Saturday, September 25, 2010

लाईफ इन अ मेट्रो - पार्ट वन

फाईनल सेमेस्टर का परीक्षा के बाद हम 'पटना' में जम गए थे ! दोस्त लोग नौकरी में जाने लगे - फोन आने लगे ! हम सोचे जब सब 'नौकरी' कर रहे हैं - फिर हमें भी कर लेना चाहिए ! :)

'अमित' को बंगलौर में नौकरी लगी थी ! फोन किया - बोला 'आ जाओ' ! हम भी ट्रेन पकड़ लिए ! उनदिनो 'मोबाईल' नहीं होता था ! बंगलौर पहुंचा तो पता चला की वो 'दूसरे शहर ' गया हुआ है दीदी से मिलने ! अब मै क्या करूँ ? सोचा "नौकरी" करने आया हूँ - अंदाज़ फ़िल्मी होना चाहिए ! पूरी रात 'मजेस्टिक बस स्टेशन' पर् गुजार दिया ! अगली सुबह 'अमित' से मुलाकात हुई ! उसको कंपनी वालों ने 'मल्लेश्वरम' चौक पर् एक कमरा दिया हुआ था ! जम गए 'कमरा' में ! 'अमित' को हमारे बैच वाले 'दादा' कहते हैं ! 'दादा' को मेरी नौकरी की टेंशन थी - मैंने उसको समझाया - नौकरी बड़ी चीज़ नहीं है - नौकरी में मन लगना बड़ी चीज़ है ! पटना से चलते वक्त - बाबु जी ने बाटा का किंगस्ट्रीट जूता खरीद कर दिया था - १० ही दिन में वो बेचारा दम तोड़ दिया ! खैर अगले एक दो सप्ताह में ही नौकरी लग गयी ! एक आई आई एम अलुम्नी की छोटी सी कंपनी थी !

हर सुबह 'नहाने' का झंझट होता था ! जब तक मै सो कर उठता - 'दादा' नहा धो कर 'तैयार' :) अब जब वो अपने ओफ्फिस की तरफ निकलता तब मै 'अखबार' पढता - फिर चाय - फिर नहा धो कर लेट लतीफ़ ! शाम को लगभग हम दोनों एक ही समय में पहुँचते ! फिर साथ में 'दूकान' में एक कप चाय को दो भाग में करके  पीते ! जिस जगह हम रहते थे - वहाँ काफी व्यस्त सड़क थी ! उसको 'मल्लेश्वरम सर्किल' कहते थे ! देर रात तक भीड़ भाड़ ! एक मैग्जीन की दूकान होती थी - वहाँ से आठ आना में मैग्जीन को रात भर पढने के लिए लाते थे ! :) The Week की लत वहीँ लगी थी !

रात को खाने का हमलोगों ने बढ़िया ट्रिक निकाला था ! एक अंडा के दूकान से चार उबला अंडा खरीद , फिर एक रेस्तरां से छह रुपईया में एक प्लेट चावल और चिकन की करी :) कुल १२ -१३ रुपईया में दम भर खाना :) दरअसल 'दादा' ने रेस्तरां के किचेन वाले को 'फिट' कर रखा था :) वो एक प्लेट चावल की जगह दो प्लेट दे देता था और चिकन करी मुफ्त में :) हम इतने बेचारा शक्ल में होते की - कोई भी कुछ भी दे सकता था :) एक शनीवार दादा 'ब्रिगेड' लेकर गया - बोला 'देखो' यही है "दुनिया" ! फिर क्या 'दादा' के "विजय सुपर " पर् चढ हम रोज "दुनिया" देखने जाने लगे ! :) फिर , शनीवार देर रात ! क्या 'दुनिया थी' :) "जन्नत लगता था" ! कई दोस्त जो वहाँ विदेशी कंपनी में काम करते थे - वहीँ मिलते ! जो जितना 'कमाता' वो उतना ही बड़ा 'कंजूस' :)

मेरे लिए 'अन्जान' लोगों से दोस्ती थोड़ी मुश्किल थी - पर् 'दादा' सब से कर लेता था ! हम जिस मकान में रहते थे - उसका नाम था "रतन महल" ! हम जैसे ही वहाँ रहते थे ! दादा वहाँ बहुतों से दोस्ती कर लिया ! एक और टीम था - उडिया का - "सुबुध्धी" - ISRO में वैज्ञानिक था ! अब टीम बड़ी हो गयी - रात में साथ खाना खाने वालों का ! हम और दादा अब 'चावल और अंडा' वाला धंधा बंद कर दिए थे - हम सभी अब नए ठीकाने खोज लिए - "आन्ध्र स्टाईल" रेस्तरां ! इसी बीच हम भी एक 'बजाज चेतक स्कूटर' खरीद लिए !

तब तक 'तविंदर सिंह' पहुँच गया ! लंबा चौड़ा 'जम्मू का सरदार' ! उसको भी नौकरी लग गयी :) हम तीनो एक साथ "दादा" के कमरे में रहने लगे ! एक दिन 'दादा' बोला - भाई - ये रूम मेरी कंपनी का है - अब तुम दोनों अलग कमरा ले लो ! हम और तविंदर दोनों ने एक कमरा उसी 'रतन महल' में ले लिया ! तविंदर सरदार था - दिल बहुत बड़ा और 'बहस करने में उतना ही माहीर ! रात भर बहस करता था ! और कमरे में मै पलंग पर् सोता और वो नीचे ! कभी शिकायत नहीं किया ! अब वो कंगारू स्टेपलर का इंटरनेशनल हेड है :) नॉएडा आया था तो मिला था :) फेसबुक पर् भी है :)

तविंदर के आने से एक फायदा हुआ - हम सभी अलसूर रोड पर् एक गुरुद्वारा में हर रविवार 'लंगर' खाने जाने लगे :) बहुत मजा आता था ! पूरा एक टीम ! तविंदर देर रात अपनी पगड़ी को हम सभी से सीधा करवाता था :) फिर सुबह में उसकी पगड़ी बांधो !

एक छोटी सी घटना याद है - के आर सर्किल के पास बंगलौर का सबसे बढ़िया 'इंजिनिअरिंग कॉलेज' है - वेश्वेश्वरैया जी के नाम पर् ! वहाँ से गुजर रहा था ! पोस्टर देखा - वहाँ 'मिलेनियम ग्रुप' का रॉक शो होने वाला था ! मै कॉलेज के अंदर घुसा गया ! अभी नया नया खुद भी कॉलेज से पास किया था तो झिझक नहीं हुई ! वहाँ के विद्यार्थीओं के कल्चरल सेक्रेटी से मिला और बोला - "मुझे अवसर दोगे , मिल्लेनियम ग्रुप के साथ ? " वो बहुत देर तक हंसा फिर बोला - ओके , आ जाना कल :) अब , कल के लिए कपडे नहीं थे :) जिस कपडे में 'इंटरविउ' देता फिरता था - उसमे ही पहुँच गया - सफ़ेद शर्ट - काला पैंट और लाल टाई ;) "दादा" भी साथ में था ! जबरदस्त स्टेज और क्रावूड ...मस्त !! ;) पचास हज़ार वाट के स्पीकर्स :) बेहद ख़ूबसूरत लड़कियां - हर लिबास में ! दक्षिण भारत के सभी बढ़िया इन्जीनिअरिंग कॉलेज के एक से बढ़कर एक लडके - लडकी आये थे ! "दादा" को किस किया और फांद गया - स्टेज पर् - खुद का लिखा 'गाना' - सब झूम गए ! स्टेज से नीचे उतरा तो 'दादा' बोला - क्या बोला ....आज तक कानो में सुरक्षित हैं :) फिर क्या था ...दादा थोडा दूर खड़ा था और मै जिंदगी में पहली दफा इतनी सारी हसीनाओं के बीच अकेला खडा था :) किसी ने कहा 'दम चलेगा ? " हा हा हा ... ....उफ्फ्फ्फ़ ..वैसे पल फिर कभी नहीं आये ...और सिर्फ 'दादा' ही इसका गवाह बन सका ! दोस्त है - बड़ा भाई जैसा भी ! इंदिरापुरम में ही रहता है :) विप्रो में बहुत बड़ा अधिकारी बन गया है ! मेरी एक डायरी भी उसके पास सुरक्षित है ;) !
कुछ महीनो के बाद दादा कलकत्ता चला गया ! वहीँ उसको नौकरी मिल गयी ! तविंदर अपने ढेर सारे सामान को मेरे पास छोड़ ..जम्मू वापस चला गया ! मै काफी अकेला हो गया ! मै अपनी पुरानी कंपनी छोड़ 'दादा' वाली कंपनी में चला गया ! 'सिंगापूर' की कंप्यूटर नेटवर्किंग कंपनी थी - मालिक 'I I Sc ' से पास था - 'वैज्ञानिक' जैसा ! बहुत पढ़ना पड़ता था - वहाँ ! तनखाह मुहमांगी जैसी थी - पर् 'मन' बिलकुल नहीं लगता था ...बिलकुल भी नहीं ..!

क्रमशः !!!


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !


Thursday, September 16, 2010

अखबार में नाम - "हिंदुस्तान दैनिक" में अपना दालान !!

बिहार में चुनाव के घोषणा होते ही मैंने 'फेसबुक' पर् लिखा की - चुनाव की हलचल को 'दालान' पर् लिखूंगा - रवीश भी कम्मेंट किये की - 'इंतज़ार करूँगा' ! मैंने लिखा भी - फिर डिलीट मार दिया ! अचानक दो दिन पहले - रवीश का एस एम एस आया की - अपने दालान का लिंक दीजिए ! उस वक्त मै अपने एक बेहद जिगरी दोस्त से गप्प मार रहा था - उसको भी बोला - शायद 'रवीश अभी फुर्सत में दालान पढ़ना चाह रहे होंगे ! फिर अगले दिन रवीश को मैसेज भेजा - "दालान कैसा लगा ?" उन्होंने जबाब दिया - "मेरा गाँव - मेरा देस " काफी पसंद आया !  बात आयी गयी हो गयी !

कल सुबह अचानक संजय भैया का फोन आया ! बोले की "दालान" के चर्चे "हिंदुस्तान दैनिक" में छपा है ! आम इंसान हूँ - खुशी हुई ! नेट पर् लिंक खोजा और चार बार पढ़ा ! फिर रवीश को थैंक्स एस एम एस भेजा ! कई नजदीकी दोस्त खुश हुए ! डरते डरते बीवी को भी बताया - एक छोटी सी सच्ची कहानी के साथ ! वो मुस्कुरायीं और हम थोड़े निश्चिन्त हुए :)

आम  इंसान हूँ ! खुश हूँ और खुशी से लिखने की तमन्ना बढ़ी है ! "पत्रकारों" की बेहद इज्जत करता हूँ ! पर् 'पत्रकार' बनना पसंद अब नहीं होगा - हिंदी पत्रकारिता में बहुत ही गंदी राजनीति है ! बहुत ही करीब से देख लिया ! प्रतिभाएं कैसे पनप जाती है - आश्चर्य होता है ! यहाँ "भ्रूण हत्या" होती है ! दुःख होता है ! शायद रवीश मुझसे सहमत होंगे !

खैर , राजनीति भी ज्वाइन नहीं करना ! इस बार करीब बीस लोग फोन किये होंगे - चुनाव कहाँ से लड़ रहे हो ? :) कई वरिष्ठ लोग बोले - राहुल जी से एक बार और मिल लो - टिकट मिल जाएगा ! मेरा जबाब स्पष्ट था - 'इगो' डाउन कर के राजनीति नहीं करनी ! राहुल जी चाहेंगे तो 'राज्यसभा' भेज सकते हैं ;) ( हवा )

खैर ...चलिए देखते हैं ...रवीश ने क्या लिखा

"जातिगत समीकरणों का ऐसा ही विश्लेषण पिछले चुनावों के दौरान भी था। बहुत समीकरण बनाए गए, लेकिन नीतीश का जातिगत समीकरण और एक पार्टी के लंबे शासन से निकलने की पब्लिक की चाह ने नतीजे बदल दिये। जातिवाद की मजबूरी बिहार की राजनीति की आखिरी सीमा नहीं है। इसे समझने के लिए दालान ब्लॉग पर जा सकते हैं।

http://daalaan.blogspot.com/ पर रंजन ऋतुराज लिखते हैं कि उनके गांव में एक ब्राह्मण को पोखर दान कर दिया गया। मरने के बाद एक ठेकेदार ने उसकी विधवा से पोखर अपने नाम करा लिया, लेकिन लोग कई साल से पोखर का सार्वजनिक इस्तेमाल भी करते रहे। छठ पूजा का घाट बन गया। रंजन के परिवारवालों ने मुसलमानों से चंदा करा कर पोखर के एक किनारे मस्जिद बनवा दी। जब ठेकेदार ने कब्जा करने की कोशिश की सब ने उसे भगा दिया। गांव के हर घर ने चंदा कर मुकदमा लड़ा। अदालत का फैसला हुआ और पोखर को सार्वजनिक घोषित कर दिया गया।

इस छोटी-सी सत्यकथा में बिहार के लिए सबक है। रंजन लिखते हैं कि मैंने समाजशास्त्र किसी किताब में नहीं पढ़ा है। समाज के साथ रहा हूं सो जो महसूस करता हूं लिखता हूं। लोग किस-किस अवस्था में कैसे सोचते हैं, इसका पता किसी को नहीं चलता। रंजन अपने फेसबुक पर स्टेटस में लिखते हैं कि दलसिंहसराय के विधायक राम लखन महतो को जदयू में लाने की बात पर उपेंद्र बाबू गुस्सा गए। जहानाबाद के दलबदलू अरुण बाबू भी कहने लगे कि दूसरी पार्टी के लोगों की पूछ नहीं बढ़नी चाहिए। भूल गए कि वे बिहार के सब दलों में घूम कर वापस आए हैं।

वाकई बिहार एक फैसले के मोड़ पर खड़ा है। सब एक ही सवाल कर रहे हैं कि बिहार विकास के नाम पर वोट करेगा या जाति के नाम पर। कोई इन दोनों के कॉकटेल की बात नहीं कर रहा है। जो कॉकटेल बना लेगा जीत का नशा वही चखेगा। रंजन लिखते हैं कि जाति की राजनीति बिहार या भारत या विश्व के लिए नयी नहीं है।
बिहार पोलिटिक्स पेज है - फेसबुक पर् ! वहाँ की बातें भी मेरे नाम से कोट की गयी हैं - पर् उसमे ज्यादा योगदान "सौमित्र जी और सर्वेश भाई " का है - दोनों बंगलौर में ही रहते हैं !


लिंक है "हिंदुस्तान में दालान"  



रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, September 10, 2010

टुनटुन बाबु की कहानी !!


टुनटुन बाबु - गाँव के सबसे बड़े गृहस्थ के एकलौते बेटे ! कहते हैं - इनके यहाँ १९०७ से ही गाड़ी है ! सन १९५२ से ही रसियन ट्रेक्टर और अशोक लेलैंड की ट्रक ! जम के ईख की खेती होती ! खुद परिवार वालों को नहीं पता की कितनी ज़मीन होगी ! इलाके में नाम ! गांव बोले तो 'टुनटुन बाबु' के बाबा के नाम से ही जाना जाता था !

मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज से बी ए फिर एम ए पास करने के बाद - जब सभी दोस्त 'दिल्ली' जा कर 'कलक्टर' की तैयारी करने लगे तो 'टुनटुन बाबु' को भी मन किया ! अब बाबा और बाबु जी को बोले तो कैसे बोलें ? माँ को बोला - 'दिल्ली' जाना चाहता हूँ ! माँ ने बाबु जी को बोला - बाबु जी ने बाबा को बोला ! 'कलक्टर' बनने के नाम से इजाजत मिल गयी - पर् शर्त यह की - डेरा अलग लिया जायेगा - एक रसोइया रहेगा साथ में रहेगा और एक नौकर ! दिल्ली के मुखर्जी नगर में डेरा हो गया ! गाँव से 'मैनेजर' जी आये थे - साथ में चावल -आटा - शुद्ध खोवा का पेडा ! देखते देखते ढेर सारे 'दोस्त' बन गए ! सुबह उनके डेरा पर् दोस्त जमा हो जाते - गरम गरम पराठा और भुजिया खाने ! "टुनटुन बाबु' को काहे को पढने में मन लगता :) कई दोस्त उनका ही खा कर 'कलक्टर' बन निकल पड़े :) कई पत्रकारिता की तरफ तो कई एक्सपोर्ट हॉउस में ! ३ साल बाद टुनटुन बाबु वापस लौट गए - गाँव ! जो गाँव के दोस्त थे - उनसे 'दिल्ली' का गप्प होता - वहाँ ये किया - वहाँ वो किया - हाव भाव भी बदले हुए !

शादी तय हो गयी ! तिलक के दिन - पूरा इलाका आया था ! टुनटुन बाबु के कई दोस्त भी ! लडकी वाले ने सिर्फ 'चांदी' का सामान चढ़ाया था ! कई 'कलक्टर' दोस्त भी आये थे - उनलोगों को ठहरने का अलग इंतज़ाम ! सब भौचक्क थे !

शादी के बाद - पहला होली आया ! माँ के कहने पर् १० दिन पहले ही 'टुनटुन बाबु' ससुराल पहुँच गए ! साथ में एक 'हजाम' , एक नौकर भी ! हर रोज तरह तरह के पकवान बनते ! घर के सबसे छोटे दामाद थे - पूरा आवभगत हुआ ! होली के २ दिन पहले और भी बड़े 'साढू-जेठ्सर' आ गए ! कोई कहीं कैप्टन तो कोई कहीं अफसर ! पत्नी का जोर था - 'जीजा जी' लोग से मिक्स क्यों नहीं करते ? पत्नी के दबाब में - "टुनटुन बाबु" अपने साढू भाई लोग से गपिआने लगे ! कोई बंगलौर का कहानी सुनाता तो कोई दिल्ली का ! बात - बात में वो सभी अपनी 'नौकरी' के बारे में बात करते - और 'चुभन' टुनटुन बाबु को होती ! पत्नी भोलेपन में अपनी दीदी लोग के रहन सहन की बडाई कर देती ! होली का माहौल था ! "सास" सब समझ रही थीं ! छोटे दामाद की पीड़ा ! "साढू भाई" लोग की बोलियां और नौकरी की बडाई - टुनटुन बाबु के अंदर एक दूसरी होली जला दी थी ! खैर , पत्नी को मायके में छोड़ - होली के दो दिन बाद वो वापस अपने गाँव आ गए ! उदास थे ! सब कुछ था - पर् नौकरी नहीं था ! अक्सर यह सोचते - नौकरी से क्या होता है ? पैसा ? पैसा से क्या ? घर - जमीन जायदाद ? परेशान हो गए !

जब परेशानी बढ़ गयी तो - माँ को बोले - मै नौकरी करने 'दिल्ली' जाना चाहता हूँ ! माँ ने बाबु जी को बोला - बाबु जी ने बाबा को बोला ! बाबा बोले - "क्या जरुरत है - नौकरी की ? हम गिरमिटिया मजदूर थोड़े ही हैं ? " खैर किसी तरह इजाजत मिल गयी ! टुनटुन बाबु भी अपने एक दोस्त का पता ..पता किया ! पता चला की वो एक एक्सपोर्ट हॉउस में है - वो नौकरी दिलवा देगा !
जाने के दिन - माहौल थोडा अजीब हो गया ! माँ ने 'अंचरा' से कुछ हज़ार रुपये निकाल के दिए - बाबु जी से छुपा के दे रही हूँ ! जब  दिक्कत होगा तो खर्च करना ! बाबु जी भी उदास थे ...जाते वक्त ..'एक पाशमिना का शाल" कंधे पर् डाल दिया ! बड़ा ही भावुक माहौल था ! जीप से स्टेशन तक आये ! ट्रेन पर् चढ ..दिल्ली पहुँच गए !

दिल्ली बदल चूका था - दोस्त बदल चुके थे ! इस बार ना तो रसोईया था और ना ही कोई नौकर ! कई 'कलक्टर' दोस्त जो दिल्ली में ही थे - सबको फोन लगाया - कुछ करो यार ! पहले तो सब हँसे - तुम और नौकरी ? जो पिछली बार तक इनके 'पराठे - भुजिया' खाने के लिए सुबह से ही इनके डेरा पर् जमे रहते थे - किसी ने घर तक नहीं बुलाया ! अंत में काम वही आया - एक्सपोर्ट हॉउस वाला - जिसको 'टुनटुन बाबु' कभी भाव नहीं दिए - अपनी शादी में भी नहीं बुलाया था ! एक सप्ताह में - नौकरी का इंतजाम हो गया ! एक दूसरे एक्सपोर्ट हॉउस में !

बड़ा मुश्किल था ! सुबह ८ बजे ही बस पकडो ! बस से ऑफिस पहुँचो ! फिर मैनेजर ! ढेर सारा काम ! बहस ! मालिक ! उफ्फ्फ्फ़ ! कभी कभी कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता ! पत्नी के साथ पटना में एक जूता ख़रीदे थे - वुडलैंड का ! अब वो जूता जबाब देने लगा ! माँ का भी दिया हुआ पैसा - खत्म होने के कगार पर् था ! सात तारीख को तनखाह मिलती !

सात तारीख आ गया ! मैनेजर ने बोला - कैश लोगे या चेक ! टुनटुन बाबु बोले - "कैश" ! ७ हज़ार रुपये ! कितने भारी थे ! माँ बाबु जी को याद किया ! बाबा को भी ! फिर 'साढू भाई' लोग याद आये :)
महंगे जूते खरीदने की हिम्मत नहीं हो रही थी - किसी तरह सब से सस्ता एक जूता ख़रीदा ! वैसा जूता उनके गाँव का उनका नौकर भी नहीं पहनता होगा !

अब घर याद आने लगा ! हर शाम वो बेचैन होने लगे ! मन में ख्याल आने लगा - कौन सा 'सरकारी हाकीम" बन गया हूँ ! प्राइवेट नौकरी है ! जितना कमाएंगे नहीं - उससे ज्यादा तो गाँव में लूटा जायेगा ! ऐसी सोच हावी होने लगी ! एक दिन "सामान" पैक किया - मकानमालिक को कमरे का चावी पकडाया और स्टेशन की तरफ चल दिए !

आये थे - थ्री टायर एसी में ! वापसी जेनेरल में ! दिल्ली ने धक्कों से लड़ना सिखा दिया था ! सीट पकड़ ही ली ! सामने एक बुजुर्ग भी बैठे हुए थे ! ट्रेन खुल गयी !
अलीगढ में ट्रेन रुकी तो चाय वाला आया - चाय की कुछ बुँदे जुते पर् गिर गयी ! कंधे पर् रखे - "पाशमिना के शाल" से टुनटुन बाबु जूता पोंछने लगे ! फिर कुछ देर बाद एक - दो बार और पोछे !
सामने की सीट पर् बैठे - बुजुर्ग ने पूछा - "बेटा , इतने महंगे शाल से इतने सस्ते "जूते" को क्यों पोंछ रहे हो ?

टुनटुन बाबु बोले - "ये कीमती शाल - बाप दादा की कमाई का है और ये जूता भले ही सस्ता है - लेकिन "अपनी कमाई" का है :)


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Sunday, September 5, 2010

शिक्षक दिवस ....कुछ दिल से ...

बहुत सारे विषय पर लिखने का मन करता है ! कई लोग पर्सनल चैट पर प्रशंषा करते हैं - आगे खुल कर नहीं बोल पाते :) ! आप सभी को मेरा लिखना पसंद आता है - यही बहुत बड़ी बात है ! बहुत सारे लोग जो यह भी जानते हैं की मै एक शिक्षक हूँ - उन्हें यह आशा जरुर होगी की मै शिक्षक दिवस पर कुछ लिखूंगा ! 

एक घटना याद है - उन दिनो "याहू मेस्सेंजर" पर चैट होती थी - एक सज्जन थे - 'पनिया जहाज' पर कैप्टन या इंजिनियर ! सुना है वैसे कामो में बहुत पैसा होता है ! खैर , परिचय हुआ - बिहार के थे ! मैंने भी अपना परिचय दिया ! अब वो अचानक बोल पड़े - "शिक्षक हो ? कैसे अपना और अपने परिवार का पेट पालते हो ? - कितना कमाते हो ? " उनकी भाषा 'कटाक्ष' वाली थी ! मै कुछ जबाब नहीं दे पाया - सन्न रह गया ! जुबान से कुछ नहीं निकला - बस एक स्माईली टाईप कर दिया ! पर , उनके शब्द आज तक 'कानो' में गूंजते हैं ! 

कई घटनाएं हैं ! नॉएडा नया नया आया था ! जिस दिन ज्वाइन करना था - अपने 'हेड' के रूम के आगे दिन भर खड़ा रहा - मुझे उनसे मिलना था और उनके पास समय नहीं - मेरे 'इंतज़ार' करने का फल ये हुआ की - इम्रेशन बढ़िया बना ! सब्जेक्ट भी आसान मिला  - प्रथम एवं अंतिम बार "जम के मेहनत किया और पढाया" ! कई विद्यार्थीओं ने मेरे नाम के आगे "झा" जोड़ दिया था :) 

कुछ बैच ऐसे होते हैं - जिसमे आप २-३ सब्जेक्ट पढाएं तो वहाँ एक खास तरह का स्नेह बन जाता है ! फिर ता उम्र आप उनसे जुट जाते हैं ! एक रिश्ता बन जाता है ! एक विद्यार्थी था - दूसरे ब्रांच का ! उसे थोड़ी हिम्मत की कमी थी - अक्सर वो मिल जाता और मै उसको हमेशा यह बोलता की तुम अपने क्लास में टॉप कर सकते हो ...फिर मैंने उसको जान बुझ कर उसके हौसले को बढ़ाने के लिए १-२ मार्क्स ज्यादा दिए - फिर वो आगे देखा न पीछे ...अचानक फ़ाइनल इयर में पता चला की - वो टॉप कर गया है - क्लास में नहीं -पुरे यूनिवर्सटी में :) कॉलेज आया तो अपने माता -पिता से मुझसे मिलवाया ! अछ्छा लगा था ! 

एक बार मै अपने हेड के कमरे में गया तो वहाँ एक वृद्ध सज्जन बैठे थे - उनदिनो मेरे हेड एक 'सरदार जी' होते थे ! शायद उनको मै बहुत पसंद नहीं था - पर मै इतनी सज्जनता से पेश आता की - उनके पास कोई और उपाय नहीं था - खैर उनके कमरे में बैठे सज्जन के बारे में पूछा तो पता चला की उनका 'पोता' हमारे यहाँ पढता है और  फेल कर गया है - अब वो नाम कटवा के वापस ले जाना चाहते हैं - मैंने बोला - आप एक कोशिश और कीजिए - मै उसका ध्यान रखूँगा - मै ज्यादा ध्यान नहीं रख पाया - पर , हाँ - कभी कभी टोक टाक दिया करता था - वो लड़का सुधर गया - पास करने के कुछ दिन बाद आया - मेरे केबिन में -  "पैर छूने लगा - मैंने मना कर दिया " - धीरे से बोला - 'सर , विप्रो में नौकरी लग गयी है ' - बंगलौर जाना है - सोचा आप से मिल लूँ ! इतनी खुशी हुई की - पूछिए मत - लगा आँखों से खुशी के आंसू छलक जायेंगे ! मुझे यह पूर्ण विश्वास है की - दुनिया की कोई ऐसा दूसरा पेशा नहीं है - जिसमे आपको ऐसी खुशी मिल सके  ! 

मुझे मैनेजमेंट गुरु बहुत पसंद आते हैं - और अक्सर मै एक 'इलेकटीव' पढाता हूँ - जिसमे मैनेजमेंट के कुछ                   ज्यादा भाग हैं ! अखबार में अगर कोई ऐसा आर्टिकल किसी मैनेजमेंट गुरु का अगर आ जाए तो - मै उसे बिना पढ़े नहीं छोड़ता - खास कर 'ब्रांड मैनेजमेंट' का ! खैर ये मेरी पुरानी आदत से - कोर विषय से अलग हट के 'काम' करना ;) वैसे मेरी नज़र में 'कंप्यूटर इंजिनीरिंग' में 'प्रोग्रामिंग' के बाद अधिकतर  विषय बकवास ही होते हैं - और मुझे सब कुछ नहीं आता ! :) 

बाबू जी भी शिक्षक हैं ! जिस किसी दिन भी उनका क्लास होता है - उसके २ दिन पहले से वो 'जम' के पढते हैं - उनके कमरे में कोई नहीं जाता है ! 

खुद शिक्षक हूँ - पर मुझे मेरी जिंदगी में कोई ऐसा शिक्षक नहीं मिला - जो मेरी प्रतिभा को पहचान एक दिशा देता ! कुल मिलाकर - मेरे बाबु जी ही मेरे लिए दिशा निर्देशक के रूप में हैं - शुरुआती दिनों में उनके कई बात नज़रंदाज़ किया हूँ - अब दुःख होता है - खासकर उनकी एक सलाह - जब मैंने 'मैट्रीक पास किया' - मानविकी एवं समाज विज्ञानं  ले लो , पढ़ा होता तो शायद किसी बड़ी पत्रिका का संपादक या राज नेता होता ! माँ की  ट्रेनिंग भी बहुत महत्वपूर्ण है मेरे लिए - आम जिंदगी में मेरी शालीनता और त्याग जल्द ही नज़र आ जाती है - कभी इसका बुरा फल मिलता है - कभी लोगों में जलन तो कभी लोग महत्त्व भी देते हैं - मेरे इस गुण के लिए मेरी माता जी ही जिम्मेदार है - कुछ खून का असर है - कुछ ट्रेनिंग ! 

मेरी स्नातक 'इलेक्ट्रोनिक एवं संचार' अभियंत्रण में है ! 'खुद जब विद्यार्थी था तब क्लास में आज तक मुझे कुछ समझ' में नहीं आया ! जिसका रिजल्ट यह हुआ की  - मै  बहुत ही सरल अंदाज़ में कोई भी सब्जेक्ट पढ़ाना पसंद करता हूँ ! अब तो कुछ सालों से 'प्योर लेक्चर' - एक घंटा तक बक बक ! मुझे याद है - पटना के एक कॉलेज में पढाने गया था - पहले ही क्लास में वहाँ के डाइरेक्टर साहब बैठ गए - जो जाने माने शिक्षक होते थे और आजादी के समय अमरीका से  पढ़ कर लौटे थे - मेरा लेक्चर सुनने के बाद बोले - " पढने की कोशिश करना - ज़माने बाद - कोई ऐसा मिला - जिसके अंदर ऐसी क्षमता हो जो  बातों को सरल अंदाज़ में विद्यार्थीओं को समझा सके - पर ज्ञान बढ़ाने के लिए तुमको पढ़ना होगा " ! खुद विद्यार्थी जीवन में बहुत अच्छे मार्क्स कभी नहीं आये पर बहुत सारी चीज़ें बहुत जल्द समझ आ जाती थी - जिसने मुझे 'खरगोश' बना दिया और देखते देखते 'कई कछुए' आगे निकल गए ! 

मेरी दो तमन्ना है - एक मैनेजमेंट में कोई बढ़िया लेख लिखूं और 'हाई स्कूल' में पढाऊँ ! कंप्यूटर से पी जी करने के बाद भी - मैंने कई 'हाई स्कूल' में शिक्षक के रूप में नौकरी के लिए आवेदन दिया था - सब्जेक्ट - भूगोल , इतिहास , नागरीक शास्त्र :) मुझे लगता है - अगर हाई स्कूल में हम चाहें तो बच्चों को जीवन में कुछ बड़ा सपना देखने को बढ़िया ढंग से प्रेरित कर सकते हैं ! 

कई लोग मुझे मिलते हैं जो भिन्न - भिन्न पेशा में हैं और कहते हैं - मै भी कुछ दिनों बाद 'शिक्षक' बनना पसंद करूँगा ! पर , बहुत कम लोग 'शिक्षक' बनने आते हैं और एक बेहरतीन विद्यार्थी होते हुए भी - बढ़िया शिक्षक नहीं बन पाते ! 

बहुत कुछ लिखने का मन था ...लिख नहीं पाया ...फिर कभी .. 



रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, September 3, 2010

सिनेमा- सिनेमा : सोनाक्षी सिन्हा

अपनी दबंग 'बिहारन' - सोनाक्षी सिन्हा ! वक्त कैसे गुजर जाता है - पता ही नहीं चलता ! अभी हाल फिलहाल तक तो मै 'फ़िल्मी मैग्जीन' में शॉटगन सिन्हा को पढता था - कैसे वो ट्रेन में 'आठवीं की छात्रा 'पूनम' से मिले थे , कैसे सिनेमा में एंट्री मिला और कालीचरण , विश्वनाथ , दोस्ताना , शान , क्रांति और न जाने कितने ...! और अब देखिये तो बेटी सिनेमा में आ गयी :) अब बहुत मुश्किल है उसको इग्नोर करना ..जब भी टी वी या इन्टरनेट पर उसको देखता हूँ - एक अलग एहसास होता है - 'पटना की है' - भगवान इसकी सिनेमा हिट कर देना ! अन्जान सा सम्बन्ध जिसकी डोर अनचाहे 'क्षेत्रवाद' पर टिकी है - पर डोर मजबूत है !
स्कूल में पढता था ..कई दोस्त ऐसे होते जिनके ये सम्बन्धी होते थे - मुझे ये विश्वास नहीं होता - मालूम नहीं क्यों ! कई दोस्त ऐसे होते थे की 'सम्बन्ध' जोडने में बेजोड ! हम आज तक ऐसा सम्बन्ध नहीं जोड़ पाए :(
कितने बिहारी हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में थे य है ये नहीं पता पर कुछ नाम याद है - कुमुद चुगानी , कुमकुम , शत्रु जी , अपने शेखर सुमन और नीतू ! शेखर सुमन का घर हमारे स्कूल के पास होता था सो उनसे एक अलग तरह का लगाव है - उनकी एक सीरियल आती थी - "वाह जनाब ! " - संडे को ! कभी मिस नहीं किया !
सुना है - सोनाक्षी बहुत मोटी थी - वजन कम कर के खुद को मॉडल बनाया ! पिछले साल जब वो लक्मे फैशन शो में आयीं तो मैंने "बिहार टूडे" पर प्रमुख खबर के रूप में छापा था ! अछ्छा लगा था और आश्चर्य भी !
"दबंग" में वो गाँव की घरेलु लडकी के रूप में आयेंगी - बस यह छाप ना रह जाए - कुछ अलग किरदार में रूप में भी वो नज़र आयें - हम सब यही चाहेंगे ! अपने से २२ -२३ साल बड़े कलाकार के साथ काम करना आसान नहीं है - अब इसको 'सोनाक्षी' ने कितना आसान बनाया है - यह परदे पर ही नज़र आएगा !

आगे वो 'बोनी कपूर' के बेटे 'अर्जुन' के साथ भी नज़र आयेंगी !

कुछ का कहना है - सोनाक्षी को देख 'रीना रॉय' की याद आती है :) - फिलहाल हम चुप रहेंगे :)
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !