Wednesday, March 26, 2008

मार्च का महीना और बहुत कुछ ! भाग - १

मार्च का महीना "गजब" का महीना होता है ! मुझे लगता है यह महीना बाकी सभी महीनों मे सबसे महताव्पूर्ण होता है ! बिहार और देश भर मे इस महीना मे "मैट्रिक" का परीक्षा होता है ! बिहारी लोग इस परीक्षा को एक "पर्व" की तरह मानते हैं ! घर मे जो परीक्षार्थी होता है - उसको वरती के रूप मे मान लिया जाता है ! एक जमाना था जब पूरे गाँव के हर घर से एक दू वरती होता था ! माँ और बेटी दोनों एक साथ परीक्षा देते हुए देखा गया है ! एक साल पहले से "वरती या परीक्षार्थी" को लोग टोकना शुरू कर देते हैं - " तब , इस बार है , नु " ! मामा - मामी , चाची- चाचा , फुआ - फूफा - बड़ा भाई - छोटा भाई - घर परिवार , आस पड़ोस , पट्टीदार - गोतिया , सभी के सभी आपको ध्यान मे लाते हैं - कभी कभी थोडा बहुत पढे लिखे नौकर भी टोक दिया करते हैं !
मैट्रिक का परीक्षा अपने आप मे एक "प्रोजेक्ट होता है ! कहीं कहीं यह देखा गया है की - जिस शिक्षक से बाप ने पढ़ा - बेटा का मार्ग-दर्शन भी वही शिक्षक करते हैं ! प्रे बोर्ड के बाद - गेस पेपर खरीदना से लेकर - चिट पुर्जा के तकनीक - यह सभी " परीक्षार्थी" की कुशल प्रबंधन और स्टेटस को बताते हैं ! घर परिवार मी कुछ लोग कुशल मैट्रिक परीक्षा प्रबंधक होते हैं - उन लोगों विशेष रूप से बुलाया जाता है ! जहाँ परीक्षा केन्द्र बना हैवहाँ कोई चित परिचित खोजा जाता है - कभी कभार या अधिकतर जगहों पर देखा गया है की परीक्षा केन्द्र के "चपरासी" जितना काम कर जाते हैं - उतना बड़ा से बड़ा अधिकारी भी नही ! परीक्षा केन्द्र पर एक अलग नजारा होता है - बिल्कुल मेला की तरह - होम गार्ड के जवानों के पास साल भर मी कमाने का पहला और अन्तिम मौका होता है ! परीक्षा ख़त्म होते ही वही "चपरासी" बताता है की कॉपी कहाँ कहाँ गयी है ! फ़िर शुरू होता है - जांच केन्द्रों मी अपने आदमीओं की खोज !
आने वालों सालों मे यह एक मील का पत्थर होता है - लोग बात चिट मे कहते हैं - फलाना के बेटा के मैट्रिक के परीक्षा मे मेरा "छाता " खो गया टू कोई कहता है की होम गार्ड के डंडा से मेरा कुर्ता फट गया !
वक्त बदल गया - आज २१ साल हो गए मुझे मैट्रिक पास किए हुए - सब कुछ आंखों के गुजर रहा है - जैसे कल की ही बात है !
खैर ...... क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, March 25, 2008

वेतन आयोग !

बाबु जी को ५०० मिलाता था ! एकदम मस्त जिंदगी था ! रिक्शा अपना सवारी था ! सप्ताह मे २ दिन आलू दम और दू दिन मीट - भात भी बन जाता था ! शाम को हम लोग खेल कूद भी कर लेते थे ! सैकील से स्कूल भी चले जाते थे ! मौका मिला त बाबु जी के "लेम्ब्रेटा" पर लटक भी जाते थे ! साल मे दू बार कपडा - लत्ता भी खरीदा जाता था ! पाकिट मे चार आना और गप्प हांकते स्कूल पहुँच जाते थे ! जो दोस्त यार सैकील या स्कूटर रखता था - वह अपना समाज से अलग हो जाता था ! लंच मे चार अन्ना मे आलू चौप वाला चाट खा कर जो आनंद मिलाता था वह शायद डोमिनो पिज्जा मे नही मिलाता है ! होली मे पटना के सब्जी बागः से रु ३५/- वाला कुरता मे जो मजा था वह मॉल से खरीदा हुआ दीजैनदार कुरता मे नही है !
सब कुछ , जी हाँ , सब कुछ बाबु जी के ५०० मे ही हो जाता था - वह भी मजे से ! अब त कुत्ता बिल्ली , गदहा - बैल सबको कई हज़ार मे वेतन मिलता है - फ़िर भी सब बेचैन है ! ई , आला दर्जा का "सरकारी बाबु " सब का माथा ख़राब हो जाएगा - इतना तनखाह मिलने के बाद - क्या ये लोग "घूस" कमाना बंद कर देगा ? हमको टू नही लगता है :( !
साला समाज भी अजीब है - अगर आप "सरकरी बाबु " है और घूस के पैसा से पटना के पाटलिपुत्र मे एक कित्ता माकन नही है या फ़िर दिल्ली - नॉएडा मे २-३ थो फ्लैट नही है टू "समाज" से इज्जत की बात छोडिये - आपके बेटा - बेटी का बियाह होना मुश्किल हो जाएगा ! "बाबु" का मतलब ही लोग समझता है की - झाड़ के पैसा !
फ़िर दोषी कौन हुआ ? समाज जो आप पर दबाब बनाता है ! सरकारी नौकरी नही लगा त - प्राइवेट मी नौकरी कर ली - और प्राइवेट मी भी नही टीक पाये त बिजिनेस - अब बिजिनेस वाले को दोनों हाथ लूटते देख बेचारा सरकारी वाला क्या करेगा ?
अब त खबरिया वालों को भी भरपूर पैसा मिलने लगा है - अधिकतर टू वही लोग है - जो पटना - भोपाल- बनारस से दिल्ली आए थे कलक्टर बनने के लिए और सरकारी मी चपरासी भी नही बन पाये - हिन्दी - अंग्रेज़ी थोड़े अछ्छी थी सो "पत्रकार" बन गए - अब हज़ार की कौन पूछे - लाख मी पैसा कमा रहे हैं -
कहने का मतलब जब समाज का बौधिक रूप से कमज़ोर तबका भी लाख - करोड़ का बात कर रहा है टू सरकारी कर्मचारी को कुछ मिल ही गया टू इतना हंगामा क्यों ?
वैसे त आप लोग मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" टू पढ़ा ही होगा ! :)
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, March 15, 2008

झारखण्ड फ़िर एक बार और बिकेगा !

कई साल पहले मई एक सरस्वती के आराध्य के घर गया पर आश्चार्य हुआ की उनके यहाँ "लक्ष्मी" की फोटो लगी थी - पूछने पर बताया गया की - सभी "रास्ते" यहीं आते हैं ! यह बात आज तक मेरे मानस पटल पर अंकित है लेकिन दिल मनाने को तैयार नही है ! पर कब , तक ?

राज्यसभा चुनाव आते ही फ़िर से एक बार - वनवासियों का प्रदेश "झारखण्ड" बिकने को तैयार है ! मुकेश अम्बानी के दूत श्री परिमल नाथ्वानी जी निर्दालिये उम्मीदवार के रूप मे राज्य सभा के लिए तैयार है ! जीत स्वाभाविक है ! पर कई साल जमीन के धूल चाटने वाले राजनीतिक उम्मीदवारों का क्या होगा ?

पैसा मे बहुत दम है - यह मेरा ८ वर्षीय बेटा भी जानने लगा है ! शायद उसे एक शिक्षक पुत्र होने और महानगर की संसकृति की दबाब ने बहुत कम उमर मे "काफी परिपक्वा" बना दिया है ! उसे पता है - उसके पिता क्या खरीद सकते हैं और क्या नही - शायद यही "आभाव" उसके उज्जवल भविष्य को इंगित करता है !


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, March 11, 2008

होली आ रहा है - भाग १

पेट भरुआ बिहारी लोग अगला सप्ताह से घर जाने का तैयारी कर रहा होगा ! लालू जी के ट्रेन से गाँव जाएगा ! इस मौसम मे ट्रेन मे सीट मिलाना किसी सौभाग्य से कम नही है ! सुना है नीतिश जी 'चका चक' बिहार बना रहे हैं ! तब तो जाना और जरुरी है ! देखेंगे - कुछ 'जुगाड़' होगा त वहीं रूक जायेंगे ! अब , ई रोज रोज का राज ठाकरे का गाली और तेजेंद्र खन्ना का लाठी कौन सहेगा ! हम त "पुण्य प्रसून " भैया को भी यही बोले थे ! कहाँ यहाँ २ का ४ के चक्कर मे फँसे हुए हैं ! "होली" के बहाने से चुपके से बिहार सरक लीजिए ! "पटना दरबार" मे गुन गान कीजियेगा - कुछ न कुछ जरूर ही मिल जाएगा - नही मिलेगा त मोतिहारी वाला दरबार चले जाईयेगा !
मेरे जैसा पेट भरुआ लोग शायद नही जाए ! किसी के बेटा का "एक्साम" है तो किसी की बीबी का ! किसी को छुट्टी नही मिल रहा है तो किसी को टिकट ! वैसे नया नया जो दिल्ली आया है - वह तो ट्रेन मे लटक के ही जाएगा - जब तक वह लटक के नही जाएगा - उसको लगेगा ही नही की वह दिल्ली कमाने के लिए आया है - भाई , कुछ पसीना बहना चाहिए न !
मेरे जैसा खबरिया चैनल देखने वाला - कौन कैसे "होली" मनाया मे बिजी रहेगा ! आडवाणी जी बाबा के यहाँ गए या यशवंत सिन्हा रवि शंकर प्रसाद के यहाँ ! कुछ लोग सुबह से ही तुन रहेगा ! एक दिन पहले से ही बिना नाम वाला मैसेज आने लगेगा - अप खुश होंगे फ़िर तबाह हो जायेंगे ! जिसको आप भेजेंगे वह आपको नही भेजेगा - कोई और जिसका नाम आपके फोन मे नही है ! तरह तरह का मैसेज आवेगा ! "होली" के दिन ऐसा आदमी के यहाँ जन पड़ता है जिसके घर आप दुबारा नही जायेंगे ! क्योंकि सब लोग तो आप जैसा अभागा तो होता नही की "गाँव" नही जाए !
दिल्ली मे रु ३५/- वाला कुरता खोजने मे रु २०० का पेट्रोल खर्चा हो जाएगा या फ़िर बीबी आपका पिछला साल वाला कुरता खोजने मे आपको २-४ थो श्लोक सुना देगी ! वैसे मेरे कई ऐसे मित्र हैं - बीबी श्लोक सुने बिना दिन का जतरा नही बनता है ! बढ़िया है - जतरा बनाईये ! कुरता - पैजामा मिल जाएगा त "नारा " नही मिलेगा :( अब , क्या कीजियेगा ? रुकिए - सलवार से ही निकाल लीजिए ;)
जब शाम को बीबी हुर्केचेगी त किसी दोस्त के यहाँ का प्लान बनायीयेगा ! तब तक किसी दोस्त का फोन आ जाएगा की वही - आपके घर आ रहा है ! भाई - वह भी तो शादी शुदा है !
क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Wednesday, March 5, 2008

ठाकरे बाबा सही कह रहे हैं !

लालू कहते हैं की बुढापा का लक्षण है ! नीतिश जी नालंदा स्टाइल मे मे मी आ रहे हैं ! पासवान को बुझा ही नही रहा है की क्या कहें ? भाई , आप तीनो ने "मंडल" के सहारे जो वातावरण तैयार किया है बिहार मे उसका कोई जबाब नही है ! एक बात बताएं ? - आप तीनो १८ साल से बिहार मे कर क्या रहे हैं ? लालू - समान्त्वादों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला - नीतिश जी लालू के ख़िलाफ़ और पासवान जी दोनों के ख़िलाफ़ , बढ़िया है ! लगे रहिये ! लालू बिहार के लिए कुछ नही किए - आशा भी नही था ! पर , नीतिश बाबु - आप त जात पात से ऊपर उठ कर चुन कर आए थे - फ़िर ये अचानक जाती प्रेम कैसे जाग गया ? खैर , यह आपका दोष नही है - यह तो बिहार का संस्कार है ! हम त आपसे भी ज्यादा जात पात करते ! "बिहारी" जो ठहरे !
गरीब लोग कहाँ जाएगा ? भावनात्मक बहाव मे लालू-नीतिश -पासवान को वोट तो दे दिया और आज ठाकरे बाप बेटा मजा चखा रहा है ! काहे नही नीतिश-लालू-पासवान को कहते हो की हर जिला मे १० थो फैक्ट्री खोल दे ! सच्चाई यह है की नीतिश ख़ुद विकास नही चाहते हैं !
आप बिहारी हैं त तनी आप अपना गाओं - मोहल्ला - परिवार मे नज़र डालिए - आपको बिहार का कोई ऐसा परिवार नही मिलेगा जिसका कोई न कोई सदस्य बिहार से बाहर कमाने नही गया हो ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? बिहार का बंटवारा कौन करवाया ? क्या कसूर है हमारा ? अब त ख़ुद लालू का परिवार बिहार मे नही रहना चाहता है ! एक आम बिहारी भी बिहार नही जन चाहता है ! लालू राज मे सब से कम पलायन यादव लोग का था ठीक ऐसा ही नीतिश राज मे है - जब तक यह सब चलेगा - बिहार कैसे सुधरेगा ?
बिहार का जितना मीडिया वाला है - सब का सब एक नंबर का दलाल ! सब को पता है बिहार मे खुलेआम फेक एन्कोउतर हो रहा है - पैसा मे इतना दम है की सब चुप है !
सवाल बहुत है !
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Monday, March 3, 2008

" कब अईबू अंगनवा हमार ": भोजपुरी सिनेमा समीक्षा


अनजान शहर मे अनजान चेहरों के बीच अपनी सभ्यता और संसकृति की झलक देखने को ही मिल जाए - यही बहुत है ! काफी अरसा हो गया था - भोजपुरी सिनेमा देखे हुए ! श्री कवि कुमार द्वारा निर्मित " कब अईबू अंगनवा हमार " को नॉएडा के मल्टीप्लेक्स " P V R - Spice " ने दिखाने क निर्णय लिया तो यह भोजपुरी सिनेमा के इतिहास क पळ था क्योंकि यह अपने आप मे पहली भोजपुरी सिनेमा है जो किसी मल्टीप्लेक्स मे "चल " रही है !

कल यह सिनेमा देखने kaa मौका मिला ! श्री कवि कुमार बिल्कुल ही साफ सुथरी फ़िल्म लेकर आए हैं ! अभिनेता और गायक श्री मनोज तिवारी ne काफी स्वाभाविक अभिनय की जितनी तारीफ की जाए कम है ! विनीत कुमार भी दमदार नज़र आए ! सिनेमा के कार्यकारी निर्माता श्री अंशुमन मिश्रा ने बताया की इस तरह की साफ सुथरी बड़े बजट की भोजपुरी सिनेमा बनाना आसान काम नही हैं - मुझे भी ऐसा ही लगा ! इस सिनेमा मे पहली बार DABING के बिना काम चलाया गया है = जिसे टेक्नीकल भाषा मे "सिंक साउंड " कहते हैं - ऐसा प्रयोग सिर्फ़ लागान के कुछ दृश्यों के लिए किया गया था ! छरहरी बदन की मालकिन और मेरी हमउम्र श्वेता तिवारी ने काफी प्रभावित किया है !

सिनेमा अपने पहले मध्यांतर मे आपको अपने गाओं की याद से आखों को नम करेगा और दूसरे मध्यांतर मे एक प्रवासी "पूर्वांचल" के दर्द के कारन आपकी आँखें नम होंगी ! हाँ , सिनेमा एक स्वाभाविक कहानी और स्वाभाविक दमदार अभिनय पर केंद्रित है जिसके कारन थोडा लंबा हो गया जो निर्देशक की कमजोरी को दिखता है !
कुल मिला कर - यह सिनेमा आप हम सभी अपने परिवार के साथ बैठ कर देख ही नही सकते बल्कि इसकी खूबसूरत गानों क आनंद भी उठा सकते हैं !
निर्माता श्री कवी कुमार बिहार प्रान्त के सीतामढी निवासी हैं और सिनेमा की शूटिंग उनके गाओं मे ही हुयी है ! श्री कुमार एक बेहतरीन वक्ता भी हैं और पूर्वांचल और अर्थशास्त्र के मुद्दों पर खबरिया चैनल पर नज़र आते रहते हैं !
सभी पैसा खाने के लिए नही होता है - कुछ दिखाने के लिए भी होता है ! "तिरहुत" वासी सम्प्पन लोग समाज के प्रती अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह समझते हैं ! सिनेमा निर्माता श्री कवि कुमार अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों क निर्वाह करते नज़र आए और सिनेमा के मध्यम से अपनी मिटटी क क़र्ज़ भी कुछ हद तक उतरा है - जो एक सराहनीय कदम है