Saturday, August 28, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - भाग ११ ( काका )

जब से बाबु जी ने अलग घर गृहस्थी बसाई - बाबा एक काम हमेशा करते रहे - वो था गाँव से 'किचेन हेल्पर' भेजना ! अलग अलग उम्र के ! मालूम नहीं पिछले ३० साल में कितने आये होंगे और कितने कितने दिन रहे होंगे !

शुरुआती दिनों की याद है ..एक था 'धर्मेन्द्र' ! वो चौथी कक्षा तक पढ़ा था ! मुझे याद है - उसे पढने का शौक था - वो मेरी 'नंदन' और 'पराग' लेकर पढता था ! उसका बड़ा भाई दिल्ली में रहता था सो वो जल्द ही दिल्ली चला गया था ! हाल में ही कुछ वर्षों पहले मुझसे मिलने आया था - अब उसकी खुद की फैक्ट्री हो गयी है :) ढेर सारे फल - मेवा - मिठाई लेकर आया था ! अपने फैक्ट्री के बने हजारों के 'बाथरूम आईटम' के सामान मुझे दे गया की मै उसे अपने फ़्लैट में लगा लूँ - पर मैंने वापस कर दिया ! पटना के मेरे घर में बाथरूम आइटम उसकी फैक्ट्री के ही लगे हैं !

कई आते गए - जाते गए ! उन दिनो 'डिम्पल' चूल्हा होता था ! फिर गैस आया ! ३० दिन में वो सभी गैस का चूल्हा जलाना सिखाते और ३१ वा दिन भाग जाते ! हंगामा हो जाता ! कोई साइकील से रेलवे स्टेशन जाता तो कोई बस स्टेशन - कहीं खो गया तो ? फिर अगले ही सप्ताह 'बाबा' किसी को भेज देते ! अंतहीन सिलसिला था ! "छपरा" जिला वालों से घर का काम करवा लेना बहुत मुश्किल था !

एक घटना याद है - बाबु जी बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे जमा किये थे - गोदरेज का अलमीरा खरीदने को - एक रात 'भूटिया' उन पैसों और माँ के गहने लेकर भाग गया ! वो एक अजीब सा 'झटका' था ! कई महीनो तक हम परेशान रहे ! खैर किसी तरह कुछ गहने वापस मिले लेकिन एक हीरे का कान वाला टॉप्स नहीं मिला !

सिलसिला यूँ ही चलता रहा ! फिर आयीं 'शांती दी' काफी उमरदराज और काफी कड़ीयल स्वाभाव की ! वो भी हमारे गाँव तरफ की ही थीं - पर काफी वर्षों से पटना में रहती थीं ! कुछ वर्षों तक रहीं फिर अधिक उम्र होने के कारण अपने बच्चों के पास चली गयीं - फिर उनकी कोई खोज खबर नहीं मिली !

फिर आये "काका" ! काका का पूरा 'टोला' हमारा 'आसामी' होता था ! इनके कई चाचा - बाबा हमारे बाबा के काफी विश्वासी होते थे ! काका के खुद के परिवार को हमारे तरफ से कुछ बीघे ज़मीन इस एवज में दिया गया था की वो 'दालान' में लालटेन जलाने का काम करते थे - इनका काम था - हर शाम "दालान" में ठीक वक्त पर "लालटेन" जला के टांग देना या शादी बियाह के मौके पर 'पेट्रोमैक्स" !

वक्त के साथ - ना तो वो "दालान" की वैभव रही और न ही हमलोगों में उतनी क्षमता की सब  का पेट पाल सकें ! सो 'काका' कलकत्ता चले गए - जूट मिल में कमाने ! शायद वहाँ उनको 'टी बी' हो गया ! वापस लौट आये ! शादी हुई पर पत्नी कुछ महीने के बाद मायके गयी तो वापस नहीं आयी - अब वो 'गाँव' के बाज़ार में 'कचरी- बचरी-पकौड़ी' बेचने लगे ! खैर ..बाबा के कहने और अपनी जमीन को बचाने के लिए वो हमारे पास 'पटना' आ गए ! उनके कई भाई - भतीजा हमारे परिवार के साथ गांव में थे सभी उनको 'काका' ही कहते तो हम लोग भी कहने लगे ! धीरे धीरे 'पटना' में उनका मन लगने लगा ! बाबू जी शाम थके हारे लौटते तो वो चाय बना के बाबु जी का देह दबाते ! बात बीस साल पुरानी है ! घर दरवाजा सब साफ़ करना ! घर का सारा काम अपने माथे ले लेते और फिर एकदिन अचानक वो 'गाँव' के तरफ मुह मोड़ लेते ! फिर एक सप्ताह के बाद वापस ! जितना २-३ महीना में कमाते उतना वो 'गाँव' में "पी" पा के खतम ! "पीने " के बाद शुद्ध हिंदी में वार्तालाप :))

बहन की शादी और मेरे 'नॉएडा' आने के बाद 'माँ - बाबुजी' की जिम्मेदारी उनके ऊपर ही थी ! एक और खासियत है - हमारे यहाँ मेहमान बहुत आते थे - वो ऐसा 'खाना' बनाते की कोई मेहमान ज्यादा दिन नहीं खा पाता :) नॉएडा आया तो - माँ हर ३-४ महीना पर उनको कुछ सामान के साथ भेज देती ! अब वो मेरे लिए 'हेडक' हो जाता ! काका को रिसीव करो - २-३ रुकेंगे तो उनकी विदाई करो फिर लौटने का खर्चा - पता चलता मुझसे कुछ और पैसा लेकर वो दिल्ल्ली से सीधे गाँव का रास्ता घर लेते :)

अत्यधीक खर्चीला ! सब्जी खरीदने के बाद पैसा वापस माँगने पर गुस्सा भी जाते हैं ! हाल में वो बहुत ही ज्यादा पीने लगे ! तंग आकार बाबु जी उनको मना दिया और बाबा को भी बोल दिया की अब किसी को भेजने की जरुरत नहीं है !

जुन में पटना गया तो 'काका' आये थे - फिर वही 'तमाशा' - पी के शुद्ध हिंदी ! घर में चचेरी बहन की शादी और पुत्र का जनेऊ और उधर 'काका' का शुद्ध हिंदी जारी :) खैर , मेरी पत्नी ने उनको थोडा बहुत समझाया और साथ में 'इंदिरापुरम' चलने को तैयार कर लिया ! सुबह सुबह ६ बजे ही नहा लेते हैं - पीते भी नहीं हैं - हाँ , दिन भर में ३०-४० गुटखा जरुर खा लेते हैं - मेरे लिए कभी कभी 'पान' भी ले आते हैं ! "चाय" इतना ज्यादा की ...पूछिए मत ! खाना ऐसा की ..मै बहुत स्लिम हो गया हूँ ;) हाँ , नॉन वेज वो बहुत पसंद से बनाते हैं ! रूठते भी बहुत हैं ! रूठने के बाद १-२ दिन खाना ही नहीं खाते हैं ! भारी फेरा हो जाता है :(

पत्नी कह रही थीं की जितना सरसों का तेल और घी एक साल में खर्च नहीं हुआ वो पिछले २ महीने में हो चूका है - खैर मुझे विश्वास नहीं हुआ ! खर्चीले हैं ..लेकिन विश्वासी :) घर में उनको कोई "तुम" कह के नहीं बुलाता है - सिवाय बाबा - बाबु जी के !

मालूम नहीं कितने दिन तक साथ रहेंगे - पर बच्चे और पत्नी खुश हैं :-|

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Saturday, August 21, 2010

तनखाह .....

देश के 'संसद' की क्या हैसियत है ? अगर मै गलत नहीं हूँ तो शायद इससे शक्तिशाली कोई और दूसरी संस्था नहीं है - फिर वहाँ के लोग जिसमे से करीब ५२३ हमारे द्वारा ही दिए गए वोट से जीते जाते हैं , क्यों न एक बेहतर तनखाह लें ? जब 'हरी - हैरी और हरिया' भी मेट्रो में रह कर २-४ लाख झार लेता है फिर जिस संस्था के ऊपर पुरे देश की जिम्मेदारी है  अगर उसके सदस्य को पचास हज़ार मिल ही रहा है तो क्या गुनाह हो गया ?

एक छोटा सा सवाल है ? हम में से कितने लोग  संसद के दौरान 'लोकसभा टी वी या राज्यसभा टी वी ' देखते हैं ! मुझे जितना वक्त मिलता है - मै देखता हूँ और इसी दालान पर मैंने चौदहवीं लोकसभा में पटना के सांसद 'श्री राम कृपाल यादव' को सर्वश्रेष्ठ सांसद बोला था - बाद में उनको लोकसभा ने उनके कार्यों को देख सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान दिया था ! मैंने 'बाहुबली पप्पू यादव' को लोकहित में बोलते देखा हूँ !

जिस आदमी को राजनीति का क , ख , ग भी नहीं पता वो भी राजनेता को 'भ्रष्ट' बोल देता है ! आज के दिन में बिहार जैसे गरीब प्रदेश में भी 'विधायक' का चुनाव जितने लायक लडने के लिए कम से कम एक करोड चाहिए ! एक उम्मीदवार क्या करता है इन पैसों से ? जी , आपके और हमारे जैसे लोग बिना पैसे दिए वोट नहीं डालते ! फिर 'भ्रष्ट' तो हम ही हुए ! दस साल पहले तो इस तरह पैसा नहीं बहता था !

"लोकतंत्र" में सबसे शक्ती शाली जनता होती हैं ! अगर ऐसा नहीं होता तो एक चपरासी का भाई - बेटा किसी प्रदेश पर २० साल तक राज नहीं करता ! अगर ऐसा नहीं होता तो इंदिरा गाँधी जैसी शक्तिशाली नेत्री चुनाव नहीं हारती !

 बहुत कम ऐसे 'लोकप्रतिनिधि' हैं जिनके बाल बच्चे आपकी तरह एक 'एम एन सी ' की नौकरी करते हैं ! उनका बचपन और जवानी दोनों बर्बाद हो जाता है ! अगर वो थोडा खुद के लिए ले ही लिया तो इतना हंगामा ? आप और हम 'बेईमान' रहे और सामनेवाला 'ईमानदार' क्योंकि उसने 'समाज सेवा ' का प्रण लिया है ! इट्स नोट अ फेयर गेम !

देखिये , पैसे की जरुरत अब सबको है ! अगर आप उचित तनखाह नहीं देंगे फिर उसकी नज़र आपके 'तिजोरी' जायेगी ही जायेगी - आप कुछ नहीं कर सकते ! 'पावर' से पेट नहीं भरता ! आज जिसको 'कम्यूटर' का थोडा भी ज्ञान है वो ४०-५० पा लेता है ! फिर , 'लोकप्रतिनिधि' के साथ ऐसा व्यवहार क्यू ? भूखे पेट वो आपके लिए कितना सोचेगा ? इंसान है - उसके भी बाल बच्चे है - कुछ इधर उधर की सोचेगा ही ...!

यही हाल 'अधिकारिओं' के साथ भी है - आप संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा सबसे तेज लोगों को चुनते हैं और उनको देते हैं क्या ? और समाज उनसे अपेक्षा रखता है की वो अपने पद के अनुसार जीवन शैली रखें ! अगर कोई 'सिविल सर्वेंट' यह घोषणा कर दे की वो जीवन में कभी घुस नहीं कमाएगा - उसके यहाँ कोई अपनी बेटी का बियाह नहीं करेगा ! इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह है की - कम तनखाह !

कल रवीश की रिपोर्ट देख रहा था - एक शिक्षक की शिकायत बच्चे कर रहे थे ! अब पांच हज़ार में आप कैसा 'शिक्षक' चाहते हैं ? इससे ज्यादा तो मेरे फ़्लैट के सामने 'गुटखा' बेचने वाला कमा लेता है ! 

अब किसी पेशा में इज्जत नहीं है ! एक जमाना था - जब लोग पूछते थे की आपको कितना पढ़े लिखे हैं - अब पूछा जाता है 'कितना माल' ( पैसा ) है ? यह दबाब कौन पैदा कर रहा है ? बचपन याद है - पटना के विधायक क्लब जाता था - बाबा के ३-४ दोस्त मंत्री - विधायक हुआ करते थे ! वहाँ 'टोनी' जी से दोस्ती हो गयी ! उनके पास गाड़ी होती थी - वहीँ बगल के फ़्लैट में 'पालीगंज' के विधायक रहते थे ! टोनी जी के यहाँ भीड़ होती थी - 'पालीगंज' के विधायक के यहाँ कोई नहीं ! "समाज भी चाहता है की आप झमका कर रहे" ! आज नेता बोले तो ..एक बड़ा गाड़ी ..२-४ चेला चपाती ...कौन देगा खर्चा ? बिना चेला चपाती वाला को आप नेता भी नहीं मानेंगे !

कल शाम बगल के 'शिप्रा मॉल' में चला गया ! एक राज्यसभा सांसद दिख गए - अपनी पत्नी के साथ थे - मै अपने दो दोस्त के साथ ! मैंने 'राज्यसभा सांसद' को अभिवादन किया और रुक कर उनकी पत्नी से उनके बच्चों की पढाई - लिखाई के बारे में पूछने लगा ! फिर वो लोग बाहर निकल गए और मै उनको गाड़ी तक छोडने आ गया ! मेरे दोनों दोस्त थोडा परेशान हो गए - बाद में पूछा - कौन थे ये लोग ? मिने बोला एक संसद सदस्य - वो चौंके - विश्वास नहीं होता - बिना वजन वाला संसद सदस्य होगा - वरना ऐसे ही बिना 'चेला चपाती - सुरक्षा ' का कोई कैसे चलेगा ? यह सवाल ऐसे लोग कर रहे थे - जो बिहार के सबसे बढ़िया इंजिनीअरिंग कॉलेज से पास एक बेहतरीन कंपनी में नौकरी कर रहे हैं - फिर बाकी की जनता तो अपने 'प्रतिनिधि को अवश्य की "शक्तिशाली" और 'झमकते' हुए देखना चाहेगी !

फिर 'बाज़ार' में  झमकाने  के लिए - पैसा चाहिए - अगर संविधान उनको नहीं देगा तो अवश्य ही उनकी नज़र 'तिजोरी' पर रहेगी ! यह मनुष्य का स्वभाव है !


खैर ..बहस जारी रहेगा ...

"दालान" से

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, August 13, 2010

शुक्रिया दोस्तों ....

तीन साल से 'ब्लॉग' लिख रहा हूँ ! जो दिल में आया - बस लिख दिया ! कुछ भी सोचा नहीं ! कई 'पोस्ट' लिखते वक्त आँखों से आंसू भी आये - कई में इतनी हंसी आयी की 'हाथों' से चाय गिरते गिरते बचा ! कई 'पोस्ट' बहुत बकवास तो कई दिल के बहुत ही करीब ! कई तो गुस्से में लिखे हुए हैं !

याद है - पोस्ट लिखते ही सबसे पहले 'सर्वेश भाई' को बताता था - बंगलोर में रहते हैं ! वो तुरंत 'ब्लोग्वानी' में  'वोट' दे दिया करते :) कभी उनका मूड हुआ तो "बूथ छाप" दिया करते और मेरा 'पोस्ट' "स्टार" हो जाता और ढेर सारे लोग आ कर पढते ! :) अगर "संजय भैया " ऑनलाईन हुए तो वो भी "वोट" दे दिया करते ! फिर मै अपने ब्लॉग का खुद से प्रचार करता ! सर्वेश भाई और संजय भैया तो यहाँ मेंबर भी हैं - "दालान" उनका कर्ज़दार है और रहेगा !!

इधर "फेसबुक" में मेंबर बना ! देखते देखते कई अन्जान लोगों से परिचय गया ! "पत्रकारों" को बहुत इज्जत देता हूँ सो बहुत सारे पत्रकार दोस्त बन गए पर वो मेरा "ब्लॉग" नज़रंदाज़ करते हैं - खैर , यह उनकी अपनी मजबूरी है ! पर , फेसबुक पर कई लोग यूँ ही टकरा गए और अच्छे दोस्त बन गए - "गप्पी हूँ" सो दोस्त तो बनेंगे ही ! दोस्ती की क़द्र करता हूँ - पर ये सोशल नेटवर्किंग साईट पर "विश्वास" जल्द नहीं बनता - पर जो कुछ भी विश्वास बना या बनाया - उसकी 'क़द्र' करूँगा - विश्वास कीजिए :)  हाल में ही किसी ने कहा - आपका 'ब्लॉग' नहीं आया तो उनके कहने पर 'फैशन' पर लिख दिया ! १-२ दिन गायब रहने पर लोग पूछते भी है - आप कहाँ हैं ? मालूम नहीं ये कैसा 'बंधन' है ?  अहमद भाई हमेशा कहते हैं - कोई उपन्यास लिखो या ब्लॉग को प्रिंट करवाओ - पैसा मै दूँगा :) उनसे कभी नहीं मिला हूँ - जब भी दिल्ली आने का होता है - पूछते हैं - कुछ तुम्हारे लिए लाना है ?? कई लोग मिले ....
इधर मई से कॉलेज में थोडा काम कम हो गया था सो समय पूरा था - जम के फेसबुक का मजा लिया ! "मेरा गाँव - मेरा देस"  सीरीज शुरू किया - लोगों ने पसंद किया ! कई तरह के कम्मेंट लोगों ने व्यक्तिगत ढंग से मुझे दिया - एक ने कहा 'मै "मासूम सामंत" की तरह लिखता हूँ और हूँ भी :)
"मेरा गाँव - मेरा देस" के पहले पोस्ट पर 'फेसबुक' पर विनोद दुआ साहब का कम्मेंट आया - "आप बढ़िया लिखते हैं - लिखते रहिये " ! यह एक सपना की तरह था ! आम इंसान हूँ - जिस पत्रकार को बचपन से देखता सुनता आया - वो अगर कुछ मेरे जैसे आदमी को जिसका पेशा यह सब नहीं है - कुछ कहे तो सचमुच बहुत बढ़िया लगा ! अगर फेसबुक नहीं होता तो शायद ऐसे लोग से कभी मिल नहीं पाता !
आज सुबह एक दोस्त ने कहा 'दिल खोल' कर लिखता हूँ ! अछ्छा लगा ! साहित्य को दसवीं के बाद कभी पढ़ा नहीं - पर यह समझ कैसे पैदा हो गयी - पता नहीं ! घर में वैसा माहौल नहीं था - हाँ ननिहाल में था ! पर जब से थोड़ी बहुत समझ आयी - तब से ननिहाल नहीं गया ! माँ ने हिंदी और संगीत की पढाई की है पर उनसे हिंदी कभी नहीं सीखा ! हाँ , बचपन में "डा० वचन देव कुमार' की निबंध भाष्कर ही पढता था ! याद है कुछ महीने - पटना आया तो मकान मलिक मलिक के छत पर एक बड़ा सा ट्रंक था - जिसमे हिंदी की कई उपन्यास रखे हुए थे - सब के सब २-३ महीने में ही चट  कर गया ! शिवानी - अमृता प्रीतम , ओशो और ना जाने कितने लोग ! मुंशी प्रेमचंद को बहुत कम पढ़ा हूँ पर 'फणीश्वर नाथ रेणु' पसंदीदा रहे पर वो भी आठवीं - नौवीं तक ही ! बंगलौर में नौकरी कर रहा था तब 'आचार्य चतुरसेन ' की उपन्यासों से मुलाकात हो गयी ! अब हाल के दिनों में फिर से एक बार ढेर सारे हिंदी ऊपन्यास खरीद लाया हूँ ! पढ़ना है :)

पर मेरे लिखने का सारा श्रेय "श्री संजीव कुमार रॉय" को जाता है - जिनसे यूँ ही इन्टरनेट पर टकरा गया और वो मेरा लिखा हुआ कुछ पढ़े फिर मुझे हमेशा प्रोत्शाहित किये ! उनसे भी कभी नहीं मिला - पर ७-८ साल से परिचय है - फेसबुक पर हर रोज मुझे पढते हैं :) मैंने उनका नाम 'जतिन दीवान' रखा हुआ है ;) पहले वो 'सिंगापूर' में थे जहाँ उन्होंने 'BIJHAR GROUP' बनाया - अब वो अपनी बहुत बड़ी कंपनी के 'ग्लोबल मैनेजर' बनके Bay Area , SFO , CA चले गए हैं ! भैया , जब भी कुछ लिखता हूँ - आपको याद जरुर करता हूँ :) , कैसे हैं ?

शायद आने वाले सोमवार से थोडा कम समय मिले पर अदा कदा 'ब्लॉग' लिखना जारी रहेगा - अभी तो बहुत सारी यादें लिखनी हैं :)

चलिए ..एक गीत सुनते हैं और स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं और देखते हैं - लाल किला के प्राचीर से 'मनमोहन सिंह' क्या बोलते हैं :)







रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Sunday, August 1, 2010

मेरा गांव - मेरा देस- मेरे दोस्त - भाग १०

आज कई दोस्त याद आये ! गांव से लेकर दिल्ली तक ! 
बचपन में 'गोतिया / पट्टीदार' के भाई - चाचा जो हमउम्र थे उनसे बड़ा ही लगाव था ! उनमे 'पुरुषोत्तम भाई ' खास थे ! अगर पास में एक भी बिस्किट हो तो पुरुषोत्तम भाई से बाँट कर ही खाता था ! उनके पिता जी उछ विद्यालय में शिक्षक थे और साथ ही साथ कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ! स्नातक के बाद पुरुषोत्तम भाई ने दिल्ली में कल कारखाना खोला था पर पिता के अचानक देहांत के बाद वो वापस बिहार चले गए ! अभी भी वहाँ वो अपनी क्षमता के हिसाब से एक उद्दमी हैं और एक शिक्षक भी ! सपरिवार छपरा में रहते हैं ! अब पुरुषोत्तम भाई से शादी विवाह में ही मिलना होता है ! स्नेह और प्रेम आज भी है - एक आदर भी ! मुझसे १-२ महीने के बड़े होंगे और दिखने में  बेहद स्मार्ट :) 

सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल में नामांकन के बाद - बेंच पर हम ४ जाने थे ! वहीँ दोस्ती हुई 'मृत्युंजय' और 'दीपक अग्रवाल' से ! मृत्युंजय थोडा पढ़ाकू टाईप था पर 'तेज' मै ही कहलाता था ! दीपक अग्रवाल बहुत ही तीक्ष्ण बुध्धी का था - आज वो बहुत ही बड़ा 'लोहा' का व्यापारी हो गया है ! दस साल पहले मुलाकात हुई थी - मालूम नहीं कहाँ है ? :(  मृत्युंजय डॉक्टर बन गया - घस्सू :)) सुना है विदेश में है ! कई साल तक हमदोनो में बात चीत बंद रही - हाल में ही मुलाकात हुई थी - मै ठहरा मुहफट - बोल दिया - 'डागडर बाबु' जैसा नहीं लग रहे हो :)) बहुत मेहनती ! 

डॉक्टर कॉलोनी - कंकडबाग में रहता था - वहीँ सामने पत्रकार नगर में एक दोस्त होता था - प्रमोद ! बहुत शरीफ ! हर शाम हम दोनों मिलते थे ! वो अपने चाचा के यहाँ रहता था ! भूरी आँखें वाला प्रमोद ! बड़ा भोला था !  पैसे की तंगी होती थी - पर कभी नहीं माँगा ! मैट्रीक के बाद हम नालंदा मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर कॉलोनी चले गए और विज्ञानं मेरा विषय हो गया और वो आर्ट्स ले लिया ! १८-१९ साल हो गए उससे मिले - मालूम नहीं कहाँ है ? शायद उसके पिता जी नहीं रहे ! 

पटना आने के बाद की एक घटना  याद है - जिस घटना ने मुझे "दीपक कुमार " से जोड़ दिया ! स्कूल के एक शिक्षक होते थे - राजेंद्र बाबु ! बहुत टेढ़े और बेवजह के सिद्धांतवादी ! खैर , हम उनके यहाँ पढने गए ! वहीँ दीपक से मुलाकात हुई ! पढने के दौरान हमदोनो ने कुछ ऐसी 'बदमाशी' की - 'राजेंद्र बाबु ' को हम दोनों को - तडीपार करना पड़ा ! वैसे तो दीपक दूसरे सेक्शन में था ! धीरे धीरे हम दोनों बहुत ही गहरे दोस्त हो गए ! बिलकुल भाई की तरह ! स्कूल के बाद - + २ के ज़माने में हम दोनों की जोड़ी बहुत फेमस हुई ! मेरे सारे रिश्तेदार उसको पहचानने लगे और लगभग सभी पारिवारिक मित्र  भी ! हम दोनों दिखने में भी एक जैसे थे - कई लोग कन्फ्यूज भी कर जाते ! मै जितना आलसी वो उतना ही फुर्तीला ! 'स्पीड' उसे पसंद थी ! तेज इतना की किसी के पल्ले न पड़े ! उसका छोटा भाई था 'प्रकाश कुमार' - हमारे स्कूल का टॉपर - एक बैच जूनियर ! दोनों भाई झगड़ते और जिधर मै जाता उसका पाला भारी हो जाता ! हमारे घर का हर सदस्य उसको मुझ से कम महत्त्व नहीं देता ! 

उसकी सगाई के दिन मै इतना भावुक हो गया था की - खुशी से आँखों से सावन भादो निकलने लगे ! अब वो 'रांची' में बहुत ही बड़ा व्यापारी हो गया है ! उसका छोटा भाई भी ! दीपक का छोटा भाई मेरा हमउम्र है - साल में एक दिन फोन करता है - मेरे जन्मदिन पर ! दीपक को जब जरुरत पडती है तब - बड़े हक से बोलता है ! हाल में ही मेरे 'पिता जी ' रांची गए थे - रेलवे स्टेशन पर न जाने कितनी गाडीओं से स्वागत किया ! बाबु जी कह रहे थे बहुत बड़ा और आलिशान कोठी जिसमे कई करोड के लकड़ी लगे हैं ! दिल्ली जब भी फुर्सत में आता है - मेरे यहाँ ठहरता है ! जिंदगी में बहुत 'रिस्क' लिया शायद मै नहीं ले  सकता था ! हाल में ही हम दोनों एक साथ एक ही रंग के टी शर्ट ख़रीदे और खूब घुमे :) उम्र में बड़ा है - एक दो साल सो - मेरे घर में उसको वैसा ही आदर भव मिलता है - मुझे हंसी भी आती  है :) 

क्योंकी मै दोस्ती को बहुत ही ज्यादा क़द्र करता हूँ - कभी हल्का सा भी ठेस पहुँचने पर 'बौखला' जाता हूँ - याद है - किसी कारणवश - मै गुस्सा में था - +२ का समय था - दीपक पर हाथ उठा दिया - बाए हाथ से - बीच वाली उंगली टूट गयी और शायद आज तक टूटी हुई है - हर सुबह दीपक को याद करता हूँ :) वो भी मेरे जैसा ही 'शानी' है - पर मुझसे पिटता रहा ! "

कॉलेज में भी  कई दोस्त हुए ! मुझे छोड़ लगभग सभी 'कंपनी' में काम करते हैं ! 'डॉलर' से भरे पड़े हैं ! मिलते हैं  तो 'नयी गाड़ी - नया मकान - नयी घड़ी ' के सिवा कोई और बात नहीं होती ! साल में छः महीने अमरीका - एरोप रहते हैं ! हमसे कम ही पढ़े लिखे हैं ;) अधिकतर तो आस पास ही रहते हैं - पर अब मिलना जुलना थोडा कम सा है ! शिकायत करो तो - कहेंगे - कंपनी ने गदहा बना दिया है ! हाँ , बच्चों के जन्मदिन पर मुलाकात होती है - जहाँ अधिकतर मै ही छाया रहता हूँ ! बहुत सारे - फेसबुक पर भी है - पर मेरे प्रोफाईल पर डर से या जलन से कुछ नहीं लिखते ;) बहुत सारे विदेश में जा बसे ! 

हाँ , जब हम सब अकेले होते हैं तो .....गर्मी की छुट्टी या बड़ा दिन में तो ....जम के मुलाकात होती है :)) 

खुशी होती है ..पुराने पन्नों को झांकने में - सभी दोस्त 'खुशमय' जिंदगी बसर कर रहे हैं - और क्या चाहिए ? 

कुछ नए मित्र भी बने हैं - पर जो दोस्त जितना पुराना ..उतना ही कीमती ...... 

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !