Wednesday, June 22, 2011

बहस जारी रहेगी ...भाग एक !!

बहुत पहले की बात है ! एक दोस्त को इंजीनियरिंग में 'मैकेनिकल ब्रांच' मिला ! उसके बाबु जी का बयान था - 'जीप वाला नौकरी नहीं मिलेगा - एस डी ओ नहीं बन् पायेगा' ! बेहद निराशजनक शब्दों में ! शायद उसके बाबु जी की चाहत थी - सिविल इंजिनियर बनता - बिहार सरकार में इंजीनीयर होता - कंकरबाग में जमीन खरीदता - फिर उसमे चार मंजिला मकान - दरवाजे पर् एक जीप खड़ी होती ! दोस्त एकदम अड़ा रहा - पढूंगा तो मैकेनिकल ही वरना कुछ नहीं ! 

इस् पिता की अभिलाषा कहाँ से आई ? 

मेरे इस् मैकेनिकल दोस्त की एक दोस्त होती थी ! बेहद ख़ूबसूरत ! एक देर शाम "नोट्स" आदान प्रदान करना था ! अब उसके घर जाना था ! मै प्लस टू ज़माने में गैरों के लिये काफी 'सोबर' और नजदीक से जानने वालों के लिये 'बदमाश' ! अब दोस्त के 'दोस्त' के घर जाना था ! देर शाम था ! कार चलाने सिर्फ मुझे ही आता - ऊपर से मै काफी 'सोबर' - कहीं भी किसी से पहली मुलाकात में - एक इम्प्रेशन बढ़िया बनने का डर - मेरे दोस्त को सता रहा था ! खैर , मन मार् के वो मुझे लेकर गया !दोस्त के दोस्त के  घर पहुंचे ! एक ड्राईंग रूम खुला - वहाँ से दूसरा ड्राईंग रूम - फिर तीसरा ड्राईंग रूम ! मेरा माथा घूम गया ! टेंशन में हम सोफा पर् धम्म से जा गिरे ! ख़ाक ..इम्प्रेशन बनेगा ! तीन ड्राईंग रूम देख और तीनो बेमिसाल - 

हम तीन दिन तक सोचते रहे - बिहार सरकार ! 


मेरे गाँव में - हमारे घर के ठीक सामने वाले घर से - एक चाचा जी - इंजीनियरिंग में टॉप किये ! इंजीनियरिंग में टॉप बोले तो पक्का इंजिनियर - उनके फाईनल ईयर प्रोजेक्ट को देश भर में सहारा गया ! अब वो एम टेक करने लगे ! इरादा कुछ और था - होस्टल के लॉबी के सभी विद्यार्थी - यू पी एस सी दे रहे थे - ये भी बैठ गए ! आई ये एस बन् गए ! इनके बाबु जी इनको लेकर मेरे बाबु जी के पास आये ! सर झुका ! मेरे बाबु जी बोले - सर क्यों झुकाए हो ? हाकीम बन् गए :)) खुश रहो ! आई एस एस चाचा बोले - नहीं ....मन था अमरीका जा कर कुछ रिसर्च करता ! खैर हाकीमगिरी में अठारह साल गुजारे और अब देश के सबसे धनी व्यक्ती के कंपनी में सबसे बड़े मैनेजर हैं :)) 

क्या सामाजिक दबाब ने विश्व से एक बेहतरीन वैज्ञानिक नहीं छिन लिया ?? 

मार्च महीने में पटना जा रहा था ! राजधानी एसी टू में आर् ए सी ! साथ में उमर में काफी छोटा लड़का ! बात शुरू हुई - हम पूछे - बाबु क्या करते हो ? बोला - सर , मै फलाना स्टेट में फलाना अधिकारी हूँ ! मैंने बोला - हूँ ..आई ए एस हो - और मै मुस्कुरा दिया ! मेरी मुस्कान थोड़ी टेढी थी ! उसने हंसते हुए बोला - सर , मै ईमानदार रहूँगा ! मै जोर से हंस दिया ! वो काफी शरमा रहा था - टी टी को बुला - मैंने उसको फर्स्ट क्लास में भेज दिया ! 

क्या जरुरत आ पडी - उसको यह बोलने की - 'मै ईमानदार रहूँगा' ! 

बहस जारी रहेगी ....क्रमशः 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, June 10, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - गर्मी की छुट्टी

परसों ट्विटर पर् देखा ..जुही चावला अपने बच्चों के बारे में लिखी थीं - उनके बच्चे गर्मी की छुट्टी मनाने अपने 'ग्रैंड  पैरेंट्स' के पास गए हैं :) मेरे बच्चे भी चार जुन को पटना निकल गए ! मुझे भी जाना था पर् नहीं गया ! ट्रेन पर् बहुत खुश थे ...ट्रेन खुलते वक्त बच्चों ने फ्लाईंग किस दिया ...रमेश भी उसी ट्रेन से जा रहा थे   ..गेट पर् लटका हुआ थे  - बोले की - किसको फ़्लाइंग किस दे रहे हैं ? हम बोले ..नहीं भाई ...बच्चे खुश हैं ...उनको फ्लाईंग किस मार् रहा था ..और कुछ नहीं ! 

अपना बचपन याद आ गया ! बचपन से लेकर मैट्रीक की परीक्षा पास करने तक मैंने सभी गर्मी की छुट्टीयां 'गाँव में बाबा - दीदी ( दादी ) के साथ ही मनाया है ! मस्त ! हर उम्र की यादें साथ हैं ! 

दस बजिया - हिन्दी स्कूल से पढ़ा लिखा हूँ ! छमाही की परीक्षा खत्म होते ही 'पटना/मुजफ्फरपुर' का डेरा जेल सा लगने लगता था ! माँ बाबु जी किसी जेलर से कम नहीं ! गाँव से किसी के आने का इंतज़ार - फिर गाँव के लिये निकल पड़ना ! बाबू जी वाला जेनेरेशन पहला जेनेरेशन नौकरी था - गाँव से लोगों को लगाव था ! पूरा गाँव आ जाता था ! मजा आता ! 

सुबह में दरवाजा पर् बड़ा बाल्टी और बाल्टी में पानी और पानी में आम ! कहीं से भी खेल कूद कर आईये और एक आम :) मुझे आम चिउरा बहुत पसंद ! चिउरा को पानी में फूला कर फिर आम के रस के साथ - भर पेट नाश्ता ! फिर थोड़ी धूप निकल जाती - तो दालान में "वीर कुंवर सिंह" वाला नाटक खेलना ! शाम को "घोन्सार" से भूंजा आता - तरह तरह का - चावल का - चना का - मकई का - शाम को भर पाकीट भूंजा ! फिर खेल कूद ! 

लट्टू नचाना पसंदीदा होता ! बढ़ई के यहाँ जा कर गूँज ठोकवाना ..फिर लट्टू ..शाम को 'गुल्ली - डंडा' ...वो एक समय था - "गुरदेल का" ( गुलेल ) ! गाँव के दक्षिण से 'चिकनी मिट्टी' लाना - उसकी गोली बनाना और फिर गोली को धूप में सुखा - आग में पका - गुलेल चलाना ! उफ्फ्फ्फ़ ....

क्या लिखूं और क्या न लिखूं ? सप्ताह में दो बार - गाँव में हाट लगता था - बाबा चार आना देते थे ! चार आना में "भगाऊ महतो" के ठेला पर् खूब तीता "भूंजा" खाते ...दौड़ते भागते घर लौट आना ! गाँव के बाज़ार में "छुरी" बिकता - बहुत मन करता - एक मै भी रखूं - बाबा से जिद करता - बाबा अपने पॉकेट में एकदम कडकड़ीया नोट रखते थे - वहीँ से एक पांच रुपैया का नोट निकालते और मै एक छुरी खरीदता - घर लौटते - लौटते उंगली कट चुकी होती - घर में किसी को इज़ाज़त नहीं थी - डांटने की ! 'हजाम डाक्टर' आते ! मरहम पट्टी लगती ! फिर मै बाबा के साथ उनके हवादार कमरे में सो जाता ! बाबा के सिराहने एक बन्दूक - एक टॉर्च होता और खूब बड़ा मसनद ! 

आम से कुछ याद आया - अन्यथा नहीं लीजियेगा ! हम बिहार के 'छपरा जिला' वाले थोड़े गरीब होते हैं ! पुरे भारत में इससे ज्यादा उपजाऊ ज़मीन कहीं और की नहीं है - सो जनसँख्या ज्यादा है ! 'इज्ज़त बचाने' के लिये हम सम्मलित रूप से रहते हैं ! कई बगीचा हम 'पट्टीदारों' में संयुक्त थे ! वहाँ से आप तुडा कर आता था - परबाबा जिन्दा थे - आँख से अंधा - क्या मल्कियत थी ....सभी आम उनके सामने रखा जाता ..एक आदमी गिनती करता ...फिर सभी पट्टीदारों में बराबर ..हाँ , पहला हिस्सा 'राम जानकी मठ' को जाता ! इसको हमलोग 'मठिया' कहते थे ! मेरे परिवार के पूर्वजों का देन है - ट्रस्ट है ! इस् ट्रस्ट का मुखिया हमेशा हमारे परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ती ही होगा ! गाँव की सबसे बढ़िया ज़मीन इस् ट्रस्ट को दान दी हुई है - करीब पचीस एकड का एक प्लाट है ! 

आम बंटवाने का रोज का नियम होता था ! तरह तरह के आम - केरवा आम , पिलुहिया आम , बिज्जू , सेनुर ..मालूम नहीं कौन कौन ...! तब तक बड़े बाबा मुजफ्फरपुर से लकड़ी के बक्सा में पांच दस हज़ार लीची भेजवा देते थे ! शाही लीची ! दालान पर् रख दे तो दालान खुशबू से भर जाता ! 

दोपहर में नहाने में मजा आता ! 'इनार' पर् - बाबा के साथ ! लक्स साबुन घस घस के ! "पकवा इनार" ! धीरे धीरे इनार की जगह चापाकल ले लिया ! थोड़ी देर चापाकल चलाया जाता ! उसमे ठंडा पानी निकलता ! पानी एक बड़ा लोहे के टब में भरा जाता ! टब को चार आदमी पकड़ के 'बरामदा में लाते' वहाँ एक खूब बड़ा पीढा होता - उसपर बाबा नहाते ! लक्स साबुन से ! जनेऊ मे वो  अपना  अंगूठी बाँध देते ! फिर वो दुर्गा पाठ करते - सिर्फ धोती पहन ! फिर एकदम सात्विक भोजन ! पीढा पर् बैठ के - भंसा घर के कोना पर् - परदादी खुद बाबा का खाना परोसती - अंत में दही  ! यह एक ऐसी आदत लगी मुझे की मै कभी भी 'भोज भात' में नहीं खा पाता हूँ - खाते वक्त मै बिलकुल अकेला होना चाहिए ! आज भी - दोपहर का भोजन मै बिलकुल अकेले करता हूँ ! डाईनिंग टेबल पर वो मजा नहीं जो पीढ़ा पर पालथी मार के बैठ - खाने में आता था ! 

बाबा राजनीति में थे सो गोपालगंज में डाकबंगला मिला हुआ था - कई एकड में फैला हुआ - डाक्बंगला ! लाल बत्ती गाड़ी और एस्कोर्ट जीप और मालूम नहीं क्या क्या ! बाबा के साथ गोपालगंज निकल जाता ! बाबा नहा धो अपने राजनीतिक सफर पर् और मेरे साथ उनका खानसामा ! डाकबंगला के सामने दो होटल थे ! वहाँ से एकदम खूब झालदार , गाढा रस वाला 'खन्सी का मीट' एक प्लेट आता ! भात और मीट खा के एक नींद मारता !  बाबा एक जीप मेरे लिये डाकबंगला में रखवा देते थे और गोपालगंज के सभी 'सिनेमा हौल' को बोला होता था - मै कभी भी किसी भी सिनेमा हॉल में धमक जाउंगा - सो बिना किसी रोक टोक सिनेमा देखने दिया जाए ;) मेरी सबसे छोटी और मुझे सबसे ज्यादा मानने वाली फुआ वहीँ गोपालगंज के महिला कॉलेज में शिक्षिका थी - उसके डेरा पर् निकल जाता ! बहुत खातिर होता ! बहुत महीन और पढ़ा लिखा परिवार ! बैंक में पैसा रख भूखे पेट सोने वाला परिवार नहीं था - तरह तरह का सब्जी ! छोटा फुफेरा भाई था - हम जहाँ जाते वो मेरे पीछे पीछे !   

धीरे धीरे हम टीनएज हो गए ! गाँव में लगन का समय होता ! दिन में जनेऊ और रात में बारात ! स्कूल पर् बारात ठहरता ! अपना टीम था ! अब हम रात में "दुआर" पर् सोने लगे ! दादी बहुत ख्याल रखती ! बाबा के बड़ा वाला खटिया के बगल में मेरा भी खटिया लगता ! खूब बड़ा - एक दम टाईट बिना हुआ ! सफ़ेद खोल वाला तोशक और चादर ! दो बड़ा मसनद , एक सर के पास और एक पैर के पास ;) बगल में स्टूल - स्टूल पर् एक 'जग ठंडा पानी' और गिलास ! मुशहरी का डंडा और सफ़ेद कॉटन वाला मुशहरी ! रात में सब चचेरा भाई लोग के साथ 'स्कूल पर् रुके हुए बारात का नाच देखने के लिये फरार' ;) डर भी - कोई पहचान न ले ! कभी कोई हंगामा होता तो सबसे पहले हम भागते ! हा हा हा ! सोनपुर मेला से खरीदा हुआ "गुपती" साथ में होता - किसी पर् चल जाए तो भगवान भी न बचा पाये ! 

थोड़ा और बड़ा हुए तो चाचा का 'राजदूत मोटरसाईकील' ! मजा आ जाता ! चाचा बैंक में मैनेजर हैं ! अगर चाचा गाँव पर् नहीं हैं - बाबा भी नहीं हैं - फिर एक चेला मोटरसाईकील के पीछे ! 

मैट्रीक की परीक्षा के बाद मै जबरदस्ती गाँव गया और खेती सिखा ! बाबा एक बगीचा लगवाए थे ! बाबा ही नहीं - हम तीनो पट्टीदार ! अलग अलग जगह - बगीचा के बगल में पोखर ! सुबह सुबह बगीचा चला जाता ! दस बजे तक वहीँ रुकता ! फिर पम्प सेट चालू करवा - खूब ठंडा पानी में  छोटा वाला चौकी पर् 'गमछी' लपेट - जनेऊ धारण कर - नहाता ! फिर वहाँ से खाली पैर - एक किलोमीटर चल घर पहुँचता ! फिर शाम को बगीचा में - फिर नहाना ! 

आज भी बाबा से उस बगीचे का हाल जरुर पूछता हूँ ! बाबू जी दोनों भाई को बाबा ज़मीन बाँट दिए हैं - बगीचा का कौन सा हिस्सा मुझे मिला - बाबा कहते हैं - आ कर देख लो ! अपना सब ज़मीन पहचान लो ! 

आज उस ज़मीन से पेट नहीं भरेगा ! बहुत दुःख है ! कुछ और ज़मीन होता ! असली रईसी तो वहीँ है - जो जमीन से जुड़ा है - बाकी सब तो ...खोखला है ! ज़मीन ऐसा चीज़ है ..टाटा - बिडला भी ईमानदारी से नहीं खरीद सकते :)) 

मेरे बच्चे पटना गए हुए हैं - गाँव भी जायेंगे ! 'मल्कियत' तो नहीं रही - फिर भी  कुछ तो एहसास होगा ....समय बदल गया है ...फिर भी ..कुछ चीजें इतनी जटिल होती हैं ..उनको बदलने में कई जेनेरेशन लग् जाता है !! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !