Monday, April 25, 2011

एक सच्ची कहानी ....भाग - एक

बात चार साल पुरानी है ! मेरे 'हेड' जो भारत सरकार के वैज्ञानिक रह चुके थे अचानक से हमारे यहाँ से छोड़ कर चले गए ! जिम्मेदारी मेरे कंधो पर आ गयी ! मुश्किल घड़ी थी - तब जब आपके डिपार्टमेंट में करीब चालीस 'पढ़ी लिखी' महिलायें हो :( मैंने अपनी मुश्किल ऊपर तक पहुंचाई और मुझे 'एम टेक ( कंप्यूटर इंजिनीयरिंग)' का इंचार्ज बना दिया गया और डिपार्टमेंट के झमेले से छूटकारा मिल गया  ! यह कोर्स विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ही था ! खैर जुलाई का महीना था - कॉलेज में छुट्टी हो गयी और मै इस कोर्स के चलते छुट्टी पर नहीं जा सका ! यहाँ एक नियम था की सिर्फ - प्रोफ़ेसर रैंक के ही शिक्षक पढ़ा सकते हैं ! अब कंप्यूटर इंजिनीरिंग में प्रोफ़ेसर पास के आई आई टी में ही थे और उनके नखरे इतने की मुझे उनमे से किसी को बुलाने की हिम्मत नहीं हुई ! तभी अचानक एक वैज्ञानिक एवं भारत सरकार के एक शिक्षण संस्थान के प्रोफ़ेसर के बारे में पता चला ! मैंने उनके नाम के लिए - अपने वाईस चांसलर से परमिशन ले लिया ! उनकी उम्र करीब अस्सी को होने को आयी थी ! उनको लाने  और ले जाने के लिए - मुझे संस्थान से गाड़ी मिली थी पर उनकी इज्जत के लिए मैंने सोचा की - मै खुद उनको लाऊंगा और ले जाऊँगा ! तब मै सहायक प्राध्यापक था ! 

मेरी एक आदत है - जब मै किसी भी व्यक्ति से मिलता हूँ - उनके बारे में 'गूगल' में थोडा खोज बिन कर लेता हूँ ! इस प्रोफ़ेसर साहब के बारे में भी थोड़ा सर्च किया - हालांकी उनका बहुत छोटा और एक पन्ने का रेज्यूमे मेरे पास था ! थोडा इन्फो हंगरी हूँ ! गूगल पर खोज किया ! 

उनको क्लास लेने के लिए - मेरे यहाँ करीब पन्द्रह दिन आना था ! उनको लाते - ले जाते फिर क्लास के बीच चाय पानी फिर उनका मेरे केबिन में बैठना - जान पहचान और अपनापन बढ़ता गया ! मै उनसे 'कंप्यूटर इंजीनियरिंग' के सवाल न के बराबर पर जीवन दर्शन पर उनकी सोच के बारे में पूछता ! 

जो कुछ उन्होंने खुद के बारे बताया - वो इस प्रकार था - उन्होंने अपनी पी एच डी सन 1957 में विक्रम साराभाई के गाईड में की - उनके वाइवा लेने के लिए अमरीका से प्रोफ़ेसर आये थे - संयुक्त राष्ट्र संघ के ! फिर वो अमरीका के सबसे मशहूर विश्वविद्यालय में शिक्षक बने - जिंदगी मजे में गुजर रही थी - कहते हैं - एक दिन अचानक उनके पास भारत से फोन आया - 'श्रीमती गाँधी अब आप से बात करेंगी ' - श्रीमती गाँधी - " देश को आप जैसे लोगों की जरुरत है - अगर आप भारत लौट आयें तो देशवासीओं के साथ साथ मुझे प्रसन्नता होगी " ! वो कहते हैं - कौन ऐसा देशभक्त होगा जो सीधे प्रधानमंत्री से बात कर देश नहीं लौटेगा - मै अगले महीने ही 'भारत लौट आया' ! श्रीमती गाँधी ने बहुत इज्ज़त दी और धीरे - धीरे मै भारत सरकार के सभी 'विज्ञानं और तकनिकी प्रयोगशाला' में अपना योगदान दिया ! एक प्रधानमंत्री के लंबे कार्यकाल में मै 'उनका तकनिकी सलाहकार' बना ! ( पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद , राष्ट्रपति बनने के पहले इसी पोस्ट पर थे ) !

कई बार मुझे अजीब लगता ! इतना बड़ा आदमी ! सरकारी बस से अपने संस्थान में आता है ! अस्सी के उम्र में भी पढाता है और पढता है ! मेरी रुची उनके बारे में जानने को और बढ़ी - मै गूगल के तरफ मुखातिब हुआ ! वैज्ञानिक लोग या शिक्षक देश विदेश के जर्नल में अपना 'पेपर' लिखते हैं - इनको भी आदत थी ! रक्षा के बड़े बड़े कंपनी अपने प्रोडक्ट के बारे में रक्षा से सम्बंधित मैग्जीन में निकालते हैं या कुछ फ्री सैम्पल विभिन्न सरकारों को भेजते हैं ! सो , इन्होने एक प्रोडक्ट का ट्रायल रिपोर्ट विदेश की किसी मैग्जीन वाले को भेजा ! कुरियर कंपनी को संदेह हुआ ! उसने कुरियर खोला और कुछ तकनिकी चीज़ें मिली ! केस दर्ज हुआ ! रातों रात छापा पड़ा ! कहीं कुछ भी नहीं मिला ! "जासूसी उपन्यास और मसाला " के लिए पुलिस अधिकारी बुरी तरह पीछे पड गए ! ( बड़े अधिकारी ) ! 

इनको कोर्ट ने बा इज्ज़त बरी कर दिया - सी बी आई के किसी अधिकारी की अहंकार को ठेस पहुँची थी ! उसने फिर से केस खुलवाया ! ऊपर वाले कोर्ट में अपील हुआ - देश के साथ विश्वासघात का ! देशद्रोह का ! केस दस साल चला - इस बीच इस गरीब ब्राह्मण ने अपने बड़ी पुत्र को खोया ! पूरा परिवार डिप्रेशन में ! वो सब कुछ बेच अपनी कोई इज्ज़त और प्रतिष्ठा के लिए लड़ रहे थे ! अंत में सुप्रीम कोर्ट ने जबरदस्त फटकार "बड़े पुलिस अधिकारिओं" को लगाईं और इनको बा इज्ज़त बरी किया गया ! इस बीच बारह साल बीत चुके थे ! 

इनको एक संस्थान में प्रोफ़ेसर एमिरीटस नियुक्त किया गया ! कुछ साल वो यहाँ बिताए - इसी दौरान मेरी उनसे मुलाक़ात हुई ! 

मै इस कहानी को जिस दिन जाना - रात भर नहीं सो सका ! अगले दिन जब उनसे मिला तो मै उनके चरण स्पर्श किया और आँख में आंसू आ गए - वो पूछे - क्यों रो रहे हो - मैंने झूठ बोला - आपको देख 'दादा जी' की याद आ रही है - छुट्टी मिलता तो गाँव घूम आता ! वो हंसने लगे - कहे मुझे भी गाँव जाना है - मेरी माँ ने मुझसे वादा माँगा था - जीवन में कुछ पैसे बचा लिया तो - गाँव के प्राथमिक विद्यालय को डोनेट करूँगा ! मेरे पास कुछ रुपैये बचे हैं - दो साल से लगा हूँ - गाँव का प्राथमिक विद्यालय लगभग तैयार हो चूका है ! 

मै हतप्रभ था - पावर के घमंड में चूर अधिकारी इनके जीवन से इनके पुत्र को छीना - आप जीवन में उच्च शिखर पर हैं - प्रधानमंत्री से हर हफ्ता मिल रहे हैं - अचानक आपके हाथ हथकड़ी और फिर बारह साल की लड़ाई ! फिर भी प्राथमिक शिक्षा के लिए यह व्यक्ति अपना सब कुछ लगा रहा है और वो भी अस्सी वर्ष की आयु में - उसी जोश से ! वो बार बार कहते रहे - 'प्राथमिक शिक्षा और शिक्षक' का बहुत रोल है जीवन में ! इनको इज्ज़त देना सीखिए !

 वो अपना मोबाईल नहीं रखते थे ..जब तक वो पढ़ाते रहे ..मै कोशिश करता रहा ..उनसे मिलूं ..और मिला भी ...उनकी पूरी कहानी नहीं छाप रहा हूँ ....पर ..बहुत दर्द छिपा था ...और हमेशा मुस्कुराते ...और मै .....

क्रमशः

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Saturday, April 23, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - दादी की कहानी :))

मुजफ्फरपुर में रहते थे ! बात 1978 -1979 की रही होगी ! बड़ी दादी - हर शाम एक कहानी सुनाती थी ! उन्ही कहानी में से एक 'कहानी' जिसे आप सभी भी सुने होंगे - लिख रहा हूँ ! 

एक बारएक चिड़िया कहीं से दाल का एक दाना चुग कर ले जा रही थी ! रास्ते में सुस्ताने के लिये वो एक 'खूंटा' के ऊपर बैठ गयी ! तभी उसके चोंच से 'दाल का दाना' खूंटा के अंदर जा गिरा ! अब बेचारी 'चिड़िया' परेशान हो गयी ! बहुत दुखी :( सोचने लगी दाल का दाना कैसे वापस मिले ..इसी सोच में वो 'बढ़ई' के पास गयी ! बढई से बोली - ' बढ़ई - बढ़ई ..खूंटा चीर ..खूंटा में हमार दाल बा .का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं' ! बढ़ई कुछ देर सोचा फिर बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये ..हम खूंटा नहीं चीरेंगे ..मुझे और भी काम है ! 

चिड़िया और दुखी हो गयी और वो 'राजा' के पास गयी और राजा से बोली - राजा राजा ..बढई के डंडा मार् ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ..खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का लेके परदेस जाईं ..! राजा हँसे लगा - बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये हम 'बढ़ई' को क्यों मारे ..जाओ भागो यहाँ से ..मुझे और भी जरूरी काम है ! 

राजा से ना सुन ..चिड़िया और भी दुखी हो गयी ! कुछ हिम्मत रख वो 'सांप' के पास गयी और सांप से बोली - सांप सांप ..राजा डंस ..राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! सांप को भी अजीब लगा वो चिड़िया से बोला - तुम बेवकूफ हो , तुम्हारे एक दाना के लिए मै राजा को डंसने वाला नहीं हूँ ..जाओ ..भागो यहाँ से ..मुझे अभी सोना है !

अब चिड़िया को गुस्सा आया और वो 'लाठी' के पास गई ! लाठी से बोला - लाठी ..लाठी ..सांप मार ..सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! लाठी को भी अजीब लगा और उसने चिड़िया को भगा दिया !

लाठी से ना सुन ...अब चिड़िया 'आग' के पास गयी ! आग से विनती किया - आग आग ...लाठी जलाव ..लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! आग को बहुत गुस्सा आया ....और वो चिड़िया को भगा दिया और बोला ..मुर्ख चिड़िया ..मै तुम्हारे एक दाना के लिए ...लाठी को जला दूँ ...ऐसा कभी नहीं हो सकता ..भागो यहाँ से ...!

अब चिड़िया हताश हो गयी और अंत में वो अपनी सहेली 'नदी' के पास गयी ! नदी को वो अपनी बड़ी बहन जैसा मानती थी ...रोज नदी में डूबकी लगा नहाती थी ...नदी को बोली - ' नदी ..नदी ..आग बुझाओ ..आग ना लाठी जलाव ...लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! चिड़िया की व्यथा सुन ..नदी को तरस आ गया ..और वो सोची ...चलो ..बेचारी चिड़िया का मदद किया जाए ...और नदी निकल पडी ..आग बुझाने ..नदी को अपने तरफ आता देख ..आग डर गया ..और बोला ..अरे नदी ..मै अभी लाठी को जला कर आता हूँ ...आग को देख लाठी भी डर गया और वो बोला ..रुको ..मै अभी सांप को मारता हूँ ...लाठी देख ..सांप तेज़ी से राजा के तरफ भागा ..राजा को डंसने के लिए ....सांप को देख ..राजा ने बढ़ई को बुलवाया ...राजा के भय से ...बढ़ई तुरंत खूंटा को चीरने को तैयार हो गया ...बढ़ई को आता देख ...खूंटा बोला ..ए भाई ..हमको क्यों चिरोगे ...बस हमको उल्टा कर दो ...दाल का दाना खुद निकल जाएगा ...बढ़ई ने खूंटा को उल्टा किया और ..दाल का दाना बाहर निकल आया ..चिड़िया ..उसको अपने चोंच से पकड़ कर ...सबको धन्यवाद करके ...फुर्र्र से उड गयी ..:))

हम्मम्मम ....सो बच्चों और उनके माता - पिता  ...दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है ...बस ...एक हिम्मत और प्रण चाहिए :))

कहानी कैसा लगा ....कम्मेंट देंगे ..या फेसबुक पर लाईक करें ...:)) 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Sunday, April 3, 2011

क्रिकेट जूनून है ....

कल रात मै दंग था ! हतप्रभ था ! बालकोनी से देखा - रात 'बारह' बजे - लोग सडकों पर् ! 'चिल्ला रहे थे' ! ऐसा वीकेंड कभी नहीं देखा ! जिस किसी ने भी इस् खुशी को हम सब को दिया - उनको शत शत 'नमन' ! 

हम एक गरीब देश थे ! 'खुशी' का इज़हार कभी सीखे ही नहीं ! टी वी पर् देखता था ! जर्मनी - इंग्लैण्ड में फूटबोंल मैच के बाद 'सडकों' पर् आया जाता है ! जोर जोर से चीखा जाता है - चिल्लाया जाता है ! हमें कभी मौका ही नहीं मिला की हम भी 'चीख - चिल्ला' दुनिया की इलीट क्लब में शामिल हो सकें ! 

सच पूछिए तो 1983 का वर्ल्ड कप जब भारत जीत गया तब 'हमको' पता चला था :( तब जा कर मैंने "खेल भारती' ( संपादक - डा० नरोत्तम पूरी ) और 'क्रिकेट सम्राट' - 'स्पोर्ट्स स्टार' जैसे पत्रिकाओं के मध्यम से 'खेल की दुनिया' को जाने ! "किर्ती आज़ाद' की पारी आज तक याद है - जवाहर लाल स्टेडियम में ! बाद में पता चला की - इनका पूरा नाम - 'किर्ती झा आज़ाद ' है :)) 

1985 में भी गावस्कर के नेतृत्व में "बेन्सन और हेजेज' ट्राफी जीते थे - ऑस्ट्रेलिया में ! एक एक मैच का गवाह हूँ ! कसम मेरे 'अटारी कलर टी वी' का ! रवि शास्त्री को "औडी" कार मिली थी ! फिर भी हिम्मत नहीं हुई थी - 'सडकों' पर् आकार "चीखूँ - चिल्लाऊँ" ! औडी तो बस टी वी में दिखा था :( आज कई दोस्तों के पास है - एक ने तो दो - दो रखी है ! हमउम्र है - दो चार साल ज्यादा ! 1985 से दीमाग में "औडी" घुसा हुआ होगा - आज पैसा हुआ तो एक को कौन पूछे - दो दो खरीद लिया :)) 

क्रिकेट जूनून है ! जिला स्कूल मुजफ्फरपुर में था - क्लास वालों ने 'कैप्टन' बनाने से मना कर दिया - तब हम क्लास के "मुकेश अम्बानी" हुआ करते थे ;) बेचारों को मुझे 'कप्तान' बनाना ही पड़ा ! नंबर पांच का बैट होता था - मेरी ही ऊँचाई का ! लिकोप्लास्त को साट के उसको कई वर्ष जीवित रखा ! पटना आया तो ज्यादा नहीं खेल पाया ..........तृष्णा को 'टी वी ' में देख तृप्त किया ! 

क्रिकेट खुदा है ! परबाबा के छोटे और चचेरे भाई थे - "छोटका बाबा" - संतोष रेडियो पर् दिन भर कमेंट्री सुनते थे  और उस जमाने में - रवि शास्त्री की धीमी पारी के सबसे बड़े आलोचक ! मेरी याद में ..मैंने उनको गाँव से बाहर कभी जाते नहीं देखा - पुत्र सभी अपने अपने 'कैरियर' में बहुत ऊँचाई पर् है - उनके साले साहब भी 'भारत के प्रमुख डाक्टर थे ! क्या जूनून था - पुरे स्टेडियम और खेल की कल्पना वो रेडियो पर् ही कर लेते थे ! दिन भर पान खाते और कमेंट्री सुनते थे ! 

हल्की याद है - बेदी की - प्रसन्ना की - चंद्रशेखर की ! बाबु जी अक्सर 'चंद्रशेखर' की बौलिंग की कहानी बताते ! हम भी उनकी बौलिंग बिना देखे - कल्पना कर लेते ! 'गावस्कर - कपिलदेव" पर् तो खुद भी कई बार दोस्तों से 'खून खराबा' कर चुके हैं :)) 

"कैरी पैकर" समय से कितना आगे थे ....आज वही सब "आई पी एल" में हो रहा है ! चैनल 9 से हमने 'प्रसारण' सीखा ! सुबह सुबह टी वी पर् ऑस्ट्रेलिया वाला खेल देखना और वहाँ के 'दर्शकों' को देखना ! एक एहसास था - हम उनके जैसे नहीं हैं ! ठण्ड के दिनों में - रजाई में दुबक कर 'मैच' देख लेना - बस जीत को स्कूल के दोस्तों तक इज़हार करना ! 

कल पुरस्कार समारोह में कई वर्षों बाद 'क्लाईव ल्योड़' दिखे ! उफ्फ्फ ...आज भी याद है ...उनके मैल्कम मार्शल ....जिनकी बहुत बड़ी तस्वीर मेरे कमरे में होती थी ! मालूम नहीं ..कितने लोगों ने उनको पहचाना ! 

पर् मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतिओं ने देश को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया ! इस् देश में 'अज़ीम प्रेम जी - नारायण मूर्ती' पैदा लिये ! "राजू - रजत गुप्ता - मोदी" भी पैदा लिये ! जी - राजा और निरा राडीया भी ! 

हम सभी में आत्मविश्वास आया - अब हमने भी सडकों पर् "चीखना - चिल्लाना" सीख लिया है ! क्या अम्बानी - क्या सोनिया - क्या हम - क्या तुम ! 

आगे क्या लिखूं ......अचानक से आज एक खालीपन है .....! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !