आज पूरा गाँव वही स्प्रे करेगा ! छोटू फिर एक टोंट कस दिया - अमरीका में ई सब 'बिगायील' रहता है - वही 'बिगायील' सामान सबको बाँट रहे हैं ! झुल्ला भैया पूरा फायर हैं . 
कनिया चाची का गोल्डन सैंडिल मिल गया ! भोलू चाचा को चैन आया :D
बाबा गुस्सा गए हैं - कह रहे हैं - टाईम हो रहा है - अब धीरे धीरे घाट पर निकलना चाहिए - माई सूती के साड़ी में एकदम पवित्र लग रही है ....दौरा में सब सामान रखा गया है ....झुल्ला भैया माथा पर दौरा उठाएंगे ....छोटू हाथ लगा दिया ....झुल्ला भैया गमछी से बार बार अपने आंसू पोंछ रहे हैं ...कहने लगे ...पढ़ते थे ...तभी सोचे थे ...जब अपना कंपनी हो जायेगा ...माथा पर दौरा उठाएंगे ...
@RR

Monday, October 27, 2014

छठ ...नहाय - खाय / नहा - खा ...


आज 'नहा - खा' / 'नहाय - खाय' है ! छठव्रती कद्दू की सब्जी , अरवा चावल , चना का दाल और साथ में सारा परिवार - मुझे नहीं लगता पुरे साल इससे भी ज्यादा पवित्र भोजन किसी और दिन मिलता होगा - जैसे सूर्य ने उसमे अपनी शुद्धता मिला दी हो ! सूर्य अग्नी के द्योतक है और अग्नी से शुद्ध और पवित्र कुछ भी नहीं ...कुछ भी नहीं ! 
पुराण में क्या लिखा और शास्त्र में क्या लिखा है - ये सब हमको नहीं पता ! हमको बस यही पता है - छठ मेरा संस्कार है - मेरी सभ्यता है - मेरे खून में है - और यह पर्व मेरे ह्रदय में बसता है ! 
आस्था से बड़ी चीज़ कुछ नहीं - जो आज डूबेगा वही कल उदयमान होगा और यही प्रकृती है - यही मेरा छठ है ! जहाँ 'शुद्धता' है वहीँ पवित्रता है ! जहाँ प्रकृती है वहीँ ईश्वर भी हैं ! 
चार दिनों तक चलने वाला - आस्था और पवित्रता के इस पर्व में - आप सभी की आत्मा / शरीर / मन / ह्रदय / दिमाग - सब के सब पवित्र रहें - आप विश्व के किसी भी कोने में रहें - यह संस्कार आपके अन्दर विद्यमान रहे ! 
~ रंजन ऋतुराज
@RR

Tuesday, October 21, 2014

बुलंद प्रजातंत्र


पिछले साल नौकरी छोड़ने के ठीक बाद - दालान पर दो ख़त अलग अलग दिल्ली और आस पास से छपने वाले प्रमुख समाचार पत्र से आये - हमारे अखबार के लिए लिखिए - मालूम नहीं क्या सोच - मै चुप रह गया ! बात आयी गयी हो गयी - पटना से भी हिंदी के कई समाचार पत्र छपते है - लोगों ने कहा - संपादक से बात करो - कहीं कोई मिल जाए - छपने का - फिर मै चुप रह गया - वैसे ही एक अजीबोगरीब 'बैगेज' लेकर चलता हूँ - अब इस उम्र में कौन किसी समाचारपत्र के दफ्तर का चक्कर लगाए  
नीरज दा दिल्ली में रहते हैं - मुजफ्फरपुर के रहने वाले और शायद मेरी लेखनी को पसंद भी करते हैं - पेशे से प्रिंट मिडिया में हैं - जब तब जहाँ तहां मेरी बातों को चुपके से छाप देते हैं ...:)) कुछ दिन पहले उनका मैसेज आया - आपको रेगुलर कॉलम में छापना चाहते हैं - हमने बोला - फेसबुक / ब्लागस्पाट से जो कुछ मिले - छाप दीजिये - पर मुझे ही क्यों ? एक से एक बड़े भाषाविद और पत्रकार हैं - हंसने लगे - बोले सभी "रंजन ऋतुराज" थोड़े न हैं ..:)) बात आई गयी हो गयी ...पटना बाज़ार घूम के आया तो देखा - उनका समाचार पत्र जो पाक्षिक है - उसकी एक कॉपी मुझे कुरियर की गयी है - "बुलंद प्रजातंत्र " - सेंटर पेज में मेरे लिखे हुए को बगैर सम्पादन ..डॉट्स के साथ ..छाप दिए हैं ! उनको फ़ोन लगाया - हमने बोला - कुछ तो सम्पादन कर दिए होते - बोले - आपका लिखा इतना ओरिजिनल होता है - शुद्ध होता है - छेड़खानी की हिम्मत नहीं ! प्रसंशा जब मिल रही हो - झुक कर ग्रहण करना चाहिए ..:)) 
इनका अखबार "बुलंद प्रजातंत्र " किसी चर्च के द्वारा संचालित है - पुरे भारत में लगभग दस हज़ार प्रिंट होता है ! 
अखबार में नाम की लालसा नहीं है - हिंदी के सबसे प्रमुख "हिन्दुस्तान" ने तो पहले पन्ने पर दो बार नाम छापा है - एक बार किसी को "उड़ा" देने की धमकी की कहानी और दूसरी बार "दालान" के लिए ...:)) 
फिर भी ....अखबार में नाम ..किसे बढ़िया नहीं लगता है ...वो भी अगर बिना किसी प्रयास के हो ...:)) 
ये दुनिया भी अजीब है ....जिस छवी को आप पेश करेंगे ...उसी छवी की दिवानी हो जाती है ...:))
थैंक्स ...!!!

@RR - 21 October 2014 

Monday, October 20, 2014

इतवार का दिन .....


मुझे चिढ है - वैसे लोगों से - जो इतवार से भी अन्य दिनों की तरह पेश आते हैं ! सुबह सुबह जग जाना - अन्य दिनों की भांती जल्द नहा धो लेना  अजीब हाल है ! 
भाई इतवार बोले तो - देर से जागना - ढेर सारे अखबार पढ़ना - तीन चार बार चाय ! घर से दूर हों तो भाई बहन / माता पिता से बात चीत कीजिए - बात मत कीजिए - गप्प कीजिए - किसी नजदीकी / दूर के सगे संबंधी की परनिंदा कीजिए - परनिंदा कर के अपने मन को आनंदित कीजिए ! कार्तिक / सावन नहीं मानते हैं तो मटन / शटन का आनंद लीजिये ! भुन्जाते - भुन्जाते में आधा किलो मटन पेट के अन्दर ! अडोस - पड़ोस में कोई 'झप्पू भैया / चिम्पू' जैसा कलाकार हो फिर उसको चौक पर बुला कर गप्प कीजिए - "मोदी जीता / भाजपा हारा " टाईप गप्प - तब तक ऐसे गप्प कीजिए - जब तब आपस में 'माई - बहिन' ना हो जाए ! उसके बाद वो अपने घर - आप अपने घर ! 
गीज़र ख़राब है का बहाना कीजिए और नहाने का कार्यक्रम शाम तक टाल दिजीये ! चार बार सीसा में अपने पकते / सफ़ेद दाढ़ी को देखिये - मुह बना बना के सीसा देखिये ! 
बिछावन का कोना पकड़ लीजिये - पलंग पर ओठंग के लैप पर आईपैड / लैपटॉप खोल के फेसबुक की बकवास दुनिया में तब तक घुसे रहिये - जब तक वोमिटिंग न हो जाए ! दोस्त के दोस्त के दोस्त के दोस्त के दोस्त के दोस्त के प्रोफाईल में ...मालूम नहीं क्या खोजते रहिये ! शाम हो जाए - हेडेक धर ले - बडका तसला में गुनगुना पानी कीजिए - बडका बाल्टी में उसको डालिए - हाथ घुसा के पानी को हिलायिये - तब तक पानी फिर से ठंडा न हो जाए - फिर से किचेन में जा कर वही तसला से पानी गरम कीजिए - इस बीच घर के अन्य सदस्यों से मिल रहे 'श्लोक' को नज़रंदाज़ कीजिए ! फिर ऐसे ही शाम हो जायेगी - और सोमवार की चिंता में - किसी से लड़ / झगड़ के - इतवार का पुर्णाहुती कीजिए ! 
कहने का मतलब ....
जीवन में थोडा आलस भी होना चाहिए - जिसने आलस का लुफ्त नहीं उठाया - आलस के चक्कर में कुछ नहीं खोया - उसे क्या मालूम - आलस किस बला की चीज़ है ! 
@RR - 19 October - 2014 

Tuesday, October 14, 2014

पवित्र भावना ....


घर में भोज भात होता आया है - भोज में घी भी परोसा जाता है - जिसे कई जगह / इलाके में "पवित्र" कहा जाता है ! आपने एक ध्यान दिया होगा - घी को बहुत ही बढ़िया या सबसे बढ़िया पात्र में रखा जाता है - याद कीजिए ...कोई फुलहा / कांसा का सबसे साफ़ कटोरा इत्यादी में ! 
जीवन भी उसी तरह है - किसी भी पवित्र भावना को ग्रहण करने के लिए हमें खुद को पवित्र बनाना होता है - आप अपवित्रता के साथ पवित्र भावना की तमन्ना नहीं रख सकते - खुद को पवित्र करना - यह प्रक्रिया आसान नहीं होती - थोड़ी ही नहीं बहुत मुश्किल है क्योंकी इंसान के साथ उसका सबसे चंचल "मन" भी जुड़ा होता है और मन जितना चंचल उतना ही अपवित्र - फिर वो पवित्र भावना को अपने अन्दर समाहित नहीं कर सकता ! एकांत में कोई भी योगी बन सकता है - बीच बाज़ार में योगी बन के दिखाओ तो जाने ....:)) और पूजा किसी भी व्यक्तित्व की होती है - उसके रूप / पद की नहीं ....:))


@RR - 14 October - 2014 

Sunday, October 12, 2014

नकाब / मेकअप ....पार्ट - टू


नकाब की जरुरत किसको होती है ?? शेर को या सियार को ?? हा हा हा ...कभी किसी शेर को नकाब पहनते देखा है ?? नहीं ..न ! सियार नकाब पहनते हैं .....शेर जैसा दिखने के लिए ...! " दरअसल नकाब वही पहनता है जो खुद के अन्दर कोई कमी देखता है " - वह कमी उसको कुंठीत कर देती है - फिर उस बेचैनी से बाहर आने के लिए वो नकाब पहन और बेचैन हो जाता है ! आप इस धरती पर सब कुछ बदल सकते हैं - पर जब ईश्वर ने आपको भेड़िया / सियार बना के भेजा है - आप भेड़िया / सियार ही रहिएगा ! मूल स्वभाव / आंतरिक स्वभाव इतना जल्द नहीं बदलता - यह एक कठोर साधना है ! 
बचपन में एक कहानी पढ़े थे - सियार नील के रंग में डूब जाता है फिर दुसरे जानवर उसको शेर समझने लगते हैं - फिर एक दिन ...वो पकड़ा जाता है ! 
अब आप भेड़िया हैं तो भेड़िया ही रहिये - समाज को हरवक़्त शेर की जरुरत नहीं होती - कभी कभी भेडिये की भी जरुरत होती है ! कब तक अपना नकाब 'होल्ड' कर के रखियेगा - एक दिन वो गिरेगा ही गिरेगा - भगवान् भी उस नकाब को गिरने से नहीं रोक सकते ! 
सबसे बढ़िया है - अपने मूल स्वभाव के इर्द - गिर्द ही रहिये - सबको सब कुछ नहीं मिलता - आपको भी बहुत कुछ नहीं मिलेगा - जो हाथ में है उसको सुरक्षित रखिये - वरना नकाब को जोर से पकड़ने के चक्कर में - जो हाथ में है वो भी फिसल जाएगा ! 
नकाब का उतर जाना ही धोखा कहलाता है ! आप में से कई लोग होस्टल में रहे होंगे - पैसे ख़त्म हो जाते थे - करीबी दोस्त के पास गए - उसने भी बड़ी मासूमियत से कह दिया - मेरे पास पैसा नहीं है - आप भी मान गए - फिर गलती से एक दिन उसका पासबुक देखे ...धक् से कर गया ..कलेजा ...अरे ...उसके पास तो पैसा है ...अब आप किस बेचैनी से गुजरेंगे ...वो आपको ही पता है ...उसे वो बात छुपा कर क्या मिला ...पता नहीं ...पर शायद उसने हमेशा के लिए ...एक बढ़िया दोस्त खो दिया ! ...है ..न ! 
सो ...नकाब सिर्फ दूसरों को ठगने के लिए ही नहीं ...अन्तोगत्वा लूजर वही होता है ...जो हर करीबी सम्बन्ध में भी नकाब पहन कर बैठा होता है ...
क्रमशः ...

@RR - 12 October 2014 

कभी मिलो तो कुछ ऐसे मिलो......


कभी मिलो तो कुछ ऐसे मिलो जैसे एक लम्बे उम्र का इंतज़ार ...चंद लम्हों में मिलो ...
हां ...उसी रेस्तरां में ...जब तुम वेटर को एक कप और चाय की फरमाईश करते हो ...जैसे ...मै इतनी मासूम ....मुझे कुछ पता ही नहीं ...कुछ देर और रुकने का बहाना खोजते मिलो ...अपनी मंद मंद मुस्कान में बहुत प्यारे दिखते हो ....:)) 
वहीँ टेबल पर ....कभी अपने कार की चावी तो कभी मोबाईल को नचाते ...चुप चाप मेरे तमाम किस्से सुनते हो ...और फिर एक लम्बी सांस के साथ ...एक गहरी नज़र मेरी आँखों में डालते हो ...जैसे क़यामत को कोई पल नहीं चाहिए ....
हाँ ..कभी मिलो तो यूँ मिलो ...जैसे मेरी तमाम उलझनों को ..हौले हौले सुलझाते मिलो ..और मै अपने मन की सारी बातें कह ...खुद को खाली कर दूँ ....
..लौटते वक़्त ...रेस्तरां से कार पार्किंग तक के सफ़र में ...तुम्हारे हाथों से ...मेरे हाथों का स्पर्श ......धड़कने वहीँ पिघल के ...न जाने कब तुममे समा जाती है ...कह नहीं सकती ...पर कभी न मिटने वाली एक एहसास छोड़ जाते हो ...
कभी मिलो तो कुछ ऐसे ही मिलो ....:)) 

@RR - 12 October - 2014 

Saturday, October 11, 2014

लेखनी ....और फेसबुक ....:))


एक अकेले दिन में हज़ारों भाव आते हैं ...सैकड़ों कल्पनाएँ मन को छू कर निकल जाती है ...उन्ही में से जो कुछ कलम पर बैठ जाती है ...वही एक शुद्ध लेखन बन जाती है ! एक सकरात्मक भाव में डूब कर लिखना एक आनंद है ! अपनी कल्पनाओं को शब्द पहनाना जहाँ एक छोटा सच भी कहीं छुप कर बैठा होता है - परमआनंद है ! जो लेखनी मन से निकलती है वही लेखनी मन में समाती भी है ! हर एक प्लेटफॉर्म की अपनी अलग अलग खासियत होती है ! फेसबुक एक इंस्टैंट स्टारडम भी देता है पर इसकी अपनी आयु भी है ! यहाँ बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाना होता है ! अब इलेक्ट्रोनिक युग में सोशल मिडिया पर अपने आप को लेखक के रूप में देखना कहाँ तक सही है - कहना मुश्किल है - उसी भीड़ में जहाँ हर कोई अपने मन का कह रहा है - तब जब आप अपनी कल्पना को कह रहे हैं ! 
कई बार आप अपनी एक पूर्णता के तरफ होते हैं - तब आप एक ऑर्बिट से दुसरे ऑर्बिट में प्रवेश करना चाहते हैं - तब एक बहुत फ़ोर्स की जरुरत होती है - बाज़ार बहुत बड़ा है और यहाँ हर एक चीज़ की क़द्र है - यह तो मैंने देखा है - महसूस भी किया है ! मैंने पिछले दो - ढाई साल में - अपनी लेखनी में काफी विविधता को लाया - बगैर इस चिंता के - सामने वाला मेरी कैसी छवी बनाता है - जो रंग पेश करूँगा वही रंग लोग देखेंगे - यह तो तय है ! शब्दों से चित्रकारी करना ...मजा आता है ....:)) 
थैंक्स ...!!!


@RR - ११ ओक्टोबर २०१४ 

Friday, October 10, 2014

मलाला युसुफ़ज़ई / Malala Yousafzai


मलाला युसुफ़ज़ई ने अपनी डायरी में लिखा था - 
"आज स्कूल का आखिरी दिन था इसलिए हमने मैदान पर कुछ ज्‍यादा देर खेलने का फ़ैसला किया। मेरा मानना है कि एक दिन स्कूल खुलेगा लेकिन जाते समय मैंने स्कूल की इमारत को इस तरह देखा जैसे मैं यहां फिर कभी नहीं आऊंगी। " 
उन्होंने अपनी डायरी लिखना - बगैर किसी मकसद के शुरू किया होगा और कब सोचा होगा - ये छोटी सी घटना उसे विश्व के शिखर पर पहुंचा देगी ! मलाला तुमको पुरे विश्व की उन करोड़ों लड़कीओं और मेरी बेटी की तरफ से भी बधाई ! तुमको पता भी है - तुमको इस विश्व जगत ने किस शिखर पर ला खडा किया है - और तुम न जाने कितनों की ज्योती बन गयी और जब करोड़ों हाथ एक साथ दुआ के लिए उठते हैं - फिर भगवान् भी किसी चमत्कार के इंतज़ार में रहता है ! 
मेरा एक दोस्त अक्सर यह कहता है - हर एक विशेष आत्मा किसी न किसी एक अलग कार्य के लिए इस धरती पर भेजी जाती है ....हाँ ..मलाला ...तुम एक हिम्मत से परिपूर्ण नन्ही ...क्रूरता के हर एक बंधन को तोड़ती ....अपना सफ़र जारी रखो ...
शुभकामनाओं के साथ ...
~ रंजन ऋतुराज

@RR - 10 October - 2013 

फेसबुक के दोस्त .....


फेसबुक पर् पूरा पृथ्वी नज़र आ जाता है ! तरह - तरह का आईटम लोग ! कोई लॉग इन किया और एक तरफ से उसके वाल पर् जो नज़र आया उसको 'लाइक' कर दिया - लॉग ऑफ किया - चद्दर तान के सो गया ! ये तो ठीक है - एक दूसरा आईटम लोग है - लॉग इन किया और एक तरफ से जो कुछ उसके वाल पर् है - सबको एक तरफ से शेयर करता चला गया ! प्रभु आप महान हैं - मेरा प्रणाम स्वीकार करें ! 
कुछ लोग है - जो साल में सिर्फ एक दिन आपके वाल पर् नज़र आयेंगे - बर्थडे वाले दिन - हैपी बर्थ डे - रँजन जी - सर थैंक्स - कैसे हैं आप ? कोई जबाब नहीं  सुबह उठ के राम - मोहन - श्याम सबको बर्थ विश किये और चल दिए काम पर् - फेसबुक पर् भूकंप आया - ज्वालामुखी फटा - कोई मतलब नहीं ! 
कुछ लोग है - बहुत कम बोलने वाले - स्टेटस लिखेंगे - "I am going" - अरे बाबा ..कहाँ गोइंग ? कोई जबाब नहीं - कुछ देर बार इन्बोक्स में जबाब आएगा - पटना गोइंग ! त ..ई बात स्टेटस में लिख देते तो ...भूकंप आ जाता ...! हद् हाल है ! 
कुछ लोग ..आपका हर स्टेटस लाईक करेगा - जैसे हम लिख दिए - आज दो चाँद नज़र आया - एक का मुह धरती के तरफ - दूसरे का मुह सूरज के तरफ - वाह..रँजन सर ..ऐसा सिर्फ आप ही सोच सकते हैं ...गजब ! अब रँजन जी ...दो घंटा इसी सोच में ...क्या मै सचमुच 'वढेरा' से ज्यादा शक्तीशाली हो गया हूँ ! 
कुछ लोग शेर शायरी ! कहाँ कहाँ से शेर शायरी उठा लायेंगे - अब आप गूगल में खोजते रहिए - किसका लिखा हुआ है - आपका एक घंटा बर्बाद ! 
कुछ लोग जोक - जोक आया नहीं की - लाइक पर् लाईक - बाप रे कितना दोस्त छुपा के रखा है - एक से एक - ठुक घोंटते हुए - एक लाईक आप भी मार् दीजिए ...
[ यह अनुभव किसी भी जीवित या मृत व्यक्ती से सम्बंधित नहीं है ..बस यूँ ही लिख दिया गया ]


@RR - ४ जुलाई २०१२ 

खिलौना


अब आप राजा हो या रंक - आपके बच्चे खिलौने से खेलेंगे ही ! मुझे अपना बचपन याद आया - गर्मी के दिनों में गाँव जाते थे - वहाँ हाट लगता था - हाट से गोली ( कंचे ) / लट्टू खरीदना और दिन भर गाँव के घर वाले 'ओसारा' ( बरामदा ) में खेलते रहना ! एक खिलौना हम लोग खुद बनाते थे - 'गुड़कउआ' - ताड़ के लंबे पेड़ के फल से बनने वाला - जिस फल को हम लोग 'खाजा' कहते हैं ! उस फल को दो हिस्से में काट - उसके दोनों हिस्से को 'चक्का' बना कर - किसी लकड़ी से जोड़ फिर एक लंबे लकड़ी से चलाना ! 
@RR - १ जुलाई २०१२ 

Thursday, October 9, 2014

मौसम 'गजब'


कल देर रात बारिश के बाद - दिल्ली और आसपास का मौसम 'गजब' का हो गया है ! इस मौसम का मज़ा तब और बढ़ जाता है - जब बच्चे स्कूल न जाएँ - बड़े काम पर न जाएँ ...:)) घर में ढेर सारे रिश्तेदार आये हों ....बड़े पलंग के चार कोना पर ...रजाई के चार कोना को पकडे ..माँ ..फुआ ..चाची ..मामी ....एक लगातार ..गप्प गप्प और गप्प ...बाहर बरामदा में ..चाचा / फूफा / मामा जैसे लोग ..बेंत की कुर्सी पर ..चुकुमुकु बैठ ..खादी का बड़ा उनी चादर ओढ़े ..मफलर लगाए ...एक लगातार गप्प ..गप्प और गप्प ! ठंडी ठंडी हवा ...किचेन से बरामदा तक आने में चाय ठण्ड हो जाए ...सुबह दस बजे तक कितने चाय ..कोई ठिकाना नहीं ...इसी बीच ...कोई बड़ा भाई ..स्कूटर स्टार्ट कर ..'मटन' लाने ....चलोगे ...पूछा नहीं की उसके स्कूटर पर ...पीछे लटक गए ...फांद गए ...अभी स्कूटर फर्स्ट गेयर में ही ...पीछे से चाची ने जोर से कहा ...'दो किलो ..प्याज़' भी :)) 
आज भी आप लोग काम पर आये हैं ?? 


@RR - १७ जनवरी - २०१३ 

क्या लेकर आये थे ..और क्या लेकर जाना है....


क्या लेकर आये थे ..और क्या लेकर जाना है ...जो मिला वो मुकद्दर ...जो नहीं मिला वो भी मुकद्दर ....चादर तानिये और बालकोनी में 'फोल्डिंग बेड' लगा कर सो जाईये ..उस ठंडी बयार में बड़ी गहरी नींद आयेगी ..भागलपुरी चादर ओढ़ कर ...सुबह की पहली किरण से जब नींद खुलेगी ...तब ये न् रात होगी ...न् वो बात रहेगी ...
~ RR

@RR - 7 Nov - 2012 

नकाब / मेकअप ....पार्ट -वन...


नकाब / मेकअप ....पार्ट -वन
घर परिवार से लेकर बाहर तक की महिलाओं को बगैर मेकअप कहीं जाते नहीं देखा है - कुछ न कुछ ..थोड़ा ही ..अगर पार्टी / फंक्शन बड़ी हुई तो मेकअप भी उतना ही ज्यादा ! शायद ...यह मेकअप पिछली पीढी को देख भी आता होगा और कुछ महिलाओं के स्वभाव से भी जुड़ा है - वो सुन्दर दिखना चाहती हैं ! मेरी बेटी भी अब थोडा बहुत मेकअप लगाना चाहती है ! अब सुन्दर लगने के बाद की कड़ी होती है - सुन्दर दिखने के बाद दूसरों को अपनी तरफ आकर्षित करने का मन - और फिर यह एक फोर्मुला बन जाता है ! 
ठीक उसी तरह पुरुष भी अपने स्वभाव का नकाब पहनते हैं - पहली बार तो अकबका लगता है - फिर जब पता चलता है - अरे ..यह नकाब तो एक फोर्मुला है ...फिर वो उस नकाब से बाहर नहीं निकलता है ...क्योंकी दूसरों को नकाब पसंद होता है और कोई भी चाहेगा लोग उसे पसंद करे फिर नकाब के साथ न जाने वो क्या क्या करता फिरता है ! 
दिक्कत उसके साथ नहीं होता जो नकाब पहनता है - दिक्कत उनके साथ है जो बगैर नकाब किसी और को नहीं देख सकते - यह क्या है ?? एक बात पूछता हूँ ...क्या अमिताभ बच्चन अपने घर में भी ठीक उसी तरह रहते होंगे - जैसे वो परदे पर दिखते होंगे ? " हाएं ..कमर पर हाथ डाल ...ऐश्वर्या ..एक गिलास पानी लाओ ! "नहीं ...हरगीज नहीं ...अमिताभ बच्चन भी घर में वैसे ही रहते होंगे ..जैसे हमारे पिता जी रहते होंगे ! 
मेरे पिता जी प्रोफ़ेसर है - जाड़े के दिन में क्लास लेने जाते हैं तो एकदम बढ़िया टाई / सूट / जूता - पर वही इंसान घर में सफ़ेद लूंगी या पैजामा में रहते हैं ! कोई विद्यार्थी घर में आ गया तो हडबडा गया -..अरे सर तो ..ऐसे नहीं दिखते है ...जिस विद्यार्थी को क्लासरूम में डांटते है ..वही अगर घर आ गया तो उसके लिए मिठाई ! 
खैर ...नकाब जरुरी है ...समाज के लिए ....नकाब जरुरी है घर से बाहर के लिए ...पर घर में ...अपनो में ..नकाब की कोई जरुरत नहीं ! 
"दर्द तब होता है जब कोई अपनों के साथ भी नकाब में होता है ....दर्द तब होता है ..जब अपने भी आपको नकाब में देखना चाहते हैं ..." होता है ..न ?? ...:)) 
क्रमशः ....

@RR - 9 October 2014 

Tuesday, October 7, 2014

टेबुल फैन की याद.......


गर्मी चरम सीमा पर् है ! टेबुल फैन की याद आ गयी ! दोपहर में भोजन के बाद चौकी पर् सफ़ेद तोशक और चादर बिछा कर - मसनद और बगल में एक छोटे टेबुल पर् 'टेबुल फैन' ! सब रईसी और एसी फेल है ! बगल में खिडकी पर् एक रेडियो और रेडियो पर् धीमा संगीत बीच बीच में समाचार भी - सो जाईये ! जैसे पावर ( लाईन ) गया - मुह फेर के टेबुल फैन को देखिये ! भर पेट भात खाने के बाद जो नशीला नींद आता है - उस दोपहर के नींद का क्या कहना ! 
बचपन से टेबुल फैन को लेकर एक उत्सुकता रहती थी ! चार या पांच बटन - जब मूड हुआ कोई बटन टीप दिए - उधर से चाचा आँख दिया दिए ! जब तक टेबुल फैन के पंखे पूरी स्पीड में नहीं आ जाएँ ..तब तक उनको देखते रहना - मन करे की ..जाली से उंगली घुसा दें :)) घर में कोई बुरबक/बेवकूफ बच्चा हो तो उसको बोला जा सकता था पर् इस् घटना के बाद जो पिटाई होने वाली होगी उसकी कल्पना से डर ऐसा कुछ नहीं करना ! फिर जब सब लोग सो गए तब टेबुल फैन के सामने मुह ले जाकर आवाज़ निकालना ...आ आ आ आ ....! अगर कमरे में दो चार लोग और सोये हुए हैं फिर टेबुल फैन का कान उमेठ देना ...अब वो सर घुमा कर सभी को हवा दे रहा है ...तब तक बदमाशी से उसके सर को पकड़ लेना ...पीछे के गरम मोटर से हाथ का जलना ..फिर कर्र कर्र की आवाज़ होते ही रूम से भाग जाना ! 
आजकल लोग स्प्लिट एसी लगाता है - शोर नहीं हो ! उस टेबुल फैन का जाली ढीला होने के कारण ...एक आवाज़ आती ..उस आवाज़ में भी ...घर में आये पाहून / मेहमान क्या खर्राटा भर के सोते ....अदभुत ... !
~ दालान , २२ मई - २०१२


शरद पूर्णिमा ...

क्या तेरे खिड़की से वही चाँद दिखता है ...जो चाँद मेरे बालकोनी से दिखता है ...
उसी चाँद को तुम अपना पैगाम कह देना ...उसी चाँद से हम तेरा पैगाम सुन लेंगे.....:))
~ RR


ए शरद पूर्णिमा के चाँद...
कहाँ छोड़ आये अपनी चांदनी ...
कहाँ गँवा आये अपनी शीतलता ...
ग्रहण का क्रोध ...या प्रकृती की विवशता ...


@RR - 7 / 8 October - 2014 

जलन .....


'जलन' एक स्वाभाविक प्रक्रिया है - हालांकी जैसा हर कोई खुद के बारे में बोलता है - वैसा ही मुझे भी हक है बोलने का - मुझे जलन नहीं होता  
बचपन का एक कहानी याद है - बात करीब तीस - एकतीस साल पहले की है - तब के जमाने में हमारे बिहार में 'नेतरहाट विद्यालय' का जोर होता था - वहां एडमिशन मिल पाना अपने आप में बहुत बड़ी बात होती थी ! अब उस उम्र में सभी वहां का एडमिशन टेस्ट देते थे - हमने भी तैयारी की - बढ़िया - बिना मास्टर साहब के :)) 
तब एक लोकल स्कूल में पढ़ते थे - वहां पिता जी के एक जस्ट सीनियर के दो बेटे भी पढ़ते थे - दोनों मुझसे बड़े थे पर छोटा वाला मेरी क्लास में था और टॉप करता था :(( एक बार किसी शिक्षक ने मेरी भी बड़ाई कर दी थी - तब से हमदोनो में थोडा कोल्ड वार जैसा था ! खैर...
नेतरहाट विद्यालय एडमिशन टेस्ट वाले दिन - सुबह सुबह नहा धो ..रिक्शा पकड़ ..हम चल दिए एडमिशन टेस्ट सेंटर - एकदम साफ़ सुथर लईका जैसा ! अभी रिक्शा कुछ दूर गया ही - बगल से एक लैम्ब्रेटा गुजरा - धीमे रफ़्तार में - रिस्क्षा से नज़र उधर किया तो - लह ...वही दोनों भाई ..और अंकल ! दोनों भाई हमको हाथ हिला के कुछ बोले - अब तो मेरे पुरे शरीर में आग लग गयी ! 
हम उसी वक़्त 'ईश्वर' को पुकारे - हे ..ईश्वर ..अगर सच में तुम हो ..तो आज मेरी आवाज़ सुनो - "मेरा भले ही नेतरहाट विद्यालय में हो या न हो - इन दोनों भाईओं का तो कतई नहीं होना चाहिए - अब तुमसे इस जीवन में कुछ नहीं चाहिए - बस यही मेरी पहली और अंतिम आरजू - जिस मंदिर में कहोगे - वहीँ सवा किलो लड्डू चढाऊंगा" - फिर रास्ता भर हम हनुमान चालीसा पढ़ते हुए - एडमिशन सेंटर पहुंचे - पुरे शरीर में आग लगा हुआ था - परीक्षा तो खराब हुआ ही - रिजल्ट के दिन अखबार में अपना रोल नंबर से पहले उन दोनों भाईओं का देखा - जश्न मनाया - मेरा तो नहीं ही हुआ था - उन दोनों तेज़ तरार का भी नहीं ....वैसी खुशी की रात ...फिर कभी नहीं आयी ... 


@RR  - 10 April - 2013 

Monday, October 6, 2014

निर्णय .....


आईक्यू के एक ख़ास बैंडविथ में - करोड़ों लोग होते हैं पर सामाजिक पटल पर उनके जीवन में बहुत अंतर होता है - उसकी एक ख़ास वजह होती है - 'निर्णय' ! जीवन एक सफ़र है और यह एक ऐसा सफ़र होता है - जिसमे 'मंजिल' नाम की कोई चीज़ नहीं होती - जहाँ तक जैसे पहुंचे - वही आपकी मंजिल हो जाती है ! पर हर चार कदम पर एक चौराहा होता है और उस चौराहे से किधर मुड़ना है - वहीँ आपका 'निर्णय' निर्धारीत करता है आप किधर की ओर रुख कर रहे हैं ! कई बार एक छोटी सी निर्णय आपके पुरे ज़िंदगी को बदल देती है - ये निर्णय सिर्फ इंसान को ही नहीं बड़े से बड़े संगठन से लेकर समूह तक को प्रभावित करती है ! 
एक उदहारण देता हूँ - अज़ीम प्रेम जी खाने वाले तेल के व्यापार से थे - एक निर्णय लिया - मुझे आईटी में जाना है - विप्रो को दुनिया जान गयी - अम्बानी ने लेट कर दिया - एअरटेल कहाँ से कहाँ पहुँच गयी ! इंसान वही है - उसकी आतंरिक मेरिट भी वही है - उसकी क्षमता भी वही है - बस एक निर्णय उसे आसमां तक पहुंचा सकता है - अगर बात सामाजिक पटल की हो तो ! 
कई बार निर्णय लेते वक़्त 'स्टेकहोल्डर' का भी ध्यान रखना होता है - इंसान कभी अकेला नहीं होता - यह एक भ्रम है की वो अकेला है और उसकी ज़िंदगी सिर्फ उसी की है - कई और लोग उसकी ज़िंदगी से जुड़े होते हैं - जितना बड़ा व्यक्तित्व उतने ज्यादा स्टेकहोल्डर - कई निर्णय में सबका ध्यान रखना होता है - कई बार बिना कुछ सोचे समझे निर्णय ले लिया जाता है - जो होगा देखा जायेगा - इसके लिए अन्दर से बहुत हिम्मत चाहिए होता है - ऐसे ही निर्णय में - हमें कई बार किसी ख़ास की जरुरत होती है - जो हमें बस यह दिलासा दे सके - जाओ आगे बढ़ो - तुम्हारा निर्णय सही है ! 
कई बार हमें अपने निर्णय के सकरात्मक और नकरात्मक दोनों के अंत तक सोच कर रखना चाहिए - सिर्फ एक पक्ष सोच लेने से - बाद में दिक्कत हो सकती है ! निर्णय और उसके फल में सिर्फ आप नहीं शामिल होते हैं - उसमे कई और लोग भी शामिल होते हैं - वो आपको मदद भी पहुंचा सकते हैं या फिर आपको कमज़ोर भी कर सकते है ! 
पर किसी भी हाल में ...निर्णय लेते रहिये ...ज़िंदगी आगे बढ़ते रहने का ही नाम है ...:))

@RR - 10 September - 2014 

Sunday, October 5, 2014

हैदर ....विशाल भारद्वाज

हैदर ....विशाल भारद्वाज


कल शाम विशाल भारद्वाज की हैदर देखा ! विशाल भारद्वाज ने कई सिनेमा बनाए - पर यह मेरी पहली सिनेमा थी - फिल्मची नहीं हूँ ! 
सबसे बढ़िया लगा - विशाल ने अपने पिता स्व० राम भारद्वाज की तस्वीर भी दिखाई - संस्कार ज़िंदा है ! पर एक सवाल विशाल से - यार ...औरत की बेवफ़ाई और उस बेवफ़ाई से बिखरते घर क्यों दिखाते हो ? कोई ख़ास वजह ? खैर ...मैंने शेक्सपीयर नहीं पढ़ा है बस तुम्हारा सिनेमा देखा !

कश्मीर के कई सच से रूबरू कराती यह सिनेमा कई बार डॉक्युमेंट्री जैसी भी लगती है - तीन घंटे की यह सिनेमा कई बार स्लो भी दिखती है ! तब्बू अपनी उम्र से ज्यादा दिख रही है - हमें आपका विजयपथ का वो गाना 'रुक रुक' का पहला वर्सन आज भी जेहन में है - दिल मत तोडिये ...:)) तब्बू के पति बने अपने बिहार के नरेन्द्र एक आदर्श डॉक्टर की छवी को बखूबी निभाये हैं - उन्हें विशाल को धन्यवाद देना चाहिए - पुरी फिल्म में नरेन्द्र बहुत कम समय के लिए दिखे हैं पर कहानी ऐसी है की दर्शक उन्हें तीन घंटे नहीं भूल सकते ! के के मेनन हमेशा की तरह - लाजबाब ! इरफ़ान विशाल की मजबूरी से दिखे हैं ! शाहीद कपूर और श्रद्धा कपूर ठीक ही हैं - सिनेमा का सबसे ज्यादा फायदा उनको ही मिला ! 

हर सिनेमा की तरह यह भी एक सिनेमा - स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के इर्द गिर्द घुमती ! छल , चाहत और प्रेम में डूबी यह सिनेमा और इसके माध्यम से यही समझ में आया - शेक्सपीयर के जमाने से लेकर अभी तक के जमाने में - मानव स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया है ! पुत्र दुनिया में सबसे ज्यादा पवित्र अपनी माँ को ही मानता है - वो किसी भी अन्य पुरुष को अपनी माँ के नज़दीक नहीं देखना चाहता - भले ही उसका बाप क्यों न हो ...और जीवन में आकर्षण / रोमांस / छल के आगे भी एक ख़ूबसूरत चीज़ इंतज़ार करती है और वो है - प्रेम ! छल को प्रेम समझ उसे अपनाने वाले सिर्फ अपनी ही ज़िंदगी नहीं बल्की कई और ज़िंदगी भी बर्बाद करते हैं ! 


@RR - 5 October 2014 

प्रेम के दरवाजे पर आकर्षण बैठा होता है.....


प्रेम के दरवाजे पर आकर्षण बैठा होता है - यह आकर्षण सौन्दर्य / धन / ताकत / ज्ञान / मासूमियत ...किसी भी रूप में हो सकता है ...यह आकर्षण इतना मजबूत होता है ...जीवन में कई बार हम इसी मजबूत दरवाजे पर रुक यहीं फंस जाते हैं ...फिर थक हार लौट जाते हैं ...अन्दर एक विशुद्ध प्रेम इंतज़ार करता है ....फिर एक जोर लगाते है ....सौन्दर्य / धन / ताकत / ज्ञान को तोड़ उस प्रेम तक पहुँचते हैं ....फिर नज़र आता है - एक प्रेम ....

जैसे एक पूजा के समय ....एक बड़े थाल / परात में खीर ....और उस परात में ...तुलसीदल / तुलसी का पत्ता ....उस खीर में ...केसर ....एक पवित्र खुशबू ....फिर आप वहीँ बैठ जाते हैं ...काल की सीमा को तोड़ ....अनंतकाल तक के लिए...और मंदिर का दरवाजा अन्दर से खुद ब खुद बंद हो जाता है ...अनंतकाल तक के लिए ... :))
@RR - 13 February 2013 

बचपन में अल्बम देखते थे.....


बचपन में अल्बम देखते थे - काला वाला जिसमे ब्लैक & व्हाईट फोटो क्लिप में लगाया हुआ - ऊपर से एक ट्रेस पेपर ! ओहो ..तो ई फलाना मौसी हैं - बगल में मौसी बैठी - फिर एक नज़र उनको देखना - तो कोई बेलबॉटम में नज़र आ गए - कोई चाचा - चौड़ा बेल्ट - छींटदार बुशर्ट ( शर्ट ) - बाप रे ..बडका हीरो रहे होंगे - मुकद्दर का सिकंदर वाला अमिताभ जैकेट पहन ! हा हा हा हा ...उन तस्वीरों को देख यही ख्याल आता था - इंदु फिल्म - शादी विवाह में कोई मौसा / मामा / चाचा टाईप आइटम लोग एक ट्राईपोड पर अपना कैमरा लगाए - ऐसे फोटो खींचते थे - जैसे बॉबी सिनेमा में यही थे - रात भर वैसा आइटम लोग जागता था - चाय पर चाय - शरबत पर शरबत आ रहा है - क्या वैल्यू होता था वैसा लोग का ! किसी मौसा को कोई मामा चिढ़ा दिया - का औरत के जमात के बैठे हुए हैं ...हुआ हंगामा ...आईये ..आप ही खींचिए फोटो ..अब मौसा जी रूठ गए ...हा हा हा हा ! 
फिर मेरा जेनेरेशन आया - कॉलेज का फोटो कलर होने लगा ! इंदु फिल्म की जगह कोडक आ गया - फुजी आ गया ! होस्टल में जिसके पास कैमरा - वो एकदम से अटैची के अन्दर छुपा के - कॉलेज का ट्रिप गया तो 'हलुक बानर' जैसा सबसे सुन्दर लड़की के पीछे - बगल में एक फोटो खींचा लिए - हो गया एक याद ..हा हा हा हा ...बाद में बीवी को बोल रहे हैं ..यही थी ...बीवी भी सोच रही है ..मेरा हसबैंड जैसा स्मार्ट कोई नहीं ....बकवास ! एक से एक आइटम ...कभी कभी लगता है ..इ सब काहे को इतना पढ़ा लिखा ...सब बेकार ! 
फिर शादी विवाह में विडियोग्राफी शुरू हुआ - आप विश्वास नहीं करेंगे - मैंने इस बिजनेस में भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान से पास लोगों को पैसा बनाते देखा है - कंधा पर विडियो कैमरा रख - बगल में एक छोकरा लाईट लेकर - सिन्दूरदान होने का टाईम हो गया - कहाँ गया जी - कैमरा वाला - दे गाली..दे गाली ..कौन ठीक किया था ..जरुर से फलाना बाबू ..फलाना बाबु भी दो चार श्लोक सुन लिए ...पता चला ..कैमरावाला सिगरेट धूकने गया हुआ है....सिन्दूरदान का समय आगे बढ़ गया ! एकदम निर्लज्ज हो जाता था - कैमरावाला - "कोहबर" में घुस के भी फोटो ! 
सब ठीक है - पर जिसके घर शादी हुआ - वहां कुछ दिन बाद अगर गए तो चाय के पहले - मिठाई के पहले आपके लैप पर खूब मोटा मोटा चार - पांच अल्बम - देखिये न ..रंजन बाबु ...अब रंजन बाबु क्या फोटो देखें ..सब फोटो में खुद को खोज रहे हैं ..मिला तो ठीक ..वर्ना मन ही मन ..काहे को यहाँ / इनके घर आ गए ...अभी अल्बम देख ही रहे हैं ...तब तक कोई बच्चा विडियो कैसेट लेकर पहुँच गया ...अब तीन घंटा हिलना डुलना मना...:))
@RR - १ जुलाई - २०१३ 

चौराहा .....

कभी कभी जिन्दगी की राहों पर एक चौराहा नज़र आ जाता है - जहाँ से कई रास्ते निकलते हैं - कोई पूरब , कोई दक्षिण , कोई उत्तर , कोई दायें , कोई बाएं , कोई आरे तो कोई तिरछे - एक राह वो भी होती है - जिस से चल के आप उस चौराहे तक पहुँचते हैं - वही जो सीधी चली जाती है - शायद आप उस पर आप आगे नहीं बढ़ना चाहें ! चौराहे से किसी दूसरी दिशा में निकलने को बड़ी हिम्मत चाहिए - फिर आप क्या करते हैं - थके पाँव वही चौराहे के उस फुव्वारे के चबूतरे के पास थोड़ी देर रुक जाते हैं - आप अपना परिचय नहीं देते - लोग समझ जाते हैं - एक मुसाफिर है - प्यासा है ! फिर एक हल्की नींद में शाम हो जाती है - लोग मना करते हैं - रात के पहर नए अनजान रास्तों पर नहीं निकला करते - भोर का इंतज़ार कीजिए - एक रात यहीं रुक जाईये :))

@RR - 9 July 2013 

Saturday, October 4, 2014

शब्द इज्ज़त देते हैं ....:))


शब्द इज्ज़त देते हैं - शब्द आपकी तौहीनी करते हैं - शब्द चोट देते हैं - शब्द मरहम बन के आते हैं - शब्द पास बुलाते हैं - शब्द दूर लेकर जाते हैं - शब्द मुहब्बत पैदा करते हैं - शब्द घृणा पैदा करते हैं - शब्द एक आकृती बनाते हैं - शब्द ही व्यक्तित्व बनाते हैं - शब्द नकाब बन जाते हैं - शब्द अन्दर के रूह को दिखाते हैं - शब्द सात जन्मो के रिश्ते बनाते हैं - फिर उसी इंसान के शब्द पल भर में सात जन्मो के रिश्ते तोड़ देते हैं ! 

अपने ही शब्दों को इंसान भूल जाता है - अपने शब्दों की रक्षा के लिए इंसान जान लगा देता है ! शब्द मंत्र बन जाते हैं - शब्द गाली से दिखते हैं !

@RR - 25 November 2013 

सुन्दरकाण्ड .......


आज कल भोरे भोरे पांच बजे ही नींद खुल जाता है - कम्बल के अन्दर ठेहुना मोड़ के - पलंग के सिरहाने पीठ सटा के - सुन्दरकाण्ड को युटिउब पर खोल देता हूँ  कुछ देर बाद - अनूप जलोटा का भजन - 'जल से पतला कौन है - कौन भूमि से भारी - कौन अग्न से तेज है - कौन काजल से काली - जल से पतला ज्ञान है - पाप भूमि से भारी - क्रोध अग्न से तेज है और कलंक काजल से काली' - एकदम अनूप जलोटा के साथ राग में राग मिला के - खूब तेज - शिव भक्त होने के कारण अब वैसी आवाज़ नहीं रही वर्ना कॉलेज जमाने में रॉक / पॉप - इटार गिटार / वेस्ट कोट पहिन उहींन के - कल एक कॉलेज जमाने के मित्र का फोन - उदास हो गया - क्या जलवा होता था  हम थोडा गंभीर रूप से जबाब दिए - बुरबक ..अरे वो जवानी का जलवा था ..मेरा थोड़े न था  दिन भर डिप्रेशन में थे ...शिव ने अन्याय किया ...दो वर दिए ...१) कभी कोई शत्रु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा ..भले कोई दोस्त पीठ पर खंजर के हज़ार दाग कर दे ...२) कभी बुढापा नहीं आएगा ...पर मैंने भी दोनों 'वरदानों' की रक्षा की है - प्रथम जैसे ही किसी दोस्त ने खंजर का हल्का एहसास होता है ..तुरंत उसको दुश्मन बना लेता हूँ ..और शिव के वरदान के साथ बेफिक्र होकर सो जाता हूँ ...दूसरा कभी भी ना तो भतीजा उम्र के साथ दोस्ती और ना ही चाचा लोग के उम्र वालों के साथ - दूर से राम सलाम - अपने एजग्रुप के साथ ..मस्त ..हमेशा 'चिरयुवा' ..:)) अपना येजग्रुप के साथ फायदा यह है की ...उसको कुछ भी बोल दीजिये ..वो माईंड नहीं करता ...बुरा भी लगेगा ...मना लेंगे...वो भी कुछ कह देगा ..दांत चियार के सह लेंगे ...पीठ पर दू मुक्का देकर ...गला मिल लेंगे ..:)) 
पर अभी तत्काल में ...जो प्रॉब्लम है ..वह यह है की ...अनूप जलोटा का भजन और सुन्दरकाण्ड ..वो भी भोरे - भोरे ...खैर अन्दर एक विश्वास है ...उ का कहते हैं..फेस्बूकिया भाषा में ...ट्रस्ट है / फेथ है ...शिव इस बुढापा को नजदीक नहीं आने देंगे ...बेटा के बियाह में ...भतखही में ..मडवा पर ...गारी / गाली सुनते वक़्त ..कनखिया के ..एक भरपूर नज़र समधिन को देख न लें ...बुढापा को रोके रखना है ... 


@RR - २७ नवम्बर - २०१३ 

मेरा बेचारा फरवरी ....


सभी महीने जब आपस में मिल जुल कर बैठे होते हैं - फरवरी भी एक कोना में बैठा होता है - हर साल उस पर नज़र पड जाती है - जींस और टी में - दुबला पतला - मासूम सा - मालूम नहीं क्यों - कई बार पूछने का मन करता है - सभी भाईयों में मात्र 28 दिन ही हिस्से में पाकर ..तुम खुश हो न ! वो एकदम मासूम सा मुस्कुरा कर कहता है ..हाँ ..भैया ..मै खुश हूँ ...दो दिन की कमी को अपने सीने में दफ़न कर ! बाकी के भाई कितने क्रूर हैं - दिसंबर को पास बुला कर पूछा - अपने हिस्से से एक दिन फरवरी को दे दो - दिसंबर का अलग रोना - मुझे मालूम नहीं किसका श्राप - साल का अंत मुझसे ही होता है - ऐसे कौन सा दिन और कौन लेना चाहेगा ! जनवरी का अलग ताव - अलग कुर्सी पर मुकुट लगा के बैठा हुआ - हमसे ही साल की शुरुआत ! मार्च का अलग घमंड - फाइनेंसियल ईयर ख़त्म मुझसे ही होता है - मुझे तो 31 दिन भी कम पड़ते हैं ! जुलाई ने साफ़ मना कर दिया - नियम है तो मुझे एक दिन एक्स्ट्रा मिले - जाईये अगस्त से मांगिये ! अगस्त दिखने में ही दबंग - नियम तोड़ अपने हिस्से में ज्यादा दिन लिया है - अब इससे कौन मुह लगाए ! 
थक गया ..हार गया ...भाइयों की लड़ाई ...फरवरी पास आया ..बोला ...भईया हजारों साल से ...इसी 28 दिन को लेकर खुश हूँ ....एक बार काल को भी मेरे ऊपर दया आया था ...उसने एक वरदान दिया ..हर चौथे साल मुझे एक दिन एक्स्ट्रा ...सच पूछिये तो ...एहसान सा लगता है ...हर चौथे साथ ...सर झुका उस एक दिन को अपने दिनों में जोड़ लेता हूँ ...अब और क्या कहूँ ...दर्द में मालूम नहीं क्या क्या कहे जा रहा था ...
मैंने फरवरी को अपने सीने से लगा लिया ...बोला ...अरे बेवकूफ ...तेरे साथ 'ऋतुराज वसंत' रहता है ...तेरे 28 / 29 बाकिओं के 30/31 से ज्यादा सुहाने हैं ...:)))


@RR - २७ फरवरी - २०१३ 

Friday, October 3, 2014

चाँद धरती के करीब आया है .....

बड़ी हसरत से आज चाँद धरती के करीब आया है - कहता है - मुझे भी लाल गुलाबी होना है - मुझे भी तेरे संग भींगना है ...धरती ने कहा - थोडा और करीब आओ - मुझे भी बड़ी हसरत है - तुम्हे रंगने की - तुम्हे भिंगोने की - तेरे सफ़ेद गालों पर हरा रंग लगाने की - अब बस रंगों की झील में ..धीरे धीरे उतर आओ ...आओ आज की रात तुम्हे रंगों से नहला दूँ - हमेशा के लिए तुझे सतरंगी बना दूँ ...:))
@RR - 26 March 2013 

कभी मिलो तो...........

कभी मिलो तो ....कुछ यूँ मिलो ....फुर्सत के पल में ....एक तमाम उम्र मिलो ...
कभी मिलो तो ....कुछ यूँ मिलो ... चाहत के आईने में ...अपनी रूह से मिलो ....

@RR

ए खुदा मेरी मुहब्बत का गवाह तू भी है .....

ए खुदा मेरी मुहब्बत का गवाह तू भी है
अगर ये खता है तो कसूरवार तू भी है
अब तू मुझे देख मुस्कुराता क्या है ..
बार बार मुझसे नज़रे चुराता क्या है ..
उसे देख तेरे दिल में आता क्या है ...
गीता - कुरान की कसमें खाता क्या है
मेरी हर एक सजा गैरों को सुनाता क्या है
फिर मेरे संग रातों को जागता क्या है
कुछ देर मेरी ईबाबत को भी बर्दास्त कर
कुछ देर इस पत्थर को भी खुदा कर
इस गहराई में खुद को भी पाक कर
ए खुदा मेरी मुहब्बत का इलज़ाम तुझ पर भी है
अगर ये इलज़ाम सही है फिर खतावार तू भी है


@RR - १० जनवरी - २०१३ 

मेरा घोड़ा..........


पार्ट - एक 
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ज़िन्दगी के घोड़े को कुदाते फँदाते ...कभी हरा मैदान तो कभी पर्वत ..कही खाई तो कहीं उंचाई ...कहीं हम थके तो कहीं मेरा घोड़ा ...हिम्मत नहीं हारे ...कभी कोई हसरत कहीं छूटी.... तो कोई और चाहत कहीं जन्म ली ....जो मिला सो मिला ..कहते हुए ...एक हाथ से जिंदगी के घोड़े का लगाम तो दुसरे हाथ में ढेर सारी चाहतें ..हसरतें ...
इस सफ़र में ..मालूम नहीं कब 'चालीस' भी पार कर गए ...ज़िंदगी का घोडा हिनहिना के इस चौराहे पर एकदम से खडा हो गया ...सोचा कुछ सुस्ता लूँ ..उस छाँव में कुछ देर आराम कर लूँ ...तब तक पीछे से आवाज़ आयी ...अब घुड़दौड़ शुरू होने वाली है ...अब मेरा घोडा मेरी तरफ मुह ताकता ...अभी तक क्या कर रहे थे ...मालूम नहीं कहाँ कहाँ और किस किस सफ़र में ...हमको घुमाते रहे ...हमको तो अकेले दौड़ने की आदत लग गयी है ...कहाँ तुम इस घुड़दौड़ में मुझे शामिल करोगे ...क्यों मेरी इज्ज़त के पीछे पड गए हो ...  ... अब हम अपने घोड़े को बोले ...देखो ..सुनो ..सी ...तुम घोडा हो ..घोड़ा की तरह काम करो ...आदमी की तरह मत सोचो ...घोडा बोला ...यार ...ताउम्र तो तुम मुझसे आदमी की तरह बात करते रहे ...अब अचानक तुम मुझको घोडा कह कर चुप करा रहे हो ...हद हाल है ..यार :(( अब मुझे गुस्सा आने लगा है ...ये घोड़ा जिसकी लगाम मेरे हाथों में ...अपनी अवकात भूल मुझसे बहस कर रहा है ...
शोर होने लगा है ...आवाज़ आ रही है ...सभी घुडसवार तैयार हैं ...पर जाना कहाँ तक है ? किसी ने कहा ....उस पहाडी पर ..उस ढलती शाम तक ...उस लालिमा को छूना है ...मेरा घोड़ा जोर से हंसा ...आ बैठ ..लगाम पकड़ ...वो ढलती शाम की लालिमा नहीं है ....वो उगते सूरज की लालिमा है ...बीच सफ़र में फिर कहीं एक रात आयेगी ...लगाम पकडे रहिओ .... :))

पार्ट - दो 
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अभी घुड़दौड़ शुरू होने में समय था ...मैंने घोड़े से कहा ..चल उस छांव में कुछ देर आराम कर लें ! अभी हम एक कदम आगे ही बढाए ...घोडा पीछे से - एक बात बताओ ...तुम भी जानवर ..मै भी जानवर ..फिर तुम जानवर से 'आदमी' कैसे बन गए ...मै हंसने लगा ...घोड़े को गुस्सा आया ...बोला ..यार गजब करते हो ...किसी सवाल का सही जबाब नहीं देते ...कभी हंस देते हो तो कभी गुस्सा जाते हो ...जाओ ..अब कोई सवाल नहीं पूछूँगा ! मै जोर जोर से हंसने लगा ....! पेड़ के पास आकर घोड़े को बाँध दिया ! उसके आगे कुछ चने डाल दिया ...आज घोड़े का मूड कुछ अजीब लग रहा था ...थोड़ी देर बार ....फिर घोड़े ने कहा ...एक बात बताओ ...मेरा माथा ठनका ...जिस घोड़े ने आजतक कोई सवाल नहीं किया ...आज वो 'आदमी' की तरह क्यों सोचने लगा है ...बहुत हिम्मत कर के ..उससे बोला ...बोलो ...क्या पूछना चाहते हो ...घोडा बोला ...देखो ..जबाब देना ...हँसना या गुस्साना नहीं ! हम फिर हंस दिए ...अरे..तुम पूछो तो सही ....घोडा मुस्कुराया ...बोला ....अभी तक के सफ़र में ..कई रात आये ..कई ठहराव आये ...कई छाँव आये ...ना तो तुमको कोई दूसरा घोडा मिला ..ना ही मुझे कोई दूसरा घुड़सवार ..ना तो तुमने मुझे खुद से दूर करने की कोई कोशिश की ...ना मैने ..तुमसे दूर भागने की कोशिश की ....फिर भी हर छाँव / ठहराव / रात ...तुम मुझे किसी खूंटे / पेड़ से बाँध क्यों देते हो ? ? - आदमी होने का घमंड दिखाते हो ? 
अब हम ना तो हंसने के मूड में थे ना गुस्साने के ...जिसका भय था ...वही नज़र आ रहा था ...इतने दिन आदमी के साथ रहते रहते ..ये घोड़ा भी सोचने समझने लगा था ..मुझे घुड़दौड़ की चिंता होने लगी थी ...क्योंकी मुझे पता था ...पुरस्कार तो घुड़सवार को मिलता है ..पर असल जीत घोड़े की ही होती है ...

पार्ट - तीन 
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.....घुड़दौड़ की पहली घंटी बज गयी ...ऐसी तीन घंटी बजने वाली थी ...अब हम प्रेशर में आ गए ...इधर उधर देखा ....बाकी के सभी घुड़सवार अपने अपने घोड़ों के मालिश में लग गए ....हम भी यही सोचने लगे ....घोड़े के पास गए ...बोले ...चलो ..तुम्हारा कुछ मालिश कर दूँ ...अब घोडा हंसने लगा ...कर दो ..मालिश ...हाँ ..आगे दाहिने पैर के पास जख्म है ...थोडा ध्यान से ! हम थोडा चुप रहे ...फिर बोले ...पहले क्यों नहीं बताया ...पैर पर जख्म है ..! घोडा मुस्कुराया ...बोला ...कब बताता ...हमपर सवार मालूम नहीं तुम कहाँ कहाँ भटक रहे थे ...न जाने किस धुन में सवार थे ...अभी तो फुर्सत मिली ...अब जब फुर्सत मिली तो घुड़दौड़ में मुझे शामिल करना चाहते हो ...
हम क्या बोलते ....पास गए ...पूछे ...ये जख्म कब हुआ ..बताओ ..न ...घोडा बोला ..याद है ..वो नाला ...चौड़ा सा ...उसको तडपना था ....उसी वक़्त का जख्म है ...मैंने घोड़े से पूछा ...मगर हम तो वो नाला ..बड़ी आसानी से तड़प गए थे ...कहीं गिरे भी नहीं ...फिर भी ये जख्म ! घोडा थोडा उदास हो गया ...बोला ..चाबुक के निशाँ हैं ..जख्म हैं ! मै हडबडाया ...मुकर गया ...साफ़ बोला ...मै इतना हल्का सवार ...तुम इतने मजबूत घोड़े ...भला मै क्यों चाबुक चलाता ...घोडा मुस्कुराया ...बोला ...ठीक है ..मै अब आदमीओं की समझ रखने लगा हूँ ..पर अभी पुर्णतः आदमी नहीं बना ...तुमको आजादी है ..मुकरने की ...चलो मालिश शुरू करो ..ध्यान से !
मै सोच में डूबा रहा ...हलके मालिश से ....ध्यान उस नाले की तरफ ...कैसे पार किया था ...कुछ याद नहीं ...क्यों नहीं याद ...अभी सिर्फ घुड़दौड़ दिमाग में घुसा हुआ है ...फिर घोड़े से पूछा ...बोलो ..न ..मैंने चाबुक क्यों चलाया ...घोडा बोला ...."तुम भय में थे ...नाला की चौड़ाई देख ...उस भय में तुमने अपना सारा विश्वास मुझपर लाद दिया ...फिर भी तुम भय में थे ...एक तुम ..फिर तुमसे वजनी विश्वास ..ऊपर से तुम्हारा चाबुक ....अब मेरे पास कोई उपाय नहीं था ...चाबुक का जख्म देखता तो ...तुम और तुम्हारा विश्वास आज उस नाले में होता " ....
हम और परेशान हो गए ...ये घुड़दौड़ के वक़्त ही इस घोड़े को सेंटी होना था ...मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था ...बस सामने घुड़दौड़ नज़र आ रहा था ....

पार्ट - चार 
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....दूसरी घंटी कब बज गयी ..पता ही नहीं चला ..अचानक देखा तो बाकी के सभी घुड़सवार ..बगीचा से निकल पड़े थे ..वहां के लिए जहाँ से घुड़दौड़ शुरू होने वाली थी ...मैंने घोड़े को बोला ....चल राजा ...सारी ज़िंदगी एक तरफ और ये एक घुड़दौड़ एक तरफ ...घोडा उदास हो गया ...बोला ताउम्र तुमको कहाँ कहाँ नहीं घुमाया ...सारे दर्द - जख्म बर्दास्त किये ...क्या मेरे लिए तुम इस घुडदौड़ को नहीं छोड़ सकते ...घोड़े की बातों में हल्का दर्द था ..मेरी अपनी मजबूरी थी ...उसकी अपनी ...'मुझे जितना था और उसे हारना नहीं था' ...दोनों भय में थे !
मै पैदल था ..और मेरे साथ मेरा घोडा ...रास्ते में मैंने पूछा ...ये बताओ ...तुमने मेरा चाबुक क्यों बर्दास्त किया ? घोडा बोला ....जान कर क्या करोगे ? मैंने बोला ...अब मेरा जानना जरुरी हो गया है ...यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है .. ! घोडा बोला ....याद है ..पहला सफ़र ...हम रात में एक जंगल में भटक गए थे ...मैंने बोला ..हाँ ..हाँ ...एकदम याद है ! फिर घोडा बोला ...और क्या याद है ? मैंने बड़े मासूम ढंग से बोला ....और कुछ नहीं ! घोडा बोला ...बड़े ही अजीब आदमी हो ...कोई घनघोर जंगल में भटक जाए और उसे कुछ याद नहीं रहे ..मै झुंझला गया ...बोला ...अरे यार ..बोला न ..मै आदमी हूँ ..ईश्वर का देन है - भूल जाना ...घोडा नहीं हूँ ..जो झखमो को याद रखूं ...! घोडा बोला ...तभी तो तुम घुड़सवार और मै घोडा  वो उदास हो गया ...फिर मैंने पूछा ...बोलो ..न ...उस रात क्या हुआ था ...जिस रात हम जंगल में भटक गए थे ..! घोडा बोला ...जाने दो ..अब जान कर क्या फायदा ...! अब मुझे गुस्सा आया ...बताओ भी ...! घोडा बोला ...तुम गुस्से में सचमुच प्यारे लगते हो ...फिर वो बोला ...उस रात हम जंगल में भटक गए ...हमारे पास खाने को बहुत कम बचा था ...हम दोनों भूखे थे ...बुरी तरह ...तुमने सारे चने मेरे सामने रख दिए ...फिर खुद तुम भूखे पेट सो गए ...तुम भूखे पेट सोते रहे और मै भरा पेट भी जागा रहा ...सारी रात तुमको देखता रहा ...कितने प्यार से तुमने अपना खाना भी मुझे दे दिया ...खाना देते वक़्त जो कुछ तुम्हारी निगाहों में मैंने देखा ....बस उन निगाहों की मासूमियत में ...मैंने तुम्हारे बाकी सारे चाबुक बर्दास्त कर लिए ! 
अब मै असमंजस में था ...अन्दर तक हिल गया ...खुद भूखे रह ..घोड़े को सारे चने खिला देना ..मेरी मजबूरी थी ...वरना ये भूखा घोडा दम तोड़ देता और मै सारी जिन्दगी उस भयावह जंगल में फंस के रह जाता ...मेरे स्वार्थ को इस जानवर ने प्रेम समझ लिया है ...मेरे कदम रुकने लगे ....मै घोड़े के मासूम निगाहों को देखना चाह रहा था ...हिम्मत नहीं हो रही थी ...
घोडा मेरी तरफ नज़रें उठा ..मुस्कुराया ..बोला ....'बोलो ...अब भी घुड़दौड़ की तरफ चलना है ? " 
उसके इस सवाल ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था ...फिर भी आदमी होने का घमंड / अहंकार ...मैं जोर से चिल्लाया ...."हाँ ..मुझे अब भी घुड़दौड़ में जाना है " ....

~ जनवरी - २०१३ - अन्तिम सप्ताह