Friday, December 2, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस् - पत्र पत्रिका

मैंने शायद पहले भी लिखा है रांची के डोरंडा मोहल्ले के नेपाल हॉउस में नाना जी रहते थे और करीब पांच बजे दिल्ली वाला टाईम्स ऑफ इंडिया आता था ! बरामदे में अखबार वाला अखबार को सुतरी से बाँध फेंक जाता था ! मै अखबार की तरफ दौड पड़ता ! आर् के लक्ष्मण के कार्टून को देखने के लिये ! अखबार से जुडी यह मेरी पहली याद है !

रांची प्रवास के दौरान ही मौसी की पहली पोस्टिंग इटकी ( रांची के पास ) हुई थी ! एक ट्रक नुमा बस फिरायालाल से खुलती थी ! दो तीन दिन इटकी में रहा फिर मौसी के साथ वापस ! वहीँ फिरायालाल के पास लौटते वक्त मौसी मेरे लिये पराग और पौप्पिंस खरीद देती थीं ! पराग मेरे उम्र के लिये नहीं था मुझसे बड़े बच्चों के लिये था पर् पराग पढ़ने के बाद कुछ और पसंद नहीं आया ! चम्पक और चंदा मामा कभी नहीं पढ़ा ! और फिर पराग से सीधे कादम्बिनी J ! फिर नंदन ! फिर अमर चित्र कथा ! पागलों की तरह पढता था ! धर्मयुग ! पत्र पत्रिका के चलते बहुत बचपन में ही बहुत कुछ बहुत जल्द समझ में आया गया जिसके कारण जीवन में बहुत चमकीली चीज़ें बहुत फीकी लगती थी ! खैर ..

मुजफ्फरपुर लौटा ! यहाँ दर्शन हुए आर्याव्रत और इन्डियन नेशन से ! बड़े बाबा मिजाज़ से बहुत रईस थे ढेर सारे अखबार वो खरीदते थे जाड़े के दिन में पूरा मोहल्ला दरवाजे पर् आ जाता था अखबार पढ़ने के लिये बदले में उनलोगों को बड़े बाबा का गप्प सुनना पड़ता था ! बड़ी दादी रोज अखबार वाले को धमकी देती थीं ! सर्च लाईट प्रदीप !

पिता जी जब पीजी में एडमिशन लिये तब हम सपरिवार मुजफ्फरपुर में ही दूसरे जगह शिफ्ट कर गए ! यहीं मुझे अमर चित्र कथा पढ़ने का मौका मिला ! इंद्रजाल कॉमिक्स वेताल बहादुर फैंटम ! अमर चित्र कथा के माध्यम से ही मैंने भारत वर्ष को जाना ! फिर अचानक से स्माल पॉकेट बुक्स में राजन इकबाल सीरीज ! पागल की तरह ! एक अटैची भर गया राजन इकबाल से ! दोस्तों से एकदम सिनेमा माफिक सीधे अटैची का आदान प्रदान ! एक दो साल खूब पढ़ा ! एक रविवार बाबु जी के पॉकेट से  मैंने पचास रुपैये भी चुराए किंग कॉंग खरीदने के लिये ! दो चटकन में मुह से सब चोरी निकल गया ! L नंदन में राजा राजकुमार की कहानी J

पिता जी का पीजी समाप्त हुआ और वो अचानक से सभी अखबार और पत्र पत्रिकाएं खरीदने लगे ! देर शाम वो अपने लम्ब्रेटा के बास्केट में सभी अखबार और पत्र पत्रिकाएं ले आते थे ! मै किसी और को छूने नहीं देता ! सारिका से परिचय वहीँ हुआ ! इलस्ट्रेटेड वीकली , धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान ! तीनो काफी लंबे चौड़े मैग्जीन होते थे ! करीब एक दो साल जम के सारिका पढ़ा ! हिन्दी साहित्य की समझ और समाज से परिचय हुआ ! तब तक मै हाई स्कूल भी नहीं गया था ! जितनी कम उम्र में जितना पढ़ा और समझ में आया एक आश्चर्य है मेरी हिन्दी उतनी ही कमज़ोर है L


भारत क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता ! डा० नरोत्तम पूरी की खेल भारती से परिचय हुआ और और खेल भारती को तब तक पढ़ा जब तक वो छपता रहा ! इसी टाईम में टीनएजर के लिये सुमन सौरव आया ! मै कभी नहीं पढ़ा एक बार एक नज़र देखा और एक दोस्त के मुह पर् मारा ई सब बउआ लोग के लिये है ! मुझे सारिका पढ़ने दो ! ;)

इसी दौरान क्रिकेट सम्राट आ गया ! उसमे किसी खिलाड़ी का पोस्टर होता था ! वो पोस्टर मेरे कमरे में चिपक जाता था !

बाबा राजनीति में थे सो उनके अटैची में माया रखी होती थी ! चुप चाप माया को निकाल दिन भर पढ़ना ! दिनमान और रविवार भी बाबु जी खरीदते थे ! शायद दिनमान में पिता जी के एक सीनियर दोस्त के साले साहब काम करते थे !


खैर , पटना आ गया ! मामा लोग इन्टेलेकचूयल टाइप थे ! इंडिया टूडे और रीडर्स डाईजेस्ट हाथ में लेकर घुमते थे ! इण्डिया टूडे को पीछे से पढ़ना J तब वो पाक्षिक होती थी ! पटना आने पर् एक खुशी यह हुई की यहाँ सुबह में ही अखबार मिलता था ! स्पोर्ट्स का पेज लेकर गायब J किसी कोना में मैल्कम मार्शल के बारे में पढ़ रहा हूँ J  क्रिकेट सम्राट चालू रहा ! पुरे कमरे में वेस्ट इंडीज के खिलाड़ी का पोस्टर ! एक बार गाँव से कोई आया वो मेरे कमरे में ही ठहरे एक सुबह सुबह बोले भोरे भोरे ई करिया करिया सब का चेहरा देख जतरा खराब हो जाता है ;)

खैर ..पटना में पाटलिपुत्रा टाइम्स आज इत्यादी से परिचय हुआ ! मैट्रीक में रहा हूँगा नव भारत टाईम्स और टाईम्स ऑफ इंडिया पटना पहुँच गयी ! हाँ , आठवीं में ही हर शाम दिल्ली के अखबार मै अपने पॉकेट मनी से खरीदने लगा ! शाम पांच बजे तक कंकडबाग में दिल्ली वाले मोटे मोटे अखबार आने लगे !

हम लोग पटना में किराया पर् थे मकानमालिक के सीढ़ी घर में एक बड़ा ट्रंक होता था हिन्दी साहित्य की सभी मशहूर किताबें ! आठवीं में सब पढ़ गया ! स्कूल से आने के बाद सीढ़ी घर में एक हाथ में अमरुद और एक हाथ में एक उपन्यास ! चुप चाप पढ़ना और फिर जहाँ से किताब निकाला वहीँ रख दिया !

प्लस टू में गया तो रीडर्स डाईजेस्ट ! हर दूसरा अंक में हाउ टू सेभ यूर मैरेज हा हा हा हा ..तब नहीं बुझाता था अब बुझा रहा है ;)


कॉलेज में हिंदू से परिचय हुआ ! फिर बंगलौर में नौकरी के दौरान वहाँ से छपने वाली लगभग सभी अंग्रेज़ी अखबार ! इतवार पूरा दिन रूम में बैठ कर अखबार पढ़ना ! बस !

रांची में पीजी के दौरान मेरे कमरे में लगभग सभी अंग्रेज़ी अखबार आते रहे ! इण्डिया टूडे और रीडर्स डाइजेस्ट लगभग पचीस साल से साथ में हैं ! नॉएडा गाज़ियाबाद में दस साल से हूँ ! पुरे मोहल्ले में सबसे ज्यादा अखबार मेरे यहाँ ही आता है ! अब जब सुबह में समय नहीं है तो अखबार को देर रात पढता हूँ ! पेज थ्री नहीं पढता हूँ ! पत्नी पढ़ती हैं कहाँ कहाँ डिस्काउंट लगा है देखने के लिये J

और क्या लिखूं ..अखबार पढ़िए ! जरुर पढ़िए ! एक बढ़िया चाय और दो तीन अखबार के साथ सुबह हो उसके आगे सब फेल है ! इंटरनेट कुछ ज्यादा समय ले रहा है ! टीवी - टावा कम देखता हूँ - बस न्यूज चैनल ! 

विश्वविद्यालय की सेमेस्टर एग्जाम शुरू हो चुका है ! ठण्ड भी बढ़ रही है ! ढेर सारे उपन्यास 'पाइप - लाईन' में हैं ! 

कुछ बढ़िया उपन्यास पढ़ कर - उनके बारे में यहाँ लिखना चाहता हूँ ! समय चाहिए !



रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Thursday, November 10, 2011

बरतुहारी

'बरतुहारी' एक बिहारी शब्द है ! यह एक क्रिया है - जिसका मतलब होता है - किसी कन्या के लिये योग्य वर् की तलाश ! 'बरतुहार' संज्ञा है - जिसमे उस कन्या के माता - पिता , सगे सम्बन्धी शामिल होते हैं ! इस् प्रक्रिया में हास्य - व्यंग और एक दर्द भी शामिल है ! मै किस पक्ष को रख पाता हूँ - अभी लेख के शुरुआत में मेरे लिये कुछ कहना मुश्किल है ! पढ़िए ! 

घर परिवार , ननिहाल , सगे सम्बन्धी , दोस्त महिम सभी जगह कन्यायें होती हैं ! बाबा सामाजिक होते थे ! इस् मामले में मेरे पिता जी भी काफी सामाजिक हैं ! मै भी हूँ ! विशेष क्या कहूँ - बहुत यादें हैं ! कुछ मीठी - कुछ खट्टी और कुछ बहुत तीते ! 

हम जिस दौर / जाति / समाज और आर्थिक स्थिती से आते हैं - वहाँ तीन चीज़ें महतवपूर्ण होती हैं - किसी भी शादी में ! 
१. परिवार 
२. पैसा 
३. लड़का / लड़की 

पहले क्या था ? परबाबा की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी ! बाबा दोनों भाई पर् अपनी बहन की शादी का जिम्मा था ! बाबा कहते हैं - एक आदमी बेडिंग और एक सूटकेस लेकर चलता था ! धान वाले देस में ! बहन की शादी - बिना धान वाले देस में कैसे कर दे ? क्या ज़माना था ! बाबा के दूर के फुफेरे भाई और काफी घनिष्ठ मित्र 'चम्पारण' के मदन मोहन बाबु ने बात बात में ही कह दिया - चलो मै तुम्हारी बहन की शादी अपने भांजे से तय करता हूँ - और शादी हो गयी ! क्या महत्व होता था - फूफा - मामा के शब्दों का ! लड़का का बाप - काट नहीं सकता ! सम्बन्ध की इज्जत होती थी ! 

पिता जी की शादी में भी ऐसा ही हुआ ! बाबा किसी फुटबॉल टूर्नामेंट में कहीं गए थे ! हाई कोर्ट के जज और बड़े बाबा के साले - राम रतन बाबु आ धमके गाँव - बड़े नाना जी को लेकर - फूलहा लोटा पर् फलदान पड़ गया ! ना तो बाबु जी को पता और ना ही मेरे बाबा को ! तिलक की बात को गोली मारिये ! मेरे ननिहाल वाले जितना सोच के आये थे - आधे में काम फरिया गया ! 

विस्वास था - सम्बन्धी धोखा नहीं देगा ! 

वक़्त बदलने लगा ! सगे सम्बन्धी कहीं छुप गए ! परिवार गौण हो गया ! 'लईका - लईकी' और पैसा ही सब कुछ हो गया ! 

कई बरतुहारी में मै बचपन से जाने लगा - बिस्कुट खाने के लिये ;) धम्म से सोफा पर् बैठा - बिस्कुट खाया और चल दिया ! बड़े फूफा किसान होते हैं ! मुजफ्फरपुर शहर से बिलकुल सटे ही उनका गाँव है ! अच्छे किसान हैं ! बड़ी फुफेरी बहनों के बरतुहारी में घूमना शुरू किया ! अचानक से फूफा जी एक इंजिनियर लड़के के कहाँ गए ! खेत बारी ज्यादा नहीं था - पर् सरकारी नौकरी था ! मेरे गृह जिला में ! लडके के पिता जी ने मेरे फूफा जी को बोला - देखिये , मेरे इंजिनियर लडके की शादी में चेयरमैन साहब जहाँ कहेंगे - वहीँ होगा ! फूफा जी मुस्कुराने लगे - बोले - लडकी चेयरमैन साहब की अपनी बड़ी नतिनी ही है ! तिलक ? जो मिला वो लोग आशीर्वाद समझ ले लिये - तिलक से ज्यादा का सोना मड़वा पर् मेरी फुफेरी बहन को चढा दिए ! 

पर् सभी बरतुहारी इतने मीठे नहीं होते ! मै अपने दर्द को ब्यान नहीं कर सकता हूँ ! पर् इस् दर्द ने मुझमे एक संस्कार क जनम दिया - खासकर इस् विषय पर् ! 

एक बहुत ही नजदीकी कुटुंब की लडकी के लिये एक जगह एक प्रोफ़ेसर साहब के बेटा का  पता चला ! क्या नसीब था - प्रोफ़ेसर साहब का ! तीन बेटा - तीनो के तीन - आई आई टी से पास ! वाणी ऐसी की - लगे जैसे सरस्वती बैठी हो ! पिता जी और मेरे कुटुंब उनके यहाँ गए ! फोटो और बाओडाटा दे दिया गया ! जब काफी दिन हो गए - वहाँ से कोई बुलावा नहीं आया - पिता जी ने मेरे एक कजीन को बोला - जाओ ..प्रोफ़ेसर के यहाँ से बाओडाटा - फोटो मांग लाओ ! जब मेरा कजीन उनके यहाँ गया तो हैरान हो गया ! बोला - उनके यहाँ करीब दो सौ बाओडाटा और फोटो तहिया' के रखा हुआ था ! मन त किया की - प्रोफ़ेसरवा को दें - दू हाथ - घींच के ! दूकान खोल के रखे हुए था ! 

ये चेहरा हो चुका था - वैसे माँ बाप का - जिनकी औलाद सामाजिक पटल पर् कुछ सफल हो चुकी थी ! लोग पागल की तरह वर्ताव करना शुरू कर दिए ! एक बीपीएससी के मेंबर से मेरी गुफ्तगू हो रही थी - बोले - कई  लड़कों को डिप्टी कलक्टर बनवा दिया ! जब लडकी वाले आते थे - तो - मै उन लड़कों का पता दे दिया करता था - अब देखिये - लड़के का बाप बोलता था - लडकी वाले को - देखिये , महराज ...फलाना बाबु का पैरवी लेकर मत आयें ! हद्द हाल हो गया समाज का ! आँख की शर्म जाने लगी ! जिस व्यक्ती ने तुम्हारे बेटा को डीएसपी / डिप्टी कलक्टर बनाने में मदद की - अब तुम उसको ही पह्चानाने से इनकार करने लगे ! जियो ..सफल लड़का के बाप ..जियो ! 

दरवाजे पर् बड़े ठेकेदार / घूसखोर  इंजिनियर / एडीएम के गाड़ी रुकने लगे ! घर से चार कप चाय आया - चारों चार रंग के कप में ! भविष्य यहीं था ! लड़का के बाप को पता ही नहीं - कितना मांगे ? इसमे शादी बिगाड़ने वाले भी सक्रिय हो गए - आपके बेटा का कीमत ऐसा बोंल दिया - जो कोई और दे ही ना सके ! हुआ फेरा ! अब वो ऊँची कीमत लगाने वाला गायब ! अब आप इंतज़ार में ! हा हा हा हा ! 

लड़का ही सबकुछ हो गया ! पटना के एक जज साहब गए - बेटी की बरतुहारी में ! लड़का - आई आई टी , आई ये एस , फिर अमरीका में एम बी ए ! लड़का का बाप खोजा गया - पता चला - एक मडई में बाबा धाम वाला लाल गमछी पहन - मुह में जीवन जैसा बीडी दबाये - तीनतसिया ( ताश के पत्तों से जुआ ) खेल रहा था ! अब परिवार को कौन पूछता है ! लडकी को तो अमरीका में रहना है ! वाह भाई वाह ! जब लडकी को मानसिक प्रताडना और फिर फिजिकल प्रताडना शुरू हुआ ! पटना का एक खास तबका - एन आर् आई के लिये दरवाजे बंद कर दिया ! अब जज साहब कहते फिरते हैं - अगर परिवार बढ़िया है- लड़का बेरोजगार हो - पान गुटखा बेचता हो - गरीब हो - कर दीजिए ! लोग डर चुके थे ! सामाजिक उठा - पटक चल रही थी ! शिकार - बेचारी बेटी हो रही थी ! 

पटना विश्वविद्यालय के एक वीसी होते थे ! बहुत पहले ! एक वाइवा में मुजफ्फरपुर गए ! उनकी बेटी के लिये कुछ योग्य वर् का लिस्ट दिया गया ! कई होनहार के नाम वीसी साहब ने काट दिया ! एक प्रोफ़ेसर ने उन्हें टोका - सर , ई लईका का यू पी एस सी शिओर हैं ! वीसी साहब बोले - ठीक है , ईमानदार निकल गया तो ..टीवी , फ्रीज़ , जर जमीन खरीदने में ही जीवन गुजर जाएगा , मेरी बेटी का सुख कहाँ गया ? फिर वीसी साहब ने मुजफ्फरपुर के एक रईस के यहाँ अपना ओहदा भंजा कर बेटी का बियाह कर दिए ! 

दुनिया जो समझे - लेकिन इस् बरतुहारी में लडकी के पिता की जान निकल जाती थी ! रात का नींद गायब !   

इस् पूरी प्रक्रिया का सबसे घटिया पार्ट होता है - लडकी दिखाना ! आई जस्ट हेट दिस पार्ट ! पर् लडकी का बाप सबसे मजबूर होता है ! मुजफ्फरपुर के एम डी डी एम कॉलेज के गेट के सामने या किशोर कुनाल द्वारा बनाया हुआ पटना का  हनुमान मंदिर , या हथुआ महराज वाला 'हथुआ मार्केट' हो पटना मार्केट या फिर चाणक्य होटल , मौर्या ! देखो ..जितना देखना है देखो - पर् देख कर रिजेक्ट मत करो ! बाप रे ..सच में इससे घटिया कोई और काम नहीं है ! रेप से भी घटिया ! रिजेक्ट की हुई लडकी जब रोती है ..उसके आंसूं में तुम्हारा कई खानदान जल जायेगा ! 

लडकी देखे के जाएगा ? लडका की भाभी , बहन , चाची - जिससे भविष्य में उस लडकी का कभी भी बढ़िया सम्बन्ध नहीं रहेगा ! लेकिन , जायेगा - यही लोग ! 

इस् तरह की घटना का मेरे ऊपर इतना जबरदस्त प्रभाव है - पूछिए मत ! अभी हम पढ़ ही रहे थे - बाबु जी समधी बनने के लिये हडबडाने लगे - कहने लगे - गाभीन गाय  के ज्यादा दाम मिलता है ! हम बोले - जे करना है - करिये ! पर् याद रखियेगा - किसी भी लडकी को शादी की नियत से देख लेने के बाद - ना , मत कीजियेगा - किसी भी हाल में ! मेरे नौकरी पकड़ते - पकड़ते में माँ- बाबु जी एक जगह हडबडा के देख लिये ! फिर ..डिसीजन बदलने लगे ! हमको अपने ही बाबु जी को हडकाना पड़ा - बोले ..चुप चाप फाईनल कीजिए ! माँ बोलने लगी - तुम भी देख लेते- अभी कैरियर बनाने का टाईम है  - हम बोले - रोज बंगलौर में तमिल ब्राह्मण की सुन्दर लडकी को देखता हूँ - सब एक जैसी हैं - कोई फर्क नहीं , कैरियर बनते रहता है - आप लोग डेट फायीनल कीजिए ! दरअसल , मेरे दिमाग में बैठा हुआ था - कुंवारी कन्या का श्राप नहीं लेना है और कोई भी लडकी वस्तु नहीं होती है ! 

समाज खुद अपनी दिशा तय करता है ! अब हमारी बेटी - बहन पढ़ने लगी ! उसकी पढ़ाई की इज्जत होने लगी ! पढ़ी - लिखी बेटी - बहनों का बियाह जल्द तय होने लगा ! समाज में एक सन्देश गया ! मिडिल क्लास आगे आया ! 

पिछले दस सालों में कई सैकडे लोग मुझसे सुयोग्य वर् का लिस्ट मांग चुके हैं ! फिर दुबारा नहीं आते ! बेटी जब फायीनल इयर में रहेगी तो फोन पर् जीना मुश्किल कर देंगे ! रँजन जी , आपका नेटवर्क बहुत लंबा - चौड़ा है - कुछ मदद कीजिए ! फिर अगला साल किसी दूसरे के मुह से सुनायी देता है - फलाना की बेटी का शादी हो गया ! लडकी के पिता - पान के दूकान पर् मिल जायेंगे ! समझाने लगेंगे - राजस्थान वाले हैं , लड़का वहीँ साथ में था - वो लोग भी ब्राह्मण हैं ..ब्ला ..बला ...ब्लाह ! अंत में हम बोलेंगे - अरे ..सर ..बहुत बढ़िया ..लडकी खुश है ..पढल - लिखल है ,,फिर हमको - आपको क्या सोचना ! लडकी के पिता के चेहरे पर् ..एक निश्चिन्त भाव आता है ! क्या करे ..वो बेचारा ! जेनेरेशन इतनी जल्दी बदलेगा - कोई सोचा नहीं होगा ! वो मुझसे इस् शादी का सर्टिफिकेट मांगता है ! मै कौन हूँ ! उसका चेहरा कहता है - समाज के आदमी हो - अप्रूव करो ! कर दिया ..भाई ..अप्रूव ! जाओ ..पति - पत्नी को खुश रहने दो ! 

फुर्सत से केबिन में बैठा हूँ - कुछ कुछ लिख दिया हूँ ! कैसा लगा - कमेन्ट कीजियेगा ! 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, October 25, 2011

टीए - डीए का खेला ...

बचपन याद है ! बाबा सहकारिता आंदोलन के अपने क्षेत्र के अग्रणी नेता थे - सो - बिहार स्तर के कई सहकारी संस्थाओं में प्रतिनिधि थे ! साल में दो तीन बार सबकी मीटिंग होती थी - बिस्कोमान , सहकारी बैंक , भूमि विकास बैक इत्यादी ! बाबा की लाल बत्ती वाली गाड़ी में मै भी बैठ कर इन मीटिंग में पहुँच जाता था ! वहाँ एक लंबा लाईन लगा होता था - सामने एक आदमी बैठ होता था - जो एक अटैची और एक पैकेट देता था ! अटैची में कागज पत्र होते थे और पैकेट में कुछ सौ रुपये ! अटैची मै लेकर कार में रख देता था और पैकेट बाबा अपने पॉकेट में ! बाद में अन्य जिला से आये लोगों से उनको बात करते सुनता था - टीए कम दिया है ! डीए एक दिन और का मिलना चाहिए था - ब्ला..ब्ला ! हम ज्यादा माथा नहीं लगाते - दोपहर को पसंदीदा मुर्गा भात खाने को मिलता - तपेश्वर बाबु हर टेबल पर् पहुंचते और सबसे हाल समाचार पूछते ! इन्ही एक मीटिंग में बिस्कोमान भवन के निर्माण के मंजूरी मेरे आँखों से मिली थी ! इन्ही मीटिंग में एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व० बिन्देश्वरी दुबे को मुर्गा का टांग दोनों हाथ और दांत में दबाये हुए अखबार में फोटो छाप दिया था ! :) सब याद है - हमको ! वो मेरा स्वर्णीम काल था ! अब गदहा काल है :( खट रहे हैं :( 

हाँ तो बात हो रही थी - टीए डीए पर् ! बाबु जी वर्तमान में पटना के एक कॉलेज में विभागाध्यक्ष हैं - प्रैकटीकल परीक्षा में एग्जामिनर बाहर से आते हैं ! बिहार सरकार / कॉलेज / विश्वविद्यालय का जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है ! वैसे परीक्षक जाते वक्त 'टीए - डीए' को लेकर कुछ हल्ला नहीं मचाये सो बाबूजी को अपने पॉकेट से ही देना पड़ता है ! 

हम भी शिक्षक हैं ! दूसरे कॉलेज में प्रैक्टिकल परीक्षा लेने जाना पड़ता है ! परीक्षा खत्म होने के बाद - भारी हंगामा होता है ! टीए - डीए को लेकर हम तो चुप ही रहते हैं लेकिन बाकी लोग तो ऐसा करते हैं - जैसे उनका कोई हक मारा जा रहा है ! आयेंगे मोटरसाइकिल से टीए मांगेंगे - कार का ! एकाउंटेंट पूछ बैठेगा - कार नंबर दीजिए - बाहर पाकिंग से किसी का नंबर लिख देते हैं लोग ! एकॉन्टेंट हडकाता है - सरकार का पैसा है - जेल चले जाईयेगा ..ब्ला ब्ला...कौन उसकी बात सुनता है ! 

यही हाल कॉपी जांचते वक्त होता है ! उपरवाले की मेहरबानी से बड़ी कम उम्र में हेड एग्जामिनर बनने का मौका मिला ! बाकी के परीक्षक माथा नोच लेते थे - सर , एकॉन्टेंट बहुत बदमाश है - दो दिन का का डीए काट लिया ! सेन्ट्रलाईज कॉपी चेकिंग होती हैं ! भारी हेडक हो जाता है ! प्रोफ़ेसर को लेक्चरर वाला डीए मिल गया - हुआ हंगामा - बोला - इज्ज़त चला गया ! हम बोले भाई - दस - बीस रुपैया से क्या बिगड जायेगा ! प्रोफ़ेसर बोलेगा - आप नहीं समझियेगा ..ब्ला ..ब्ला ! 

कुल मिलाकर मेरी समझ में यही आया की - नौकरी करने वाला - टीए डीए को जन्मसिद्ध अधिकार समझता है - होना भी चाहिए - कंपनी / सरकार के काम से आप जा रहे हैं तो खर्चा पानी तो लगेगा ही ! हम भी गाँव में अपना नौकर को कहीं काम से भेजते हैं तो खर्चा देते ही थे ! लेकिन जब वो नौकर खर्चा में से कुछ बचा कर वापस कर देता था - मन एकदम से गद गद् हो जाता ! 


अब आईये - किरण आंटी पर् ! एक एनजीओ से पैसा उठाकर दूसरे एनजीओ को पैसा देना - गलत है ! सीधे  चंदा मांग लेती ! दरअसल आदत खराब है ! यह विशुध्ध पाकिटमारी है ! आप इतनी ईमानदार थी फिर 'मिजोरम' से क्यों भागना पड़ा ? आप सभी मीडिया की देन हैं और याद रखिये यही मीडिया आपके चमक  को  खत्म भी करेगा ! आपके जैसे हर स्टेट में दस आई पी एस अफसर हैं ! मीडिया मैनेज ही सब कुछ होता तो - भाजपा के रविशंकर प्रसाद को राज्यसभा में नहीं जाना पड़ता - लोकसभा में जाते ! आपने क्या काम किया जिसके लिये - आप खुद को राष्ट्रिय स्तर की नेता खुद को समझाने लगीं ! बस 'अन्ना' मिल गए - सब कूद गए ! 

जिस लोकसभा को आपसभी रामलीला मैदान में नौटंकी कर के क्या क्या नहीं कहा - आज उसी लोकसभा में बैठने के लिये - सबकुछ मंजूर है ! टीवी पर् देश के प्रधानमंत्री का मजाक उडाना कहाँ तक सही था ! उनकी मीमीकरी करना ! क्या यह सब एक पूर्व आईपीएस को शोभा देता है ! अवकात में रहिए ! हम भी बिहार से आते हैं जहाँ हर मोहल्ले से दो सिविल सर्वेंट होते हैं ! पर् आप जैसा किसी को नहीं देखा ! हाँ , कॉंग्रेस गलत है ! पर् देश का संविधान उसको पांच साल शासन का अधिकार दिया है - कोई गलत नहीं है ! मैडम , बहुत आसान है - दिल्ली के किसी क्षेत्र को रिप्रेजेंट करना ! देहाती क्षेत्र में बुखार छूट जायेगा ! बेटी की शादी में दो क्विंटल चीनी मांगेगा ! कोई अपने बेटा को नौकरी के लिये कहेगा ! कोई भूख मर जायेगा ! 

हिम्मत और अवकात है तो - देश का कोई पिछड़ा क्षेत्र से खुद को लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कीजिए - चुनाव जीतिए और वहाँ की जनता के दर्द को समझिए ! टीवी पर् बोलना बहुत आसान है ! चार एंकर / न्यूज रीडर से दोस्ती कर - किसी चैनल पर् बोंल लेना आसान है ! असली जनता के बीच रहना आसान नहीं है , मैडम ! 

और आप केजरीवाल जी , याद है ..रँजन ऋतुराज का नाम ? नहीं याद होगा ! सत्येन्द्र दुबे हत्या कांड के बाद के जन्मे ग्रुप में ही आपका जन्म हुआ था ,ज्यादा नहीं लिखूंगा क्योंकी आपका भी इज्जत दो पैसा का हो गया है ! आई आई टी का सीट आपने खराब  किया - फिर सिविल सर्वेंट भी सही ढंग से काम नहीं किये - अब फ्लाईंग शर्ट को ऊपर से पहन - देश के सबसे ईमानदार बन् गए ! हद्द हाल देश की मिडिल क्लास का ! 

लोकपाल क्या कर लेगा ? दस लाख जनता से आप एक एम पी को चुनते हैं ! कभी किसी एम पी के घर गए हैं ? जितना आपके तनखाह है उतना का लोग उसके घर चाय पी जाता है ! कहाँ से लाएगा वो पैसा ? हर लगन में लाखों रुपैये के नेवता बंट जाता है ! कौन देगा ? 

देश के सबसे बेहतरीन दीमाग को आप सिविल सर्वेंट बनाते हैं - देते क्या है - उसको ? पांचवे वेतनमान में - तनखाह थी - आठ हज़ार बेसिक ! अब है पन्द्रह हज़ार बेसिक ! उसका बच्चा भूख रहे और आपलोग ? दो महीना जावा सीख लिये और पचास हज़ार कमाने लगे ! 

जितना लोग हल्ला करता है - इंटरनेट की दुनिया में - सबसे ज्यादा ट्रैफिक रुल वही तोडता है ! सुबह में ट्रैफिक रुल तोडेगा और शाम को इंटरनेट पर् 'अन्ना - अन्ना' चिल्लाएगा ! गजब का चमड़ी है ! मै गुस्सा में हूँ - मुझे तीन किलोमीटर का सफर ऐसे कार वालों के कारण एक घंटा लगाना पड़ता है ! हद्द हाल है ! 

दिन में फेसबुक पर् 'अन्ना - अन्ना' चिल्लाएगा और शाम को बेटा बेटी के एडमिशन के लिये स्कूल के दलाल के घर जायेगा ! मत जाओ ..ना ! सेना की नौकरी सबसे बढ़िया - पर् वहाँ जायेगा - कौन ? पड़ोसी का बेटा ! हाय रे ...मिडिल क्लास ! 

एल पी जी में सब्सीडी क्यों ? डीजल में सब्सीडी क्यों ? शर्म नहीं आती ? - डीजल कार खरीदते वक्त ! आज दिल्ली - मुंबई जैसे शहर में डीजल कार पर् आठ आठ महीना का लाईन है ! डीजल का सब्सीडी किसके लिये है - मेरी जान - मिडिल क्लास ? 

भारत में भ्रष्टाचार खून में है ! हीरा चोर - खीरा चोर को पिटता है ! कई ईमानदार लोग भी कई गलत काम कर बैठते हैं - हक समझ कर ! 

अब कितना लिखा जाए ! कानून भी दोषी है ! 

माथा खराब है !

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, October 18, 2011

दूसरी आज़ादी के साइड इफेक्ट्स – भाग दो

 ऋतुराज सर का लिखा यह लेख ! ऋतुराज सर बिहार राज्य के नालंदा जिला के रहने वाले हैं ! विश्व प्रख्यात नेतरहाट विद्यालय , पटना कॉलेज और जेएनयू से शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1983 में भारतीय आरक्षी सेवा के अधिकारी बने और अपने गृह राज्य बिहार को सन 2005 तक सेवा दिया और स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण  किया  ! फिर उसके बाद कुछ वर्षों के लिये टाटा स्टील के साथ जुड़े रहे और पिछले दो साल से फुर्सत के क्षण अपने गृह जिला में बिता रहे हैं ! इनकी फोटोग्राफी भी कमाल की है !

वे पटना के एक नामचीन डाक्टर हैं. उनकी ख्याति पूरे राज्य में है और उनके क्लीनिक में मरीजों की लंबी लाइनें लगी रहती हैं. वे डाक्टरी के विज्ञान के साथ साथ मैनेजमेंट की कला में भी पारंगत हैं. बिहार का हर धनपशु उनका मरीज है. धनपशुओं से डाक्टर साहब के गहरे निजी सम्बन्ध भी हैं क्योंकि वे इनसे कोई फीस नहीं लेते हैं. धनपशुओं से फीस नहीं लेने की प्रक्रिया को डाक्टर साहब communication initiative की संज्ञा देते हैं और कहते हैं कि ये धनपशु ही उनके विजिटिंग कार्ड हैं. डाक्टर साहब की बात में दम भी है, क्योंकि इन धनपशुओं की बदौलत पूरे बिहार के मरीज डाक्टर साहब को साक्षात धन्वंतरि का अवतार समझते हैं. ऐसे आम मरीजों से डाक्टर साहब फीस लेने में कोई कोताही नहीं करते हैं क्योंकि उनके अनुसार, “घोड़ा यदि घास से दोस्ती कर लेगा, तो खायेगा क्या?”
लेकिन, डाक्टर साहब बहुत भावुक भी हैं और गरीबों के दुःख से पीड़ित हो कर वे प्रतिदिन 20 मरीजों का न केवल मुफ्त इलाज करते हैं बल्कि उन्हें “Physician’s Sample. Not for sale.” वाली दवाएं भी मुफ्त देते हैं. डाक्टर साहब की इस सदाशयता की अखबारों और टी वी चैनलों में जम पर प्रशंसा होती है क्योंकि हर संपादक और संवाददाता भी डाक्टर साहब का मरीज है. डाक्टर साहब अपनी इस सदाशयता को मैनेजमेंट की भाषा में ‘outreach programme’  कहते हैं. इस ‘outreach programme’ से न केवल डाक्टर साहब की दरियादिली का डंका बजता है बल्कि दवा कंपनियों को भी खूब फायदा मिलता है क्योंकि डाक्टर साहब सिर्फ दो दिन की खुराक मुफ्त देते हैं और बाद में यही दवाएं खरीद कर खाने की ताकीद कर देते हैं. लिहाजा, डाक्टर साहब दवा कंपनियों के चहेते हैं. उनके यहाँ medical representatives की भीड़ लगी रहती है जिनसे डाक्टर साहब सिर्फ रात के 10 से 11 बजे के बीच ही मिलते हैं. दवा कंपनियों के सौजन्य से डाक्टर साहब साल में सिर्फ दो बार सपरिवार छुटियाँ बिताने विदेश चले जाते हैं. लालच तो उन्हें छू तक नहीं गया है. उनके दिल में लक्ष्मी नहीं गांधीजी का वास है.
 अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में डाक्टर साहब देश के बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के Corporate Social Responsibility Initiatives से भी आगे हैं.  नकली दवाओं के कहर से मरीजों को बचाने के उद्देश्य से डाक्टर साहब ने क्लीनिक के बगल में ही दवा की एक दुकान खोल दी है. उसी दुकान से दवा खरीदने की सख्त हिदायत डाक्टर साहब के कारिंदे हर मरीज को देते हैं और लगे हाथ यह गंभीर चेतावनी भी दे देते हैं कि किसी दूसरी दुकान से दवाएं खरीदने से जान जाने का भी खतरा है. लिहाजा, डाक्टर साहब की दवा दुकान में भीड़ लगी रहती है और अच्छा ख़ासा मुनाफा भी हो जाता है. यद्यपि उनकी पत्नी को दवा दुकान के कारोबार से कोई लेना देना नहीं है तथापि सरकारी तौर पर वे ही इसकी मालकिन हैं क्योंकि डाक्टर साहब टैक्स मैनेजमेंट में भी उस्ताद हैं.
हर आम भारतीय की तरह डाक्टर साहब आयकर को एक अनावश्यक बोझ मानते हैं; और आयकर के इस बोझ को सही-गलत किसी भी तरीके से कम करना अपना नैतिक कर्तव्य मानते हैं. अस्तु, वे मरीजों की संख्या का कोई लेखा जोखा नहीं रखते हैं, अपनी वास्तविक आय का एक दशांश ही अपने रिटर्न में दर्शाते हैं और अपने घर के बिजली-पानी, दाई-नौकर, रसोईया-खानसामा, ड्राइवर-माली इन सब पर होने वाले खर्च को भी अपनी आय में से मिन्हा कर देते हैं. वह तो दुष्ट सरकार ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया वर्ना वे अपने घर के चावल-दाल, नून-हल्दी, सब्जी-भाजी का खर्च भी अपनी आय में से मिन्हा कर देते !! आयकर विभाग वाले उन्हें अनावश्यक तंग नहीं करें इस निमित्त डाक्टर साहब न केवल उनकी मुफ्त चिकित्सा करते हैं बल्कि हर दीपावली और नववर्ष के पावन अवसर पर आयकर विभाग के चपरासी से लेकर चीफ कमिश्नर तक को नियमित सौगात भी भेजते हैं. साथ ही साथ अपने चार्टर्ड अकाउन्टेंट (सी. ए.) को उन्होंने स्पष्ट हिदायत भी दे रखी है कि ‘खर्चा-पानी’ करने में कभी कोई कोताही ना करे.
डाक्टर साहब की इस चतुरंगी प्रतिभा के फलस्वरूप हर वर्ष उनके दो नंबर के बैंक खाते में एक मोटी रकम जमा हो जाती है. डाक्टर साहब अपने पूर्वजों का बहुत भी सम्मान करते हैं!  अतः उनसे प्रेरणा लेकर वे इस धन को जमीन में गाड़ देते हैं; और नियमित रूप से भूखंड / मकान / फ़्लैट का बेनामी क्रय कर लेते हैं.
अचल संपत्तियों के पंजीकरण की प्रक्रिया को डाक्टर साहब अत्यंत जटिल और कठोर मानते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में उन्हें स्टैम्प ड्यूटी अदा करनी पड़ती है. वे हमेशा न्यूनतम स्टैम्प ड्यूटी ही अदा करते हैं और अचल संपत्तियों का वास्तविक मूल्य कभी नहीं दर्शाते हैं. इस प्रयोजन हेतु डाक्टर साहब ने पंजीकरण कार्यालय के हर कारिंदे से ‘लेन-देन’ का एक पवित्र रिश्ता स्थापित कर लिया है.
सम्पूर्णता में देखा जाए तो डाक्टर साहब एक सच्चे भारतीय हैं !!!
और हर सच्चे भारतीय की तरह वे दूसरों के भ्रष्टाचार की सख्त खिलाफत करते हैं. भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी का नाम सुनते ही उनका चेहरा गुस्से से तमतमा जाता है, भृकुटी तन जाती है, नथुने फड़कने लगते हैं और आँखों से अंगारे बरसने लगते हैं. उनके इस रौद्ररूप को देखकर लगता है कि यदि कहीं कोई भ्रष्टाचारी उनके सामने पड़ गया तो वे उसका टेंटुआ ही दबा देंगे !!
हर सच्चे भारतीय की तरह डाक्टर साहब भी भ्रष्टाचार को देश का सबसे बड़ा कोढ़ मानते हैं; इसके उन्मूलन के लिए कड़े से कड़ा क़ानून बनाए जाने की पुरजोर वकालत करते हैं और मानते हैं कि जन लोकपाल कानून बनते ही भ्रष्टाचार का सर्वनाश हो जाएगा.
‘आज़ादी की दूसरी लड़ाई’ से वे इतने प्रभावित हुए कि अपने वातानुकूलित क्लीनिक से कूदकर सड़क पर आ गए तथा अन्य नामचीन और ख्यातिप्राप्त डाक्टरों के साथ ‘अन्ना टोपी’ और ‘अन्ना तख्ती’ से लैस होकर कड़ी धूप में पूरे आधे घंटे तक प्रदर्शन करते रहे !! उनके इस अप्रतिम बलिदान से सभी टी वी चैनल मंत्रमुग्ध हो गए और आधे घंटे के इस महान प्रदर्शन का ‘लाइव कवरेज’ 12 घंटे तक करते रहे!!!   
डाक्टर साहब ने उसी दिन फेसबुक प्रोफाइल से अपनी तस्वीर उखाड़ फेंकी और अन्नाजी को वहाँ चिपका दिया, अपने क्लीनिक को अन्नाजी की तस्वीरों से पाट दिया, ‘अन्ना टोपी’ को अपने वस्त्र-विन्यास का अभिन्न अंग बना लिया और अपने दिल में गांधीजी के साथ साथ अन्नाजी को भी एडजस्ट कर लिया. ‘दूसरी आज़ादी’ के आंदोलन ने उन्हें देशभक्त से अन्नाभक्त बना दिया !!! 
लेकिन अन्ना जी का अनशन समाप्त होने के कुछ दिनों बाद ही डाक्टर साहब के व्यक्तित्व में एक आमूलचूल परिवर्तन आ गया. उनके चेहरे से रौनक और सर से ‘अन्ना टोपी’ गायब हो गयी ! भ्रष्टाचार का नाम सुनने पर उनकी आँखों से अब अंगारे नहीं आंसू टपकते और अन्नाजी का नाम सुनते ही डाक्टर साहब दांत किटकिटाने लगते !!!
डाक्टर साहब के व्यक्तित्व के इस आमूलचूल परिवर्तन का कारण एक खौफनाक हादसा था. हुआ कुछ यूँ कि :-
एक दिन डाक्टर साहब ‘अन्ना टोपी’ लगाए मरीजों से मुखातिब थे. मरीजों का भारी हुजूम बाहर वोटिंग रूम में जमा था. एक मरीज अंदर आया. अपनी आदत के मुताबिक़ डाक्टर साहब ने उससे पूछा, “क्या तकलीफ है?” मरीज बोला, “आप आयकर की चोरी करते हैं, यही मेरी तकलीफ है.” डाक्टर साहब सकपका से गए. यह कैसा मरीज है जो उन्हें ही ताने दे रहा है!! पर, वे अन्ना रस में सराबोर थे, उनके सर पर ‘अन्ना टोपी’ थी. दिल में अन्ना भक्ति का ज्वार और ‘दूसरी आज़ादी’ प्राप्त हो जाने का गुरूर था. सो तैश में बोले, “इतनी ओछी बात करते आपको शर्म नहीं आती?” मरीज ने संजीदगी से कहा, “जी नहीं. आपको आयकर चोर कहने में मुझे तनिक भी शर्म नहीं आ रही है.”
मरीज की संजीदगी का असर डाक्टर साहब पर भी पड़ा, वे कुछ संयमित हुए और संजीदा लहजे में उन्होंने कहा, “माफ कीजियेगा, मैंने आपको पहचाना नहीं.” मरीज विनम्रता से फरमाया, “मैं इस एरिया का आयकर इन्स्पेक्टर हूँ.” डाक्टर साहब चौंके, यह कौन सा आयकर इन्स्पेक्टर आ गया जिसे वे पहचानते तक नहीं हैं? उन्होंने कुछ झेंपते हुए कहा, “यहाँ के इन्स्पेक्टर तो फलां जी हैं. मैं तो उन्हें बहुत अच्छे से जानता हूँ.” मरीज बोला, “उनका तबादला हो गया है और अभी दो महीने पहले ही मैंने यहाँ योगदान दिया है.”
डाक्टर साहब की जान में जान आ गयी, उनकी साँसे फिर से सामान्य हो गयी और दिल की धडकन 103 से घट कर पुनः 72 पर स्थिर हो गयी !!. वे समझ गए कि चिंता करने का कोई सबब है ही नहीं ... यह नया इन्स्पेक्टर अपनी उपस्थिति भर दर्ज करा रहा है. वे मुस्कुराते हुए बोले, “अच्छा, इसीलिए पहचान नहीं पाया आपको. मैं अपने सी.ए. को बोल देता हूँ वह मिल लेगा आपसे.” इन्स्पेक्टर ने भी मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “जी जानता हूँ मैं आपके सी. ए. को.”
डाक्टर साहब की पैनी बुद्धि ने तुरंत ताड़ लिया कि इन्स्पेक्टर सिर्फ अपनी खुराकी बढ़ाना चाह रहा है; और चाहे भी क्यूँ नहीं? मंहगाई भी तो आखिर आसमान छू रही है !! वे पुनः अपने प्रसन्नचित्त स्वरूप को प्राप्त हो गए और गदगद भाव से बोले, “वह मिल लेगा आपसे और जो भी आप चाहते हैं वह दे देगा.” इन्स्पेक्टर ने विनम्रता से उत्तर दिया, “लेकिन मुझे तो आप से ही चाहिए.”
डाक्टर साहब को इंस्पेक्टर की बात बहुत अटपटी लगी. क्या चाहता है यह इन्स्पेक्टर? क्या उन्हें अपने हाथों से इसे घूस देना पड़ेगा?? क्या यह दुर्दिन भी देखना पड़ेगा उन्हें? राम, राम ... अन्ना, अन्ना ... !! इतनी धृष्टता, इतनी निर्लज्जता?? डाक्टर साहब को लगा कि वह इन्स्पेक्टर नहीं साक्षात् दुश्शासन है जो मरीजों से भरी क्लीनिक में उनका चीर-हरण कर रहा है ! संकट की इस घडी में उन्होंने अन्ना को याद किया. अन्ना का स्मरण करते ही डाक्टर साहब के शरीर में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा, उनके अन्नाभक्त रक्त में उफान आने लगा और सहसा उन्हें यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया कि वे ‘अन्ना टोपी’ रुपी कवच से सुरक्षित हैं !! उन्होंने ऐंठते हुए इन्स्पेक्टर को धमकाया, “मैं आपकी शिकायत आपके कमिश्नर साहब से करूँगा और तब आपको पता चलेगा कि आप किस से उलझ रहे हैं. अरे, आप मुझे कोई ऐरा-गैरा-नत्थूखैरा समझ रहे हैं क्या? मैं अन्ना-भक्त हूँ और भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हूँ.”
डाक्टर साहब के इस प्रलाप का इन्स्पेक्टर पर लेशमात्र भी असर नहीं हुआ. उसने अपना फटीचर सा ब्रीफकेस खोला और कुछ कागजातों के साथ-साथ एक टोपी निकाली. कागजातों को टेबल पर रख उसने टोपी को शिरोधार्य कर लिया. डाक्टर साहब को मानो सांप सूंघ गया. उनकी बोलती बंद हो गयी और विस्फारित नयनों से एकटक वे उस टोपी और टोपी धारक को ताकते रहे. वह इन्स्पेक्टर भी अब उनकी ही तरह ‘अन्ना टोपी’ से सुसज्जित हो गया था. ‘अन्ना टोपी’ को अपने सर पर सही ढंग से व्यवस्थित कर इन्स्पेक्टर डाक्टर साहब से मुखातिब हुआ और बोला, “आपको कमिश्नर साहब से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनके निर्देशन में ही मैं पिछले एक महीने से आपका समस्त लेखा जोखा खंगाल रहा हूँ और उनके द्वारा हस्ताक्षरित ये नोटिसें आपको तामील करने आया हूँ. कृपया इन्हें हस्तगत करें और प्रमाणस्वरूप अपने हस्ताक्षर अंकित कर दें.” कांपते हाथों से डाक्टर साहब ने हस्ताक्षर किये.
इन्स्पेक्टर ने ‘अन्ना टोपी’ को पुनः ब्रीफ्केसस्थ किया और यह कहते हुए बाहर निकल गया, “मैं अन्नाभक्त नहीं सिर्फ ईमानदार हूँ! यह ‘अन्ना टोपी’ तो सिर्फ दिखावा है. होने को तो आप की ‘अन्ना टोपी’ भी वैसे दिखावा ही है, क्यूँ?” इन्स्पेक्टर के जाने के बाद डाक्टर साहब काफी देर तक ‘कारवाँ गुज़र गया ... गुबार देखते रहे’ की तर्ज़ पर नोटिसों को देखते और ‘दूसरी आज़ादी’ के इस साइड इफेक्ट पर सर धुनते रहे.
और उसी पल से डाक्टर साहब के चेहरे से रौनक और सर से ‘अन्ना टोपी’ गायब हो गयी !!

नोट : इस कथा के सभी पात्र और स्थान पूर्णतः काल्पनिक हैं और एक ‘सच्चे भारतीय’ के चरित्र को उजागर करने के लिए मात्र रूपक के तौर पर हैं. 


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रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, September 6, 2011

दूसरी आज़ादी के साइड इफेक्ट्स - भाग एक

 ऋतुराज सर का लिखा यह लेख ! ऋतुराज सर बिहार राज्य के नालंदा जिला के रहने वाले हैं ! विश्व प्रख्यात नेतरहाट विद्यालय , पटना कॉलेज और जेएनयू से शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1983 में भारतीय आरक्षी सेवा के अधिकारी बने और अपने गृह राज्य बिहार को सन 2005 तक सेवा दिया और स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण  किया  ! फिर उसके बाद कुछ वर्षों के लिये टाटा स्टील के साथ जुड़े रहे और पिछले दो साल से फुर्सत के क्षण अपने गृह जिला में बिता रहे हैं ! इनकी फोटोग्राफी भी कमाल की है ! 

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मेरे एक पुराने मित्र हैं. हम दोनों कालेज और विश्वविद्यालय के दिनों से ही मित्र रहे हैं और यह मित्रता अब तक बरकरार है. सार्वजनिक रूप से उनका नाम बताने में संकोच है इसलिए उन्हें ‘राजा’ के छद्मनाम से ही संबोधित करूँगा. मूल बिंदु पर आने के पहले ‘राजा’ का एक संक्षिप्त परिचय समीचीन होगा.
मेरी ही तरह ‘राजा’ के जीवन के समापन की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है अर्थात 50 वर्ष की सीमारेखा के पार खड़ा है वह भी. सही उम्र का पता तो खैर उसे भी नहीं है, क्योंकि उसके दूरदर्शी और कंजूस पिता ने विद्यालय में नामांकन के समय ही अपनी कंजूस प्रवृति के अनुरूप ‘राजा’ की उम्र अंकित करने में भी कंजूसी दिखा दी थी.
      ‘राजा’ अपनी युवावस्था से ही काफी जुझारू किस्म का इंसान रहा है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति में उसने सम्पूर्णता से भाग लिया था. आपातकाल में पुलिस की लाठियां भी खाई थीं और जेल भी गया था. लिहाजा ‘राजा’ मुझसे दो साल बाद स्नातक बना. स्नातकोत्तर हेतु वह दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय आया और तब से संघर्ष के साथ-साथ उसने दिल्ली को भी सीने से लगा लिया. संघर्ष और दिल्ली ने उसके दिल में डेरा डाल दिया और इस चक्कर में प्रणय के लिए उसके दिल में कोई स्थान ही नहीं बचा. नतीजा यह हुआ कि 40 वसंत देखने के बाद ही वह प्रणय निवेदन कर सका. सम्प्रति ‘राजा’ अपने परिवार (पत्नी और दो छोटे बच्चों) के साथ दिल्ली में ही रहता है. लेकिन, दिल्ली की रौनक भी उसकी जुझारू प्रकृति के पैनेपन को कुंद नहीं कर पायी है और अभी भी वह हर संघर्ष में बढ़ चढ कर हिस्सा लेता है. ‘राजा’ की मैं बहुत कद्र करता हूँ क्योंकि तीन दशक से दिल्ली में रहने के बावजूद वह अब तक बुद्धिजीवी है.
      ‘राजा’ ने अपनी आदत के मुताबिक़ अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में ‘दूसरी आज़ादी की अगस्त क्रान्ति’ में भी सम्पूर्णता से भाग लिया. इस दौरान एक दिन मैंने उसे टी वी पर देखा. बिलकुल शिव स्वरूप दीख रहा था ... गले में सर्प माला की जगह भ्रष्टाचार विरोध की तख्ती थी और सर पर जटा की जगह ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी. बच्चों को भी उसने अन्ना टोपी से संवार दिया था और अपनी धर्मपत्नी के चेहरे पर तिरंगा का लेप लगवा दिया था. ‘राजा’ और ‘रानी’ दोनों एक एक बच्चे का हाथ थामे हुए थे और पूरा परिवार जोर जोर से ‘वंदे मातरम’ ... ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा था. मैं मंत्रमुग्ध हो इस अविस्मरणीय दृश्य तो तब तक देखता रहा जब तक मुए टी वी वालों ने दृश्य बदल नहीं दिया. दूसरे दिन ‘राजा’ को मैंने फोन किया और बताया कि मैंने उसे टी वी पर देखा था सपरिवार. वह खुशी से झूम उठा, और पूछा ‘बढ़िया लग रहा था न?’ मैंने कहा, ‘अत्यंत मोहक दृश्य था ... पूरे के पूरे जोकर लग रहे थे तुम सब!’ वह कुछ खिसिया सा गया लेकिन भडका नहीं. बहुत ही संजीदा इंसान है मेरा मित्र.
      कल जब अन्ना हजारे जी के अनशन का समापन हो गया और पूरा देश ‘दूसरी आज़ादी’ के जश्न टी वी पर मनाने लगा तो मैंने ‘राजा’ को बधाई देने के निमित्त फोन किया. परेशानी से सराबोर एक रुआंसी सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने पूछा, ‘क्या हुआ, खैरियत तो है न?’ ‘राजा’ ने कहा, ‘अरे क्या बताऊँ यार, भारी मुश्किल खड़ी हो गयी है. बाद में फोन करता हूँ तुम्हें.’
      मैं चिंताग्रस्त हो उसके फोन का इंतज़ार करने लगा. मन में तरह तरह बातें घुमड़ने लगीं. खैर, देर रात उसका फोन आया. इस वार्तालाप को अक्षरशः प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
मैं : “क्या बात है, इतने परेशान क्यों थे?”
राजा : “भारी मुसीबत हो गयी थी यार. यह पांच साल का छोटुआ सुबह सुबह मोहल्ले के अपने 10-12 दोस्तों को बुला लाया और अन्ना टोपी पहन, डाइनिंग टेबल को मंच बना कर अनशन पर बैठ गया. उसके दोस्त डाइनिंग टेबल को घेर कर बैठ गए और भजन गाने लगे. बीच बीच में वे ‘वंदे मातरम’ और ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे भी लगाते.
मैं और तुम्हारी भाभी समझा समझा कर थक गए लेकिन वह माने तब तो !! काफी देर तक समझाने बुझाने के बाद मैंने खीझ कर डांट दिया तो उसके दोस्त भड़क गए. कहने लगे कि हम अन्ना की तरह अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे हैं और आप हमें धमकी दे रहे हैं??? एक दो बच्चे गए और मोहल्ले के ढेर सारे बच्चों-बच्चियों को इकठ्ठा कर लाये. बगल के पार्क में एक टेबल लगा दिया और छोटुआ को कंधे पर बिठा कर नारे लगाते हुए वहाँ लेते गए. तीन से तेईस साल के बच्चे-बच्चियां इकठ्ठे होने लगे. कुछ गिटार और ड्रम ले आये और लड़कियों के साथ मिल कर ‘मितवा ... ओ मितवा’ गाने लगे. एस.एम.एस और इंटरनेट के माध्यम से अपने सभी दोस्तों को खबर कर दी और थोड़ी ही देर में मोटरसाइकिलों / गाड़ियों पर सवार हो हो कर बच्चे पहुँचने लगे. पार्क के अगल बगल की सारी सड़कें खचाखच भर गयीं. मोहल्ले के बाज़ार में खबर हो गयी तो चाट/आइसक्रीम/भूंजा/नूडल बेचने वाले भी अपना अपना ठेला ले कर चले आये. अन्ना जी के अनशन के चक्कर में दिल्ली के हर बाज़ार में तिरंगे झंडों और अन्ना टोपी / अन्ना तख्ती की दुकानें तो खुल ही चुकी थीं ... वे सब भी अपना अपना बचा खुचा माल ले कर आ गए और ‘एक पर एक फ्री’ चिल्लाने लगे. तुम तो जानते ही हो कि फ्री की हर चीज़ हम भारतीयों को कितनी अच्छी लगती है, सो देखते ही देखते पूरा पार्क रामलीला मैदान की तरह तिरंगों / अन्ना टोपियों / अन्ना तख्तियों से पट गया. बाल हितों की रक्षा करने वाले कुछ गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) को भी खबर हो गयी. तुरंत फैब इंडिया के डिजाइनर कपड़ों में सजे धजे एन.जी.ओ. वाले भी कंधे पर झोला टाँगे पहुँच गए. उनलोगों ने तुरंत मंच बने उस टेबल के ऊपर एक शामियाना टंगवा दिया, लाउडस्पीकर लगवा दिया, बिजली बत्ती का इंतजाम कर दिया और छोटुआ के लिए एक पेडस्टल पंखा भी मंगवा दिया. बाल हितों की रक्षा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करने के उद्देश्य से उन्होंने टी वी वालों को फोन करके खबर कर दी कि आज़ादी के बाद देश का महानतम बाल संघर्ष इस मोहल्ले में चल रहा है और इस संघर्ष को वे अपना पूरा समर्थन दे रहे हैं. बस, पलक झपकते टी वी वाले भी कैमरा और माइक लिए धमक गए. थोड़ी ही देर में पार्क में बच्चों से कहीं ज्यादा संख्या एन.जी.ओ. और टी.वी. वालों की हो गयी. बस यही समझो यार, कि रामलीला मैदान की तरह पूरा पिकनिक का माहौल बन गया मेरे मोहल्ले के पार्क में. अब बच्चे माइक के सामने ‘मितवा ... ओ मितवा’ के साथ साथ यह भी गाने लगे, ‘सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं”, “कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों ... अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों”, “मेरा रंग दे, मेरा रंग दे बासंती चोला ...”, “मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास ... हम होंगे कामयाब एक दिन” !!
      टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगा “आज़ादी के बाद का सबसे व्यापक बालाक्रोश”, “अपने अधिकारों की रक्षा के लिए मासूम बच्चों ने बाँधे सर पर कफ़न”, “माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के लोमहर्षक उत्पीड़न का पर्दाफाश”, “दिल्ली में माँ-बाप ने ही घोंट दिया ममता का गला” आदि आदि. कुछ टी वी चैनलों ने सेवानिवृत्त समाजशास्त्रियों, बेरोजगार मनोवैज्ञानिकों, बूढ़े पत्रकारों और निठल्ले नेताओं को बुला कर चर्चा प्रारम्भ कर दी और छोटुआ के अनशन का गहन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, मनोवज्ञानिक और भौगोलिक विश्लेषण होने लगा. एक दो टी वी चैनलों ने अन्य महानगरों में स्थापित अपने संवाददाताओं को निर्देश दिया कि दिल्ली में चल रहे इस बाल संघर्ष पर देश के बच्चों की प्रतिक्रियाएं दें. धड़ा-धड़ हर महानगर से बच्चों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं कि वे इस संघर्ष में छोटुआ के साथ हैं और अपने माता-पिता के ज़ुल्म अब वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. टी वी वालों ने छोटुआ के अनशन को “बाल आज़ादी का प्रथम भारतीय संग्राम” घोषित कर दिया.
      देखते ही देखते तीन-चार पुलिस जिप्सियां सायरन बजाती हुई मेरे घर के सामने आ गयीं. क्या बताऊँ भाई, पहली बार घर में पुलिस वालों को देख कर मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए. थानेदार ने गुर्राते हुए कहा, “यह क्या बवंडर खड़ा कर दिया है आपके बच्चे ने? क्या मांग है उसकी??” मैंने कहा, “अभी तक तो मुझे बताया ही नहीं है कि उसकी मांग आखिर है क्या!!” इतना सुनते ही थानेदार हत्थे से उखड़ गया और बोला, “इतना बड़ा बवंडर खड़ा हो गया है और आप को पता तक नहीं है कि आपके बेटे की मांग क्या है?? तुरंत जाइए और इस मामले को फौरन निपटाइए, वर्ना आप दोनों पति-पत्नी को बाल उत्पीडन के जुर्म में गिरफ्तार करना पड़ जाएगा !” 
      मैंने थानेदार को समझाने की बहुत कोशिश की कि हमने कोई बाल उत्पीडन नहीं किया है. अपने दोनों बच्चों पर हाथ उठाना तो दूर हमने कभी उनके कान तक नहीं ऐंठे हैं. लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ और बोला, “इतना व्यापक जनाक्रोश क्या बिना बात के ही है? अरे, जरूर आप दोनों नियमित रूप से अपने बच्चों को उत्पीड़ित करते रहे होंगे जिसका परिणाम इस व्यापक जन आंदोलन में नज़र आ रहा है मुझे. आप अभी तुरंत जाइए और अपने बच्चे से बात करिये.” अपने छोटे दारोगा को उसने हिदायत दी, “साथ जाओ इसके ... और ध्यान रखना कहीं भाग ना जाए!”
      मुंह लटकाए मैं छोटे दारोगा और एक दो सिपाहियों से घिरा हुआ मंच के पास पहुंचा. मुझे पुलिस वालों के साथ देखते ही एन.जी.ओ. वाले उत्तेजित हो गए और नारे लगाने लगे. “हर जोर ज़ुल्म के टक्कर में ... संघर्ष हमारा नारा है”, “जो हमसे टकराएगा ... चूर चूर हो जाएगा”, और “वापस जाओ ... वापस जाओ” के नारों से पूरा मोहल्ला गूंजने लगा. मैं अवाक खड़ा हो कर टेबल नुमा मंच पर आसीन अपने बच्चे को देखता रहा ... वह मसनदों के सहारे अधलेटा हुआ था और उसकी दो सहपाठिनें उसे पंखा झल रही थीं. उधर भीड़ की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. वह तो भला हो उस छोटे दरोगा का जिसने समय रहते मुझे वहाँ से निकाल लिया नहीं तो मुझे अस्पताल ही पहुंचा देते ये एन.जी.ओ. वाले.
      थानेदार ने सुना तो उसने छोटे दारोगा को कहा, “फौरन दो तीन लोगों को सादे कपड़ों में भेजो और प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिए प्रेरित करो”. कुछ ही देर में तीन एन.जी.ओ. वाले छोटुआ के प्रतिनिधिमंडल के रूप में वार्ता के लिए आ गए. मैंने उनसे पूछा, “क्या मांग है छोटुआ की?” वे बोले, “आप पहले यह बताइये कि उसकी सभी मांगें मानने के लिए आप तैयार हैं या नहीं?” मैंने कहा, “अरे पहले मांगें तो बताइये!” मेरे यह कहते ही वे तैश में आ गए और तमतमाते हुए बाहर चले गए. टी वी वालों ने उनको घेर लिया और सवालों की बौछार कर दी. प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने जवाब दिया, ”हमारे लाख प्रयास करने के बावजूद, छोटुआ जी के पिता के अड़ियल रवैये के कारण ... वार्ता विफल हो गयी है. वे बालमानस की मांग तक सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसा लगता है कि छोटुआ जी उनके सगे नहीं सौतेले बेटे हैं.”
      टी वी चैनलों में हमारी भर्त्सना करने की होड़ लग गयी. मेरा घर पड़ोसियों, पुलिसवालों और नेताओं से खचाखच भर गया. इन सबकी सलाह और डांट सुनते सुनते मेरे कान पक गए. उधर तुम्हारी भाभी का रो रो कर बुरा हाल हो गया. उसे चुप कराने जाऊं तो वह बार बार यही कहती, “दोपहर हो गयी और मेरे छोटुआ ने अभी तक कुछ खाया नहीं है. आप कुछ भी करिये लेकिन उसके  अनशन को समाप्त करवाइए नहीं तो मैं आपको कभी माफ नहीं करूंगी.”
      मैंने कुछ पड़ोसियों को कहा कि कृपया छोटुआ के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिए पुनः बुलाने का प्रयास करिये क्योंकि यदि मैं उस पार्क में गया तो भीड़ को एन.जी.ओ. वाले फिर उत्तेजित कर देंगे. मैं छोटुआ की हर मांग बिना शर्त मानने के लिए तैयार हूँ.
      पड़ोसियों ने लौट कर सूचना दी कि एन.जी.ओ. के नेतागण बगल के पांच सितारा होटल में लंच करने चले गए हैं. वे जब लौटेंगे तब ही वार्ता संभव है. मैंने माथा पीट लिया. उधर मेरा मासूम छोटुआ सुबह से भूखा प्यासा बैठा है और इधर ये एन.जी.ओ. वाले, जो खुद को उसका हमदर्द बताते हैं, पांच सितारा भोजन का लुत्फ़ उठा रहे हैं. मन में तो आया कि दुबारा आयें तो इन एन.जी.ओ. वालों का गला ही घोंट दूँ. पर क्या करता, खून का घूँट पीकर रह गया.
      शाम के चार बज गए तब जा कर कहीं छोटुआ का एन.जी.ओ. प्रतिनिधिमंडल प्रगट हुआ. पता चला कि लंच के बाद वे आराम करने चले गए थे. आते के साथ उन्होंने पूछा, “हाँ तो छोटुआ की सारी मांगें मानने के लिए आप तैयार हैं या नहीं?” मैंने दांत पीसते हुए कहा, “हाँ, मैं तैयार हूँ. क्या मांगें हैं उसकी?” वे बोले, ”अपनी मांगें तो वही बताएगा क्योंकि उसकी मांग से हमें कोई लेना देना नहीं है. हाँ, आज आपके छोटुआ के संघर्ष ने हमें पूरे भारत में विख्यात कर दिया है.” मारे गुस्से के मैं कांपने लगा. ये लोग मेरे छोटुआ को मोहरा बना कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ... एक निरीह और अबोध बालक की जान से खेल रहे हैं ... ये इंसान हैं या हैवान??? क्या विदेशी धन के लालच में ये किसी को भी बलि का बकरा बना दे सकते हैं? तरह तरह के प्रश्न कौंध रहे थे मेरे मन में, पर मौके की नजाकत तो समझ कर मैं चुप ही रहा.
        एन.जी.ओ. प्रतिनिधिमंडल ने बाहर निकल कर घोषणा की, “छोटुआ जी  के पिता के रुख में कुछ बदलाव आया है लेकिन वे अभी भी सभी मांगें मानने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए छोटुआ जी का अनशन अभी जारी रहेगा.”
      मैं, पडोसी, पुलिस वाले सभी अवाक रह गए ... यह क्या कह रहे हैं ये एन.जी.ओ. वाले??? मैंने तो बिना शर्त सभी मांगें मानने की बात कही थी और ये बिलकुल उल्टी बात बता रहे हैं टी वी वालों को !! गुस्से में मैं घर के बाहर निकला तो थानेदार ने मुझे रोक लिया. उसे अब मेरी हालत पर तरस आ रहा था. मुझसे उसने पूछा, “कहाँ है आपका बड़ा बेटा? उसे बुलवाइए.” कुछ पडोसी पार्क की तरफ भागे और थोड़ी देर में मेरे बड़े बेटे बड़कू को साथ लिए लौटे.
      थानेदार ने बड़कू को अपने पास बिठाया और प्यार से पुचकारते हुए कहा, “बेटा, तुम्हारा छोटा भाई सुबह से भूखा है, तुम्हारी माँ का रो रो कर बुरा हाल हो गया है, तुम्हारे पिता दिन भर परेशान रहे हैं. क्या तुम्हें अपने भाई के लिए बुरा नहीं लग रहा है?” बड़कू रुआंसा हो गया और बोला, “अंकल, छोटुआ तो कब से अनशन तोड़ने को तैयार बैठा है लेकिन ये एन.जी.ओ. वाले उसे मंच से हटने ही नहीं दे रहे हैं.” थानेदार ने कहा, “बेटा, जाओ और छोटुआ को बोलो कि वह मंच से घोषणा कर दे कि उसकी सभी मांगें मान ली गयी हैं और इसलिए वह अब अपना अनशन समाप्त कर रहा है ... लेकिन ध्यान रहे कि यह बात कोई एन.जी.ओ. वाला नहीं सुने.” बड़कू चुपचाप उठा और बाहर चला गया. कुछ पडोसी भी उसके साथ चल पड़े पीछे पीछे.
      कुछ समय बाद पड़ोसियों ने लौट कर बताया कि बहुत समझदारी का परिचय देते हुए बड़कू छोटुआ को ले कर टेबल के एक कोने में चला गया है और कान में फुसफुसा रहा है. थानेदार मुस्कुराया और बोला कि बस अब कुछ ही देर में सारा मामला शांत हो जाएगा ... आप लोग चिंता मत करिये बस टी वी देखिये.
      और थोड़ी ही देर में सचमुच टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगा “छोटुआ जी की मांगे बिना शर्त मानी” ... “छोटुआ जी ने अपना अनशन समाप्त करने की घोषणा की”, “छोटुआ जी की जीत पूरे राष्ट्र के बच्चों के हक की जीत है” ... !!
      आधे घंटे में ही बड़कू और छोटुआ के अन्य दोस्त उसे कंधे पर बिठाए हुए घर आ गए. पीछे पीछे एन.जी.ओ. वाले भी जीत के नारे लगाते हुए चल रहे थे.  छोटुआ दौड कर अपनी माँ से चिपट गया. मैंने एन.जी.ओ. वालों को कहा, “सालों, यदि घर के अंदर पैर रखा तो पैर तोड़ कर हाथ में दे दूंगा ... उसके बाद बच्चों नहीं अपाहिजों के हितों की रक्षा करते रहना.” थानेदार भी उनपर गुर्राया तो वे अपना अपना झोला संभालते हुए भागे.
      घर के अंदर पहुंचा तो छोटुआ रोते रोते अपनी माँ से कह रह था कि मैं तो बस मैगी नूडल खाना चाहता था. उस दिन पापा के साथ रामलीला मैदान में अन्ना का अनशन देखा था तो मुझे लगा कि यह काम बहुत अच्छा होता होगा इसीलिए अनशन करने लगा था. अब कभी नहीं करूँगा मम्मी!!
      बस यार इसी परेशानी में दिन भर उलझा रहा था ... अभी मैगी नूडल खा कर छोटुआ सो गया है, तुम्हारी भाभी को भी काम्पोज खिला कर सुला दिया है और तुम्हें फोन करके अपनी आपबीती सुना रहा हूँ यार.”
मैं : “ अरे यार, यह तो लेने के देने पड़ गए तुम्हें.”
राजा : “हाँ यार, दूसरी आज़ादी का साइड इफेक्ट है यह.”



रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, August 19, 2011

अन्ना का आंदोलन - भाग एक

बचपन याद है ! बुढा बाबा ( बाबा के बड़े चाचा ) ओसारा के एक कोना में एक पलंगनुमा काफी ऊँचा 'नेवारी'  के  खटिया पर् लेटे रहते थे ! बहुत गुस्से वाले थे और कंजूस भी - जो कुछ भी हम लोग हैं - उनके त्याग का ही फल है - खुद उनको अपनी कोई संतान नहीं थी ! छोटे मोटे ज़मींदार थे ! 

जब उनका मूड ठीक होता हम बच्चे उनके बगल में बैठ जाते ! वो दौर था - जब हम मिडिल स्कूल में पढते थे !  वीर कुंवर सिंह का नाटक हमारे किताब में था ! 'खूब लड़ी मर्दानी- झांसी की रानी' कविता कंठस्थ था ! चेतक :) और 'हार की जीत' ! बुढा बाबा से एक प्रश्न किया था - बाबा , देश आज़ाद हुआ तो आप कितने वर्ष के थे - वो बोले पचपन ! गांधी जी - हमारे गाँव आये थे ? वो बोले - हाँ , बगल वाले गाँव में 'कार' पर् ! गाँधी जी और कार :( मूड ऑफ हो गया था :( 'वामपंथी किताबों' में कार का जिक्र ही नहीं होता था ! 

बाबा राजनीति में थे ! बाबा से प्रश्न होता था - राजेन बाबु ( डा० राजेंद्र प्रसाद ) से आप मिले हैं ? वो बोले - हाँ ! संतोष होता था ! मेरा परिवार भी आजादी की लड़ाई में शामिल था ! राजेन बाबु की सादगी की कल्पना ही अपने आप में रोमांचित करती थी ! वामपंथी इतिहास की किताबें ! बाद में पता चला - राजेन बाबु का हमारे छपरा जिला के सबसे बड़े 'ज़मींदार' 'हथुआ' से काफी गहरे सम्बन्ध थे ! 

एक याद है - एक मामा के बियाह में १९८२ में पटना आये थे ! कदमकुआं से 'बिहार विधानसभा' निकल गए  - यह देखने की वो कौन सात विद्यार्थी थे जिन्होंने देश के लिये गोली खाया ! फिर उन नामो में 'खुद के जिले' का कोई है या नहीं - उसको खोजना ! मुजफ्फरपुर में थे तो 'खुद्दी राम बोंस' की मूर्ती के पास से जब भी गुजरे - एक नमन तो जरुर ही किया ! बचपन में सोचता था - जब भी बड़ा होऊंगा - भगत सिंह - चंद्रशेखर आज़ाद जैसा मुछ रखूँगा ! चंद्रशेखर आज़ाद के किस्से हर वक्त जुबान पर् होता था ! कई चाचा - मामा टाईप आईटम लोग वैसा ही मुछ रखता था ! 

थोडा बड़ा हुए तो - पटना आये ! यहाँ हर कोई 'छात्र आंदोलन ' का नाम लेता ! छात्र आंदोलन में हई हुआ - हउ हुआ ! लालू - नितीश - पासवान - यशवंत सिन्हा - फलना - ठेकाना - झेलाना - जिसको देखो - सब के सब 'छात्र आंदोलन' की उपज ! कुछ लोग इमरजेंसी की प्रशंषा भी करते - कहते ट्रेन समय से चलने लगे थे ! समाज में बकवास बंद हो गया था - पर् घुटन थी ! 

इस् तरह की कई कहानीयां कानों में गूंजती रही ! जब कोई बोलता - आंदोलन - तो हमारे जेनेरेशन के पास कहने को था - 'आई टी आंदोलन' ! मेरा जेनेरेशन सबसे ज्यादा बदलाव देखा है ! मंडल - कमंडल आया लेकिन वो समाज को विभाजीत ही कर के गया :( शर्म से उसको 'आंदोलन' नहीं कह सकते थे :( आई टी - आंदोलन में सब कुछ था - पर् वो नहीं था - जो आजादी और छात्र आंदोलन में था ! आई टी - आंदोलन कुछ फीका जैसा लगता था :( 

'अन्ना' आये ! क्या आये ! जबरदस्त आये ! वो सभी इतिहास की किताबों को सच करने का मौका आ गया ! कानो में गुजती उन कहानीओं को जुबान पर् लाने को दिल मचलने लगा ! टी वी पर् सीरीयल बंद हो गया - रवीश कुमार की खनकती आवाज़ गूंजने लगी ! मस्त ! दिन भर ओफ्फिस में बॉस से अन्ना को डिस्कस  करने के बाद 'होंडा सीटी' को घर के पड़ोस वाले पार्क के नज़दीक पार्क कर के - मोमबत्ती मार्च में शामिल होना - फिर खुद के घर के बालकोनी की तरफ - अपनी ही बीवी को गर्व से देखना - देखो ..देखो ..न..मै   भी कुछ कर सकता हूँ ! मै विदेशी कंपनी' का गुलाम नहीं - एक भारतीय भी हूँ - तुम भी आओ न ..हर्ष और खुशी को भी लेकर आओ ...रुको आती हूँ ..जींस मिल नहीं रहा !  ऐसा लगा - हम भी इतिहास में शामिल हो गए ! 

थैंक यू - अन्ना ! 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Wednesday, June 22, 2011

बहस जारी रहेगी ...भाग एक !!

बहुत पहले की बात है ! एक दोस्त को इंजीनियरिंग में 'मैकेनिकल ब्रांच' मिला ! उसके बाबु जी का बयान था - 'जीप वाला नौकरी नहीं मिलेगा - एस डी ओ नहीं बन् पायेगा' ! बेहद निराशजनक शब्दों में ! शायद उसके बाबु जी की चाहत थी - सिविल इंजिनियर बनता - बिहार सरकार में इंजीनीयर होता - कंकरबाग में जमीन खरीदता - फिर उसमे चार मंजिला मकान - दरवाजे पर् एक जीप खड़ी होती ! दोस्त एकदम अड़ा रहा - पढूंगा तो मैकेनिकल ही वरना कुछ नहीं ! 

इस् पिता की अभिलाषा कहाँ से आई ? 

मेरे इस् मैकेनिकल दोस्त की एक दोस्त होती थी ! बेहद ख़ूबसूरत ! एक देर शाम "नोट्स" आदान प्रदान करना था ! अब उसके घर जाना था ! मै प्लस टू ज़माने में गैरों के लिये काफी 'सोबर' और नजदीक से जानने वालों के लिये 'बदमाश' ! अब दोस्त के 'दोस्त' के घर जाना था ! देर शाम था ! कार चलाने सिर्फ मुझे ही आता - ऊपर से मै काफी 'सोबर' - कहीं भी किसी से पहली मुलाकात में - एक इम्प्रेशन बढ़िया बनने का डर - मेरे दोस्त को सता रहा था ! खैर , मन मार् के वो मुझे लेकर गया !दोस्त के दोस्त के  घर पहुंचे ! एक ड्राईंग रूम खुला - वहाँ से दूसरा ड्राईंग रूम - फिर तीसरा ड्राईंग रूम ! मेरा माथा घूम गया ! टेंशन में हम सोफा पर् धम्म से जा गिरे ! ख़ाक ..इम्प्रेशन बनेगा ! तीन ड्राईंग रूम देख और तीनो बेमिसाल - 

हम तीन दिन तक सोचते रहे - बिहार सरकार ! 


मेरे गाँव में - हमारे घर के ठीक सामने वाले घर से - एक चाचा जी - इंजीनियरिंग में टॉप किये ! इंजीनियरिंग में टॉप बोले तो पक्का इंजिनियर - उनके फाईनल ईयर प्रोजेक्ट को देश भर में सहारा गया ! अब वो एम टेक करने लगे ! इरादा कुछ और था - होस्टल के लॉबी के सभी विद्यार्थी - यू पी एस सी दे रहे थे - ये भी बैठ गए ! आई ये एस बन् गए ! इनके बाबु जी इनको लेकर मेरे बाबु जी के पास आये ! सर झुका ! मेरे बाबु जी बोले - सर क्यों झुकाए हो ? हाकीम बन् गए :)) खुश रहो ! आई एस एस चाचा बोले - नहीं ....मन था अमरीका जा कर कुछ रिसर्च करता ! खैर हाकीमगिरी में अठारह साल गुजारे और अब देश के सबसे धनी व्यक्ती के कंपनी में सबसे बड़े मैनेजर हैं :)) 

क्या सामाजिक दबाब ने विश्व से एक बेहतरीन वैज्ञानिक नहीं छिन लिया ?? 

मार्च महीने में पटना जा रहा था ! राजधानी एसी टू में आर् ए सी ! साथ में उमर में काफी छोटा लड़का ! बात शुरू हुई - हम पूछे - बाबु क्या करते हो ? बोला - सर , मै फलाना स्टेट में फलाना अधिकारी हूँ ! मैंने बोला - हूँ ..आई ए एस हो - और मै मुस्कुरा दिया ! मेरी मुस्कान थोड़ी टेढी थी ! उसने हंसते हुए बोला - सर , मै ईमानदार रहूँगा ! मै जोर से हंस दिया ! वो काफी शरमा रहा था - टी टी को बुला - मैंने उसको फर्स्ट क्लास में भेज दिया ! 

क्या जरुरत आ पडी - उसको यह बोलने की - 'मै ईमानदार रहूँगा' ! 

बहस जारी रहेगी ....क्रमशः 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, June 10, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - गर्मी की छुट्टी

परसों ट्विटर पर् देखा ..जुही चावला अपने बच्चों के बारे में लिखी थीं - उनके बच्चे गर्मी की छुट्टी मनाने अपने 'ग्रैंड  पैरेंट्स' के पास गए हैं :) मेरे बच्चे भी चार जुन को पटना निकल गए ! मुझे भी जाना था पर् नहीं गया ! ट्रेन पर् बहुत खुश थे ...ट्रेन खुलते वक्त बच्चों ने फ्लाईंग किस दिया ...रमेश भी उसी ट्रेन से जा रहा थे   ..गेट पर् लटका हुआ थे  - बोले की - किसको फ़्लाइंग किस दे रहे हैं ? हम बोले ..नहीं भाई ...बच्चे खुश हैं ...उनको फ्लाईंग किस मार् रहा था ..और कुछ नहीं ! 

अपना बचपन याद आ गया ! बचपन से लेकर मैट्रीक की परीक्षा पास करने तक मैंने सभी गर्मी की छुट्टीयां 'गाँव में बाबा - दीदी ( दादी ) के साथ ही मनाया है ! मस्त ! हर उम्र की यादें साथ हैं ! 

दस बजिया - हिन्दी स्कूल से पढ़ा लिखा हूँ ! छमाही की परीक्षा खत्म होते ही 'पटना/मुजफ्फरपुर' का डेरा जेल सा लगने लगता था ! माँ बाबु जी किसी जेलर से कम नहीं ! गाँव से किसी के आने का इंतज़ार - फिर गाँव के लिये निकल पड़ना ! बाबू जी वाला जेनेरेशन पहला जेनेरेशन नौकरी था - गाँव से लोगों को लगाव था ! पूरा गाँव आ जाता था ! मजा आता ! 

सुबह में दरवाजा पर् बड़ा बाल्टी और बाल्टी में पानी और पानी में आम ! कहीं से भी खेल कूद कर आईये और एक आम :) मुझे आम चिउरा बहुत पसंद ! चिउरा को पानी में फूला कर फिर आम के रस के साथ - भर पेट नाश्ता ! फिर थोड़ी धूप निकल जाती - तो दालान में "वीर कुंवर सिंह" वाला नाटक खेलना ! शाम को "घोन्सार" से भूंजा आता - तरह तरह का - चावल का - चना का - मकई का - शाम को भर पाकीट भूंजा ! फिर खेल कूद ! 

लट्टू नचाना पसंदीदा होता ! बढ़ई के यहाँ जा कर गूँज ठोकवाना ..फिर लट्टू ..शाम को 'गुल्ली - डंडा' ...वो एक समय था - "गुरदेल का" ( गुलेल ) ! गाँव के दक्षिण से 'चिकनी मिट्टी' लाना - उसकी गोली बनाना और फिर गोली को धूप में सुखा - आग में पका - गुलेल चलाना ! उफ्फ्फ्फ़ ....

क्या लिखूं और क्या न लिखूं ? सप्ताह में दो बार - गाँव में हाट लगता था - बाबा चार आना देते थे ! चार आना में "भगाऊ महतो" के ठेला पर् खूब तीता "भूंजा" खाते ...दौड़ते भागते घर लौट आना ! गाँव के बाज़ार में "छुरी" बिकता - बहुत मन करता - एक मै भी रखूं - बाबा से जिद करता - बाबा अपने पॉकेट में एकदम कडकड़ीया नोट रखते थे - वहीँ से एक पांच रुपैया का नोट निकालते और मै एक छुरी खरीदता - घर लौटते - लौटते उंगली कट चुकी होती - घर में किसी को इज़ाज़त नहीं थी - डांटने की ! 'हजाम डाक्टर' आते ! मरहम पट्टी लगती ! फिर मै बाबा के साथ उनके हवादार कमरे में सो जाता ! बाबा के सिराहने एक बन्दूक - एक टॉर्च होता और खूब बड़ा मसनद ! 

आम से कुछ याद आया - अन्यथा नहीं लीजियेगा ! हम बिहार के 'छपरा जिला' वाले थोड़े गरीब होते हैं ! पुरे भारत में इससे ज्यादा उपजाऊ ज़मीन कहीं और की नहीं है - सो जनसँख्या ज्यादा है ! 'इज्ज़त बचाने' के लिये हम सम्मलित रूप से रहते हैं ! कई बगीचा हम 'पट्टीदारों' में संयुक्त थे ! वहाँ से आप तुडा कर आता था - परबाबा जिन्दा थे - आँख से अंधा - क्या मल्कियत थी ....सभी आम उनके सामने रखा जाता ..एक आदमी गिनती करता ...फिर सभी पट्टीदारों में बराबर ..हाँ , पहला हिस्सा 'राम जानकी मठ' को जाता ! इसको हमलोग 'मठिया' कहते थे ! मेरे परिवार के पूर्वजों का देन है - ट्रस्ट है ! इस् ट्रस्ट का मुखिया हमेशा हमारे परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ती ही होगा ! गाँव की सबसे बढ़िया ज़मीन इस् ट्रस्ट को दान दी हुई है - करीब पचीस एकड का एक प्लाट है ! 

आम बंटवाने का रोज का नियम होता था ! तरह तरह के आम - केरवा आम , पिलुहिया आम , बिज्जू , सेनुर ..मालूम नहीं कौन कौन ...! तब तक बड़े बाबा मुजफ्फरपुर से लकड़ी के बक्सा में पांच दस हज़ार लीची भेजवा देते थे ! शाही लीची ! दालान पर् रख दे तो दालान खुशबू से भर जाता ! 

दोपहर में नहाने में मजा आता ! 'इनार' पर् - बाबा के साथ ! लक्स साबुन घस घस के ! "पकवा इनार" ! धीरे धीरे इनार की जगह चापाकल ले लिया ! थोड़ी देर चापाकल चलाया जाता ! उसमे ठंडा पानी निकलता ! पानी एक बड़ा लोहे के टब में भरा जाता ! टब को चार आदमी पकड़ के 'बरामदा में लाते' वहाँ एक खूब बड़ा पीढा होता - उसपर बाबा नहाते ! लक्स साबुन से ! जनेऊ मे वो  अपना  अंगूठी बाँध देते ! फिर वो दुर्गा पाठ करते - सिर्फ धोती पहन ! फिर एकदम सात्विक भोजन ! पीढा पर् बैठ के - भंसा घर के कोना पर् - परदादी खुद बाबा का खाना परोसती - अंत में दही  ! यह एक ऐसी आदत लगी मुझे की मै कभी भी 'भोज भात' में नहीं खा पाता हूँ - खाते वक्त मै बिलकुल अकेला होना चाहिए ! आज भी - दोपहर का भोजन मै बिलकुल अकेले करता हूँ ! डाईनिंग टेबल पर वो मजा नहीं जो पीढ़ा पर पालथी मार के बैठ - खाने में आता था ! 

बाबा राजनीति में थे सो गोपालगंज में डाकबंगला मिला हुआ था - कई एकड में फैला हुआ - डाक्बंगला ! लाल बत्ती गाड़ी और एस्कोर्ट जीप और मालूम नहीं क्या क्या ! बाबा के साथ गोपालगंज निकल जाता ! बाबा नहा धो अपने राजनीतिक सफर पर् और मेरे साथ उनका खानसामा ! डाकबंगला के सामने दो होटल थे ! वहाँ से एकदम खूब झालदार , गाढा रस वाला 'खन्सी का मीट' एक प्लेट आता ! भात और मीट खा के एक नींद मारता !  बाबा एक जीप मेरे लिये डाकबंगला में रखवा देते थे और गोपालगंज के सभी 'सिनेमा हौल' को बोला होता था - मै कभी भी किसी भी सिनेमा हॉल में धमक जाउंगा - सो बिना किसी रोक टोक सिनेमा देखने दिया जाए ;) मेरी सबसे छोटी और मुझे सबसे ज्यादा मानने वाली फुआ वहीँ गोपालगंज के महिला कॉलेज में शिक्षिका थी - उसके डेरा पर् निकल जाता ! बहुत खातिर होता ! बहुत महीन और पढ़ा लिखा परिवार ! बैंक में पैसा रख भूखे पेट सोने वाला परिवार नहीं था - तरह तरह का सब्जी ! छोटा फुफेरा भाई था - हम जहाँ जाते वो मेरे पीछे पीछे !   

धीरे धीरे हम टीनएज हो गए ! गाँव में लगन का समय होता ! दिन में जनेऊ और रात में बारात ! स्कूल पर् बारात ठहरता ! अपना टीम था ! अब हम रात में "दुआर" पर् सोने लगे ! दादी बहुत ख्याल रखती ! बाबा के बड़ा वाला खटिया के बगल में मेरा भी खटिया लगता ! खूब बड़ा - एक दम टाईट बिना हुआ ! सफ़ेद खोल वाला तोशक और चादर ! दो बड़ा मसनद , एक सर के पास और एक पैर के पास ;) बगल में स्टूल - स्टूल पर् एक 'जग ठंडा पानी' और गिलास ! मुशहरी का डंडा और सफ़ेद कॉटन वाला मुशहरी ! रात में सब चचेरा भाई लोग के साथ 'स्कूल पर् रुके हुए बारात का नाच देखने के लिये फरार' ;) डर भी - कोई पहचान न ले ! कभी कोई हंगामा होता तो सबसे पहले हम भागते ! हा हा हा ! सोनपुर मेला से खरीदा हुआ "गुपती" साथ में होता - किसी पर् चल जाए तो भगवान भी न बचा पाये ! 

थोड़ा और बड़ा हुए तो चाचा का 'राजदूत मोटरसाईकील' ! मजा आ जाता ! चाचा बैंक में मैनेजर हैं ! अगर चाचा गाँव पर् नहीं हैं - बाबा भी नहीं हैं - फिर एक चेला मोटरसाईकील के पीछे ! 

मैट्रीक की परीक्षा के बाद मै जबरदस्ती गाँव गया और खेती सिखा ! बाबा एक बगीचा लगवाए थे ! बाबा ही नहीं - हम तीनो पट्टीदार ! अलग अलग जगह - बगीचा के बगल में पोखर ! सुबह सुबह बगीचा चला जाता ! दस बजे तक वहीँ रुकता ! फिर पम्प सेट चालू करवा - खूब ठंडा पानी में  छोटा वाला चौकी पर् 'गमछी' लपेट - जनेऊ धारण कर - नहाता ! फिर वहाँ से खाली पैर - एक किलोमीटर चल घर पहुँचता ! फिर शाम को बगीचा में - फिर नहाना ! 

आज भी बाबा से उस बगीचे का हाल जरुर पूछता हूँ ! बाबू जी दोनों भाई को बाबा ज़मीन बाँट दिए हैं - बगीचा का कौन सा हिस्सा मुझे मिला - बाबा कहते हैं - आ कर देख लो ! अपना सब ज़मीन पहचान लो ! 

आज उस ज़मीन से पेट नहीं भरेगा ! बहुत दुःख है ! कुछ और ज़मीन होता ! असली रईसी तो वहीँ है - जो जमीन से जुड़ा है - बाकी सब तो ...खोखला है ! ज़मीन ऐसा चीज़ है ..टाटा - बिडला भी ईमानदारी से नहीं खरीद सकते :)) 

मेरे बच्चे पटना गए हुए हैं - गाँव भी जायेंगे ! 'मल्कियत' तो नहीं रही - फिर भी  कुछ तो एहसास होगा ....समय बदल गया है ...फिर भी ..कुछ चीजें इतनी जटिल होती हैं ..उनको बदलने में कई जेनेरेशन लग् जाता है !! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Monday, April 25, 2011

एक सच्ची कहानी ....भाग - एक

बात चार साल पुरानी है ! मेरे 'हेड' जो भारत सरकार के वैज्ञानिक रह चुके थे अचानक से हमारे यहाँ से छोड़ कर चले गए ! जिम्मेदारी मेरे कंधो पर आ गयी ! मुश्किल घड़ी थी - तब जब आपके डिपार्टमेंट में करीब चालीस 'पढ़ी लिखी' महिलायें हो :( मैंने अपनी मुश्किल ऊपर तक पहुंचाई और मुझे 'एम टेक ( कंप्यूटर इंजिनीयरिंग)' का इंचार्ज बना दिया गया और डिपार्टमेंट के झमेले से छूटकारा मिल गया  ! यह कोर्स विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ही था ! खैर जुलाई का महीना था - कॉलेज में छुट्टी हो गयी और मै इस कोर्स के चलते छुट्टी पर नहीं जा सका ! यहाँ एक नियम था की सिर्फ - प्रोफ़ेसर रैंक के ही शिक्षक पढ़ा सकते हैं ! अब कंप्यूटर इंजिनीरिंग में प्रोफ़ेसर पास के आई आई टी में ही थे और उनके नखरे इतने की मुझे उनमे से किसी को बुलाने की हिम्मत नहीं हुई ! तभी अचानक एक वैज्ञानिक एवं भारत सरकार के एक शिक्षण संस्थान के प्रोफ़ेसर के बारे में पता चला ! मैंने उनके नाम के लिए - अपने वाईस चांसलर से परमिशन ले लिया ! उनकी उम्र करीब अस्सी को होने को आयी थी ! उनको लाने  और ले जाने के लिए - मुझे संस्थान से गाड़ी मिली थी पर उनकी इज्जत के लिए मैंने सोचा की - मै खुद उनको लाऊंगा और ले जाऊँगा ! तब मै सहायक प्राध्यापक था ! 

मेरी एक आदत है - जब मै किसी भी व्यक्ति से मिलता हूँ - उनके बारे में 'गूगल' में थोडा खोज बिन कर लेता हूँ ! इस प्रोफ़ेसर साहब के बारे में भी थोड़ा सर्च किया - हालांकी उनका बहुत छोटा और एक पन्ने का रेज्यूमे मेरे पास था ! थोडा इन्फो हंगरी हूँ ! गूगल पर खोज किया ! 

उनको क्लास लेने के लिए - मेरे यहाँ करीब पन्द्रह दिन आना था ! उनको लाते - ले जाते फिर क्लास के बीच चाय पानी फिर उनका मेरे केबिन में बैठना - जान पहचान और अपनापन बढ़ता गया ! मै उनसे 'कंप्यूटर इंजीनियरिंग' के सवाल न के बराबर पर जीवन दर्शन पर उनकी सोच के बारे में पूछता ! 

जो कुछ उन्होंने खुद के बारे बताया - वो इस प्रकार था - उन्होंने अपनी पी एच डी सन 1957 में विक्रम साराभाई के गाईड में की - उनके वाइवा लेने के लिए अमरीका से प्रोफ़ेसर आये थे - संयुक्त राष्ट्र संघ के ! फिर वो अमरीका के सबसे मशहूर विश्वविद्यालय में शिक्षक बने - जिंदगी मजे में गुजर रही थी - कहते हैं - एक दिन अचानक उनके पास भारत से फोन आया - 'श्रीमती गाँधी अब आप से बात करेंगी ' - श्रीमती गाँधी - " देश को आप जैसे लोगों की जरुरत है - अगर आप भारत लौट आयें तो देशवासीओं के साथ साथ मुझे प्रसन्नता होगी " ! वो कहते हैं - कौन ऐसा देशभक्त होगा जो सीधे प्रधानमंत्री से बात कर देश नहीं लौटेगा - मै अगले महीने ही 'भारत लौट आया' ! श्रीमती गाँधी ने बहुत इज्ज़त दी और धीरे - धीरे मै भारत सरकार के सभी 'विज्ञानं और तकनिकी प्रयोगशाला' में अपना योगदान दिया ! एक प्रधानमंत्री के लंबे कार्यकाल में मै 'उनका तकनिकी सलाहकार' बना ! ( पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद , राष्ट्रपति बनने के पहले इसी पोस्ट पर थे ) !

कई बार मुझे अजीब लगता ! इतना बड़ा आदमी ! सरकारी बस से अपने संस्थान में आता है ! अस्सी के उम्र में भी पढाता है और पढता है ! मेरी रुची उनके बारे में जानने को और बढ़ी - मै गूगल के तरफ मुखातिब हुआ ! वैज्ञानिक लोग या शिक्षक देश विदेश के जर्नल में अपना 'पेपर' लिखते हैं - इनको भी आदत थी ! रक्षा के बड़े बड़े कंपनी अपने प्रोडक्ट के बारे में रक्षा से सम्बंधित मैग्जीन में निकालते हैं या कुछ फ्री सैम्पल विभिन्न सरकारों को भेजते हैं ! सो , इन्होने एक प्रोडक्ट का ट्रायल रिपोर्ट विदेश की किसी मैग्जीन वाले को भेजा ! कुरियर कंपनी को संदेह हुआ ! उसने कुरियर खोला और कुछ तकनिकी चीज़ें मिली ! केस दर्ज हुआ ! रातों रात छापा पड़ा ! कहीं कुछ भी नहीं मिला ! "जासूसी उपन्यास और मसाला " के लिए पुलिस अधिकारी बुरी तरह पीछे पड गए ! ( बड़े अधिकारी ) ! 

इनको कोर्ट ने बा इज्ज़त बरी कर दिया - सी बी आई के किसी अधिकारी की अहंकार को ठेस पहुँची थी ! उसने फिर से केस खुलवाया ! ऊपर वाले कोर्ट में अपील हुआ - देश के साथ विश्वासघात का ! देशद्रोह का ! केस दस साल चला - इस बीच इस गरीब ब्राह्मण ने अपने बड़ी पुत्र को खोया ! पूरा परिवार डिप्रेशन में ! वो सब कुछ बेच अपनी कोई इज्ज़त और प्रतिष्ठा के लिए लड़ रहे थे ! अंत में सुप्रीम कोर्ट ने जबरदस्त फटकार "बड़े पुलिस अधिकारिओं" को लगाईं और इनको बा इज्ज़त बरी किया गया ! इस बीच बारह साल बीत चुके थे ! 

इनको एक संस्थान में प्रोफ़ेसर एमिरीटस नियुक्त किया गया ! कुछ साल वो यहाँ बिताए - इसी दौरान मेरी उनसे मुलाक़ात हुई ! 

मै इस कहानी को जिस दिन जाना - रात भर नहीं सो सका ! अगले दिन जब उनसे मिला तो मै उनके चरण स्पर्श किया और आँख में आंसू आ गए - वो पूछे - क्यों रो रहे हो - मैंने झूठ बोला - आपको देख 'दादा जी' की याद आ रही है - छुट्टी मिलता तो गाँव घूम आता ! वो हंसने लगे - कहे मुझे भी गाँव जाना है - मेरी माँ ने मुझसे वादा माँगा था - जीवन में कुछ पैसे बचा लिया तो - गाँव के प्राथमिक विद्यालय को डोनेट करूँगा ! मेरे पास कुछ रुपैये बचे हैं - दो साल से लगा हूँ - गाँव का प्राथमिक विद्यालय लगभग तैयार हो चूका है ! 

मै हतप्रभ था - पावर के घमंड में चूर अधिकारी इनके जीवन से इनके पुत्र को छीना - आप जीवन में उच्च शिखर पर हैं - प्रधानमंत्री से हर हफ्ता मिल रहे हैं - अचानक आपके हाथ हथकड़ी और फिर बारह साल की लड़ाई ! फिर भी प्राथमिक शिक्षा के लिए यह व्यक्ति अपना सब कुछ लगा रहा है और वो भी अस्सी वर्ष की आयु में - उसी जोश से ! वो बार बार कहते रहे - 'प्राथमिक शिक्षा और शिक्षक' का बहुत रोल है जीवन में ! इनको इज्ज़त देना सीखिए !

 वो अपना मोबाईल नहीं रखते थे ..जब तक वो पढ़ाते रहे ..मै कोशिश करता रहा ..उनसे मिलूं ..और मिला भी ...उनकी पूरी कहानी नहीं छाप रहा हूँ ....पर ..बहुत दर्द छिपा था ...और हमेशा मुस्कुराते ...और मै .....

क्रमशः

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Saturday, April 23, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - दादी की कहानी :))

मुजफ्फरपुर में रहते थे ! बात 1978 -1979 की रही होगी ! बड़ी दादी - हर शाम एक कहानी सुनाती थी ! उन्ही कहानी में से एक 'कहानी' जिसे आप सभी भी सुने होंगे - लिख रहा हूँ ! 

एक बारएक चिड़िया कहीं से दाल का एक दाना चुग कर ले जा रही थी ! रास्ते में सुस्ताने के लिये वो एक 'खूंटा' के ऊपर बैठ गयी ! तभी उसके चोंच से 'दाल का दाना' खूंटा के अंदर जा गिरा ! अब बेचारी 'चिड़िया' परेशान हो गयी ! बहुत दुखी :( सोचने लगी दाल का दाना कैसे वापस मिले ..इसी सोच में वो 'बढ़ई' के पास गयी ! बढई से बोली - ' बढ़ई - बढ़ई ..खूंटा चीर ..खूंटा में हमार दाल बा .का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं' ! बढ़ई कुछ देर सोचा फिर बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये ..हम खूंटा नहीं चीरेंगे ..मुझे और भी काम है ! 

चिड़िया और दुखी हो गयी और वो 'राजा' के पास गयी और राजा से बोली - राजा राजा ..बढई के डंडा मार् ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ..खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का लेके परदेस जाईं ..! राजा हँसे लगा - बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये हम 'बढ़ई' को क्यों मारे ..जाओ भागो यहाँ से ..मुझे और भी जरूरी काम है ! 

राजा से ना सुन ..चिड़िया और भी दुखी हो गयी ! कुछ हिम्मत रख वो 'सांप' के पास गयी और सांप से बोली - सांप सांप ..राजा डंस ..राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! सांप को भी अजीब लगा वो चिड़िया से बोला - तुम बेवकूफ हो , तुम्हारे एक दाना के लिए मै राजा को डंसने वाला नहीं हूँ ..जाओ ..भागो यहाँ से ..मुझे अभी सोना है !

अब चिड़िया को गुस्सा आया और वो 'लाठी' के पास गई ! लाठी से बोला - लाठी ..लाठी ..सांप मार ..सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! लाठी को भी अजीब लगा और उसने चिड़िया को भगा दिया !

लाठी से ना सुन ...अब चिड़िया 'आग' के पास गयी ! आग से विनती किया - आग आग ...लाठी जलाव ..लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! आग को बहुत गुस्सा आया ....और वो चिड़िया को भगा दिया और बोला ..मुर्ख चिड़िया ..मै तुम्हारे एक दाना के लिए ...लाठी को जला दूँ ...ऐसा कभी नहीं हो सकता ..भागो यहाँ से ...!

अब चिड़िया हताश हो गयी और अंत में वो अपनी सहेली 'नदी' के पास गयी ! नदी को वो अपनी बड़ी बहन जैसा मानती थी ...रोज नदी में डूबकी लगा नहाती थी ...नदी को बोली - ' नदी ..नदी ..आग बुझाओ ..आग ना लाठी जलाव ...लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! चिड़िया की व्यथा सुन ..नदी को तरस आ गया ..और वो सोची ...चलो ..बेचारी चिड़िया का मदद किया जाए ...और नदी निकल पडी ..आग बुझाने ..नदी को अपने तरफ आता देख ..आग डर गया ..और बोला ..अरे नदी ..मै अभी लाठी को जला कर आता हूँ ...आग को देख लाठी भी डर गया और वो बोला ..रुको ..मै अभी सांप को मारता हूँ ...लाठी देख ..सांप तेज़ी से राजा के तरफ भागा ..राजा को डंसने के लिए ....सांप को देख ..राजा ने बढ़ई को बुलवाया ...राजा के भय से ...बढ़ई तुरंत खूंटा को चीरने को तैयार हो गया ...बढ़ई को आता देख ...खूंटा बोला ..ए भाई ..हमको क्यों चिरोगे ...बस हमको उल्टा कर दो ...दाल का दाना खुद निकल जाएगा ...बढ़ई ने खूंटा को उल्टा किया और ..दाल का दाना बाहर निकल आया ..चिड़िया ..उसको अपने चोंच से पकड़ कर ...सबको धन्यवाद करके ...फुर्र्र से उड गयी ..:))

हम्मम्मम ....सो बच्चों और उनके माता - पिता  ...दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है ...बस ...एक हिम्मत और प्रण चाहिए :))

कहानी कैसा लगा ....कम्मेंट देंगे ..या फेसबुक पर लाईक करें ...:)) 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Sunday, April 3, 2011

क्रिकेट जूनून है ....

कल रात मै दंग था ! हतप्रभ था ! बालकोनी से देखा - रात 'बारह' बजे - लोग सडकों पर् ! 'चिल्ला रहे थे' ! ऐसा वीकेंड कभी नहीं देखा ! जिस किसी ने भी इस् खुशी को हम सब को दिया - उनको शत शत 'नमन' ! 

हम एक गरीब देश थे ! 'खुशी' का इज़हार कभी सीखे ही नहीं ! टी वी पर् देखता था ! जर्मनी - इंग्लैण्ड में फूटबोंल मैच के बाद 'सडकों' पर् आया जाता है ! जोर जोर से चीखा जाता है - चिल्लाया जाता है ! हमें कभी मौका ही नहीं मिला की हम भी 'चीख - चिल्ला' दुनिया की इलीट क्लब में शामिल हो सकें ! 

सच पूछिए तो 1983 का वर्ल्ड कप जब भारत जीत गया तब 'हमको' पता चला था :( तब जा कर मैंने "खेल भारती' ( संपादक - डा० नरोत्तम पूरी ) और 'क्रिकेट सम्राट' - 'स्पोर्ट्स स्टार' जैसे पत्रिकाओं के मध्यम से 'खेल की दुनिया' को जाने ! "किर्ती आज़ाद' की पारी आज तक याद है - जवाहर लाल स्टेडियम में ! बाद में पता चला की - इनका पूरा नाम - 'किर्ती झा आज़ाद ' है :)) 

1985 में भी गावस्कर के नेतृत्व में "बेन्सन और हेजेज' ट्राफी जीते थे - ऑस्ट्रेलिया में ! एक एक मैच का गवाह हूँ ! कसम मेरे 'अटारी कलर टी वी' का ! रवि शास्त्री को "औडी" कार मिली थी ! फिर भी हिम्मत नहीं हुई थी - 'सडकों' पर् आकार "चीखूँ - चिल्लाऊँ" ! औडी तो बस टी वी में दिखा था :( आज कई दोस्तों के पास है - एक ने तो दो - दो रखी है ! हमउम्र है - दो चार साल ज्यादा ! 1985 से दीमाग में "औडी" घुसा हुआ होगा - आज पैसा हुआ तो एक को कौन पूछे - दो दो खरीद लिया :)) 

क्रिकेट जूनून है ! जिला स्कूल मुजफ्फरपुर में था - क्लास वालों ने 'कैप्टन' बनाने से मना कर दिया - तब हम क्लास के "मुकेश अम्बानी" हुआ करते थे ;) बेचारों को मुझे 'कप्तान' बनाना ही पड़ा ! नंबर पांच का बैट होता था - मेरी ही ऊँचाई का ! लिकोप्लास्त को साट के उसको कई वर्ष जीवित रखा ! पटना आया तो ज्यादा नहीं खेल पाया ..........तृष्णा को 'टी वी ' में देख तृप्त किया ! 

क्रिकेट खुदा है ! परबाबा के छोटे और चचेरे भाई थे - "छोटका बाबा" - संतोष रेडियो पर् दिन भर कमेंट्री सुनते थे  और उस जमाने में - रवि शास्त्री की धीमी पारी के सबसे बड़े आलोचक ! मेरी याद में ..मैंने उनको गाँव से बाहर कभी जाते नहीं देखा - पुत्र सभी अपने अपने 'कैरियर' में बहुत ऊँचाई पर् है - उनके साले साहब भी 'भारत के प्रमुख डाक्टर थे ! क्या जूनून था - पुरे स्टेडियम और खेल की कल्पना वो रेडियो पर् ही कर लेते थे ! दिन भर पान खाते और कमेंट्री सुनते थे ! 

हल्की याद है - बेदी की - प्रसन्ना की - चंद्रशेखर की ! बाबु जी अक्सर 'चंद्रशेखर' की बौलिंग की कहानी बताते ! हम भी उनकी बौलिंग बिना देखे - कल्पना कर लेते ! 'गावस्कर - कपिलदेव" पर् तो खुद भी कई बार दोस्तों से 'खून खराबा' कर चुके हैं :)) 

"कैरी पैकर" समय से कितना आगे थे ....आज वही सब "आई पी एल" में हो रहा है ! चैनल 9 से हमने 'प्रसारण' सीखा ! सुबह सुबह टी वी पर् ऑस्ट्रेलिया वाला खेल देखना और वहाँ के 'दर्शकों' को देखना ! एक एहसास था - हम उनके जैसे नहीं हैं ! ठण्ड के दिनों में - रजाई में दुबक कर 'मैच' देख लेना - बस जीत को स्कूल के दोस्तों तक इज़हार करना ! 

कल पुरस्कार समारोह में कई वर्षों बाद 'क्लाईव ल्योड़' दिखे ! उफ्फ्फ ...आज भी याद है ...उनके मैल्कम मार्शल ....जिनकी बहुत बड़ी तस्वीर मेरे कमरे में होती थी ! मालूम नहीं ..कितने लोगों ने उनको पहचाना ! 

पर् मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतिओं ने देश को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया ! इस् देश में 'अज़ीम प्रेम जी - नारायण मूर्ती' पैदा लिये ! "राजू - रजत गुप्ता - मोदी" भी पैदा लिये ! जी - राजा और निरा राडीया भी ! 

हम सभी में आत्मविश्वास आया - अब हमने भी सडकों पर् "चीखना - चिल्लाना" सीख लिया है ! क्या अम्बानी - क्या सोनिया - क्या हम - क्या तुम ! 

आगे क्या लिखूं ......अचानक से आज एक खालीपन है .....! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !