Tuesday, January 18, 2011

"समाज"

एक घटना सुनाता हूँ - बहुत पहले की बात है ! गाँव में एक अपवाह थी की मेरे बड़े परबाबा के पास बहुत पैसा है और वो पैसों को घर में ही रखते हैं - गाँव के एक थोड़े बदमाश व्यक्ती को यह पता चला तो उसने चोरी करने की कोशिश की - रात में वो 'दालान' में चोरी करने आये - मेरे बाबा ने उनको पकड़ लिया  ! सुबह गाँव के लोग आये और एक छोटी सी पंचायत और मेरे परबाबा के कारण उनको छोड़ दिया गया !  पुलिस - केस - मुकदमा नहीं हुआ ! इस घटना को हुए करीब चालीस साल हो चुके होंगे ! जिन्होंने चोरी करने की कोशिश की - वो गाँव छोड़ कर चले गए फिर कभी वापस नहीं आये ! लोग कहते हैं - कुछ दूरी पर् किसी गाँव में बस गए और जब कभी अपने गाँव का कोई मिलता तो मुह गमछी से ढक लेते थे ! चोर थे - चोरी किया पर् एक शर्म भी - आँखों में ! वो शर्म उन्हें गाँव के समाज ने दिया था ! 

इस घटना पर् मै ज्यादा कुछ और नहीं बोलूँगा पर् वर्तमान में ऐसा नहीं है ! अभी हाल में गाँव गया था - पता चला की 'फलाना बाबु' का बेटा बदमाश हो गया - कुछ 'केस - मुक़दमे' भी चल रहे हैं ! रात - दिन 'कट्टा' साथ में ही रखता है ! जब मूड आया किसी को 'गरिया' दिया ! कोई उसको टोकने - बोलने वाला नहीं है ! गाँव के ही एक शिक्षक को उसने कुछ गाली दे दी ! फिर अगले दिन 'शिक्षक' के ही काफी करीबी 'पट्टीदार / गोतिया' के दरवाजे पर् लंबी - चौड़ी बातें कर रहा था ! मैंने कुछ लोगों से बोला - आप सभी उसे समझाते क्यों नहीं हैं ? जबाब आया - 'गुंडा - मवाली' को कौन समझाए और दोस्ती है तो कभी काम ही आएगा ! 

समाज महत्वहीन हो गया है !मुझे बिलकुल याद है - गाँव के किसी लडके के यहाँ कोई बरतुहार  आया तो सभी बुजुर्ग लडके के दरवाजे पर् पहुँच कर - लडके के पिता जी को समझा बुझा कर 'फैसला' हमेशा से 'लडकी' वाले के ही फेवर में देते थे - उस फैसले को 'लड़का वाला' मानने को विवश होता था ! अब ऐसा नहीं है - शादी और लेन - देन बंद कमरे में होने लगी है ! बिहार लोक सेवा आयोग के एक मेंबर परिचित थे - कहते थे - मैंने कई जान पहचान वाले लड़को को - डिप्टी कलक्टर - डीएसपी - बनने में मदद की ! आशा के अनुसार - वो वैसे लड़कों के यहाँ 'बरतुहार' ( लडकी वाला ) को भेजा करते  थे - लड़का वाला का जबाब - फलाना बाबु का 'पैरवी' लेकर नहीं आईये ! 

कभी कभी लगता है - लोगों के आँखों में शर्म खत्म हो गयी है ! "लिहाज" भी समाप्त है ! बचपन में देखता था - गाँव के कई छोटे चाचा  लोग 'खैनी' खाते थे - बाबु जी या बाबा के सामने नहीं ! गलती से "चुनौटी" दिख गया तो आँख नीची कर के 'निकल' पड़ते थे ! अब शायद ऐसा नहीं है ! 

बड़े बाबा मुजफ्फरपुर में रहते  थे - मेरे बाबु जी - मेरे चाचा - फुआ लोगों के शिक्षा का "कर्तव्य" उनके ही सर पर् था ! यूँ कहिये - एक जमाने में - पुरे इलाके का ! इस आधार पर् ही जब हम लोग पटना आये तो चाचा की बेटी को साथ रखने लगे क्योंकि चाचा बैंक में थे और ग्रामीण पोस्टिंग थी - एक बहुत बड़े खानदान के - एक बहुत ही बड़े डॉक्टर ने 'कमेन्ट' किया हमलोगों पर् - "आप लोग पिछड़े हैं" :)) 


"लोग क्या कहेंगे ? " जबरदस्त ताकत वाला वाक्य है ! पर् अब किसी को इसका ख्याल नहीं है ! लोग हर बंधन से आज़ाद होना चाहते हैं ! इस आज़ादी में ही 'सामाजिक बंधन' कमज़ोर हो रहे हैं ! कोई भी  किसी भी और के लिये - अपनी छोटी सी भी 'खुशीओं' का बलिदान नहीं देना चाहता है ! कल तक गाँव पराया था - आज भाई पराया है - कल माता पिता पराये हो जायेंगे और परसों आपके बच्चे आपको 'पराये' घोषित कर देंगे ! 


तथाकथित "समाज शास्त्र" के विद्वानों के कमेन्ट की आशा में ....


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, January 14, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - मकर संक्रांति

कॉलेज के लिये निकलते वक्त हर रोज देर हो जाती है ! आज भी हुआ ! नहा कर सीधे पूजा घर में चला जाता हूँ ! वहाँ गया तो देखा की - सब कुछ सजा हुआ है - 'दही - तील - तिलकुट , गुड़ , चिउरा' ! तुलसी चौरा से तुलसीदल को निकाल कर सभी पर् डाला ! पत्नी ने झट पट 'टपरवेयर' के लंच बॉक्स में चुरा दही सब्जी गुड़ तिलकुट डाला ! 

हर पर्व की तरह बचपन याद आ गया ! पहले 'गीजर' नहीं होता था - होता भी होगा तो हम जैसों के यहाँ नहीं था ! बडका 'तसला' में पानी चुल्हा पर् चढ जाता था ! गरम हुआ तो - बाल्टी में डाला , नहाया फिर बडका "फुलहा" कटोरा में दही चिउरा ! अनुपात इस प्रकार होता था - सबसे कम चिउरा  , उससे ज्यादा दही और फिर सबसे ज्यादा चीनी :)) , छोटका कटोरी में 'आलू दम का सब्जी - गोभी और - मटर' या फिर 'मिर्च का अंचार' :)) 

गाँव में रहता था तो - 'ईनार' का पानी गर्म - वहीँ बडका पीढा पर् - बाबा के साथ नहाना ! फिर कांपते हुए अपने  से बड़ी औकात वाली 'खादी के  गमछा' को लपेट हाथों को सीने से लगा - कापते हुए आँगन में जाना ! फिर कुछ नया कपड़ा पहन - बाबा का इंतज़ार करना ! फिर बाबा के साथ - दही - चिउरा इत्यादी !! 

हम तीन पट्टीदार होते थे ! सबके यहाँ से 'चावल - दाल - हल्दी और आलू' आ जाता था ! परबाबा जो तब तक अंधे हो चुके थे - उनसे सभी सामान को 'छुआया' जाता था - फिर घर का कोई मुंशी मैनेजर दरवाजे पर् चौकी लगा के बैठ जाता - दिन भर ..मालूम नहीं कहाँ कहाँ से लोग आते ...करीब दो तीन हज़ार ..सबको एक बड़ा गिलास चावल , एक मुठ्ठी दाल , दो हल्दी का टुकड़ा और एक चुटकी नमक और दो तीन आलू .....मै भी कभी कभी वहीँ कुर्सी लगा के बैठ जाता था ! अच्छा लगता था ! यह सिर्फ मेरे घर में नहीं था ....गाँव के हर बाबु लोग के दरवाजे पर् यही हाल होता था ! 

दिन भर लाई और लटाई का चक्कर होता ....:)) 

मेरे ससुराल के परिवार में एक बहुत अच्छी परंपरा थी - इस दिन वो सभी लोग अपने सभी दोस्त - सम्बन्धी को 'दही' भेज्वाते हैं....वहाँ दो तीन पहले से करीब सौ दो सौ किलो दही जमता है ...फिर वो सभी दही 'पटना' पहुंचा ....और सभी दोस्त महीम सगे सम्बन्धी के घर पहुंचाया जाता था ! दो तीन साल पहले तक - जब तक सास जिन्दा थीं यह परंपरा चलते रहा ! अब का नहीं पता ....कई लोग तो अपने घर 'दही' जम्वाते तक नहीं थे - की 'फलाना बाबु' के यहाँ से आएगा ही - एक बड़ा 'नदिया दही' :)) 1996 में मेरे ससुर जी आज के ही दिन एक नदिया दही - बेसन की मिठाई और अपनी बेटी का टीपण ( जन्म कुंडली ) मुझे दिए थे ....हर साल आज के दिन वो पल याद आता है ....

माँ के एक ही मामा जी थे - गया जिला के ! हर साल वो सिर्फ एक बार आते थे - मकर संक्रांती के दिन ! तिलकुट लेकर और बासमती चिउरा ! कुछ देर रुकते फिर चले जाते ! 

कल रात देखा - सोसाईटी में - पंजाबी लोग बहुत जोरदार ढंग से 'लोहडी' मना रहे थे .....

आप सभी को मकर संक्रांती की शुभकामनाएं .....

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !